स्तोत्र
जय भगवति देवि नमो वरदे जय पापविनाशिनि बहुफलदे।
जय शुम्भनिशुम्भकपालधरे प्रणमामि तु देवि नरार्तिहरे॥1॥
जय चन्द्रदिवाकरनेत्रधरे जय पावकभूषितवक्त्रवरे।
जय भैरवदेहनिलीनपरे जय अन्धकदैत्यविशोषकरे॥2॥
जय महिषविमर्दिनि शूलकरे जय लोकसमस्तकपापहरे।
जय देवि पितामहविष्णुनते जय भास्करशक्रशिरोवनते॥3॥
जय षण्मुखसायुधईशनुते जय सागरगामिनि शम्भुनुते।
जय दु:खदरिद्रविनाशकरे जय पुत्रकलत्रविवृद्धिकरे॥4॥
जय देवि समस्तशरीरधरे जय नाकविदर्शिनि दु:खहरे।
जय व्याधिविनाशिनि मोक्ष करे जय वाञ्िछतदायिनि सिद्धिवरे॥5॥
एतद्व्यासकृतं स्तोत्रं य: पठेन्नियत: शुचि:।
गृहे वा शुद्धभावेन प्रीता भगवती सदा॥6॥
भावार्थ
हे वरदायिनी देवि! हे भगवति! तुम्हारी जय हो। हे पापों को नष्ट करने वाली और अनन्त फल देने वाली देवि। तुम्हारी जय हो! हे शुम्भनिशुम्भ के मुण्डों को धारण करने वाली देवि! तुम्हारी जय हो। हे मुष्यों की पीडा हरने वाली देवि! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ॥1॥ हे सूर्य-चन्द्रमारूपी नेत्रों को धारण करने वाली! तुम्हारी जय हो। हे अग्नि के समान देदीप्यामान मुख से शोभित होने वाली! तुम्हारी जय हो। हे भैरव-शरीर में लीन रहने वाली और अन्धकासुरका शोषण करने वाली देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥2॥ हे महिषसुर का मर्दन करने वाली, शूलधारिणी और लोक के समस्त पापों को दूर करने वाली भगवति! तुम्हारी जय हो। ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और इन्द्र से नमस्कृत होने वाली हे देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥3॥ सशस्त्र शङ्कर और कार्तिकेयजी के द्वारा वन्दित होने वाली देवि! तुम्हारी जय हो। शिव के द्वारा प्रशंसित एवं सागर में मिलने वाली गङ्गारूपिणि देवि! तुम्हारी जय हो। दु:ख और दरिद्रता का नाश तथा पुत्र-कलत्र की वृद्धि करने वाली हे देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥4॥ हे देवि! तुम्हारी जय हो। तुम समस्त शरीरों को धारण करने वाली, स्वर्गलोक का दर्शन करानेवाली और दु:खहारिणी हो। हे व्यधिनाशिनी देवि! तुम्हारी जय हो। मोक्ष तुम्हारे करतलगत है, हे मनोवाच्छित फल देने वाली अष्ट सिद्धियों से सम्पन्न परा देवि! तुम्हारी जय हो॥5॥
महिमा
जो कहीं भी रहकर पवित्र भाव से नियमपूर्वक इस व्यासकृत स्तोत्र का पाठ करता है अथवा शुद्ध भाव से घर पर ही पाठ करता है, उसके ऊपर भगवती सदा ही प्रसन्न रहती हैं॥6॥
रचनाकार
भगवती के इस स्तोत्र की रचना व्यास जी ने की थी।
चन्द्रार्कचूडामणिं स्तोत्र्
- श्रीदेव्या
- प्रात: स्मरणम् चाञ्चल्यारुणलोचनाञ्चितकृपां चन्द्रार्कचूडामणिं
चारुस्मेरमुखां चराचरजगत्संरक्षणीं सत्पदाम्।
चञ्चच्चम्पकनासिकाग्रविलसन्मुक्तामणीरञ्जितां
श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवतीं श्रीमातरं भावये॥1॥
कस्तूरीतिलकाञ्चितेन्दुविलसत्प्रोद्भासिभालस्थलीं
कर्पूरद्रवमिश्रचूर्णखदिरामोदोल्लसद्वीटिकाम्।
लोलापाङ्गतरङ्गितैरधिकृपासारैर्नतानन्दिनीं
श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवतीं श्रीमातरं भावये॥2॥
भावार्थ
जो सांसारिक भय को हरने वाले और देवताओं के स्वामी हैं, जो गङ्गाजी को धारण करते हैं, जिनका वृषभ वाहन है, जो अम्बिका के ईश हैं तथा जिनके हाथ में खट्वाङ्ग, त्रिशूल और वरद तथा अभयमुद्रा है, उन संसार-रोग को हरने के निमित्त अद्वितीय औषधरूप ईश (महादेव जी) को मैं प्रात:समय में स्मरण करता हूँ॥1॥ भगवती पार्वती जिनका आधा अङ्ग हैं, जो संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय के कारण हैं, आदिदेव हैं, विश्वनाथ हैं, विश्व-विजयी और मनोहर हैं, सांसारिक रोग को नष्ट करने के लिए अद्वितीय औषधरूप उन गिरीश (शिव) को मैं प्रात:काल नमस्कार करता हूँ॥2॥ जो अन्त से रहित आदिदेव हैं, वेदान्त से जानने योग्य, पापरहित एवं महान् पुरुष हैं तथा जो नाम आदि भेदों से रहित, छ: भाव-विकारों (जन्म, वृद्धि, स्थिरता, परिणमन, अपक्षय और विनाश) से शून्य, संसाररोग को हरने के निमित्त अद्वितीय औषध हैं, उन एक शिवजी को मैं प्रात:काल भजता हूँ॥3॥
महिमा
जो मनुष्य प्रात:काल उठकर शिव का ध्यान कर प्रतिदिन इन तीनों श्लोकों का पाठ करते हैं, वे लोग अनेक जन्मों के सञ्चित दु:खसमूह से मुक्त होकर शिवजी के उसी कल्याणमय पद को पाते हैं॥4॥
रचनाकार
इसकी रचना श्रीशङ्कराचार्य जी ने की थी। यह महन दैवि तकत होति है! हमे शरन दो !
श्रीकृष्णकृतं दुर्गास्तोत्रम्
- श्रीकृष्ण उवाच
त्वमेवसर्वजननी मूलप्रकृतिरीश्वरी। त्वमेवाद्या सृष्टिविधौ स्वेच्छया त्रिगुणात्मिका॥
कार्यार्थे सगुणा त्वं च वस्तुतो निर्गुणा स्वयम्। परब्रह्मस्वरूपा त्वं सत्या नित्या सनातनी॥
तेज:स्वरूपा परमा भक्त ानुग्रहविग्रहा। सर्वस्वरूपा सर्वेशा सर्वाधारा परात्परा॥
सर्वबीजस्वरूपा च सर्वपूज्या निराश्रया। सर्वज्ञा सर्वतोभद्रा सर्वमङ्गलमङ्गला॥
सर्वबुद्धिस्वरूपा च सर्वशक्ति स्वरूपिणी। सर्वज्ञानप्रदा देवी सर्वज्ञा सर्वभाविनी।
त्वं स्वाहा देवदाने च पितृदाने स्वधा स्वयम्। दक्षिणा सर्वदाने च सर्वशक्ति स्वरूपिणी।
निद्रा त्वं च दया त्वं च तृष्णा त्वं चात्मन: प्रिया। क्षुत्क्षान्ति: शान्तिरीशा च कान्ति: सृष्टिश्च शाश्वती॥
श्रद्धा पुष्टिश्च तन्द्रा च लज्जा शोभा दया तथा। सतां सम्पत्स्वरूपा श्रीर्विपत्तिरसतामिह॥
प्रीतिरूपा पुण्यवतां पापिनां कलहाङ्कुरा। शश्वत्कर्ममयी शक्ति : सर्वदा सर्वजीविनाम्॥
देवेभ्य: स्वपदो दात्री धातुर्धात्री कृपामयी। हिताय सर्वदेवानां सर्वासुरविनाशिनी॥
योगनिद्रा योगरूपा योगदात्री च योगिनाम्। सिद्धिस्वरूपा सिद्धानां सिद्धिदाता सिद्धियोगिनी॥
माहेश्वरी च ब्रह्माणी विष्णुमाया च वैष्णवी। भद्रदा भद्रकाली च सर्वलोकभयंकरी॥
ग्रामे ग्रामे ग्रामदेवी गृहदेवी गृहे गृहे। सतां कीर्ति: प्रतिष्ठा च निन्दा त्वमसतां सदा॥
महायुद्धे महामारी दुष्टसंहाररूपिणी। रक्षास्वरूपा शिष्टानां मातेव हितकारिणी॥
वन्द्या पूज्या स्तुता त्वं च ब्रह्मादीनां च सर्वदा। ब्राह्मण्यरूपा विप्राणां तपस्या च तपस्विनाम्॥
विद्या विद्यावतां त्वं च बुद्धिर्बुद्धिमतां सताम्। मेधास्मृतिस्वरूपा च प्रतिभा प्रतिभावताम्॥
राज्ञां प्रतापरूपा च विशां वाणिज्यरूपिणी। सृष्टौ सृष्टिस्वरूपा त्वं रक्षारूपा च पालने॥
तथान्ते त्वं महामारी विश्वस्य विश्वपूजिते। कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च मोहिनी॥
दुरत्यया मे माया त्वं यया सम्मोहितं जगत्। यया मुग्धो हि विद्वांश्च मोक्षमार्ग न पश्यति॥
इत्यात्मना कृतं स्तोत्रं दुर्गाया दुर्गनाशनम्। पूजाकाले पठेद् यो हि सिद्धिर्भवति वाञ्िछता॥
वन्ध्या च काकवन्ध्या च मृतवत्सा च दुर्भगा। श्रुत्वा स्तोत्रं वर्षमेकं सुपुत्रं लभते ध्रुवम्॥
कारागारे महाघोरे यो बद्धो दृढबन्धने। श्रुत्वा स्तोत्रं मासमेकं बन्धनान्मुच्यते ध्रुवम्॥
यक्ष्मग्रस्तो गलत्कुष्ठी महाशूली महाज्वरी। श्रुत्वा स्तोत्रं वर्षमेकं सद्यो रोगात् प्रमुच्यते॥
पुत्रभेदे प्रजाभेदे पत्नीभेदे च दुर्गत:। श्रुत्वा स्तोत्रं मासमेकं लभते नात्र संशय:॥
राजद्वारे श्मशाने च महारण्ये रणस्थले। हिंस्त्रजन्तुसमीपे च श्रुत्वा स्तोत्रं प्रमुच्यते॥
गृहदाहे च दावागनै दस्युसैन्यसमन्विते। स्तोत्रश्रवणमात्रेण लभते नात्र संशय:॥
महादरिद्रो मूर्खश्च वर्ष स्तोत्रं पठेत्तु य:। विद्यावान धनवांश्चैव स भवेन्नात्र संशय:॥
भावार्थ
श्रीकृष्ण बोले - देवि! तुम्हीं सबकी जननी, मूलप्रकृति ईश्वरी हो। तुम्हीं सृष्टिकार्य में आद्याशक्ति हो। तुम अपनी इच्छा से त्रिगुणमयी बनी हुई हो। कार्यवश सगुण रूप धारण करती हो। वास्तव में स्वयं निर्गुणा हो। सत्या, नित्या, सनातनी एवं परब्रह्मस्वरूपा हो, परमा तेज:स्वरूपा हो। भक्त ों पर कृपा करने के लिये दिव्य शरीर धारण करती हो। तुम सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी, सर्वाधारा, परात्परा, सर्वबीजस्वरूपा, सर्वपूज्या, निराश्रया, सर्वज्ञा, सर्वतोभद्रा (सब ओर से मङ्गलमयी), सर्वमङ्गलमङ्गला, सर्वबुद्धिस्वरूपा, सर्वशक्ति रूपिणी, सर्वज्ञानप्रदा देवी, सब कुछ जानने वाली और सबको उत्पन्न करने वाली हो। देवताओं के लिये हविष्य दान करने के निमित्त तुम्हीं स्वाहा हो, पितरों के लिये श्राद्ध अर्पण करने के निमित्त तुम स्वयं ही स्वधा हो, सब प्रकार के दानयज्ञ में दक्षिणा हो तथा सम्पूर्ण शक्ति यां तुम्हारा ही स्वरूप हैं। तुम निद्रा, दया और मन को प्रिय लगने वाली तृष्णा हो। क्षुधा, क्षमा, शान्ति, ईश्वरी, कान्ति तथा शाश्वती सृष्टि भी तुम्हीं हो। तुम्हीं श्रद्धा, पुष्टि, तन्द्रा, लज्जा, शोभा और दया हो। सत्पुरुषों के यहाँ सम्पत्ति और दुष्टों के घर में विपत्ति भी तुम्हीं हो। तुम्हीं पुण्यवानों के लिये प्रीतिरूप हो, पापियों के लिये कलह का अङ्कुर हो तथा समस्त जीवों की कर्ममयी शक्ति भी सदा तुम्हीं हो। देवताओं को उनका पद प्रदान करने वाली तुम्हीं हो। धाता (ब्रह्मा)-का भी धारण-पोषण करने वाली दयामयी धात्री तुम्हीं हो। सम्पूर्ण देवताओं के हित के लिये तुम्हीं समस्त असुरों का विनाश करती हो। तुम योगनिद्रा हो। योग तुम्हारा स्वरूप है। तुम योगियों को योग प्रदान करने वाली हो। सिद्धों की सिद्धि भी तुम्हीं हो। तुम सिद्धिदायिनी और सिद्धयोगिनी हो। ब्रह्माणी, माहेश्वरी, विष्णुमाया, वैष्णवी तथा भद्रदायिनी भद्रकाली भी तुम्हीं हो। तुम्हीं समस्त लोकों के लिये भय उत्पन्न करती हो। गाँव-गाँव में ग्रामदेवी और घर-घर में गृहदेवी भी तुम्हीं हो। तुम्हीं सत्पुरुषों की कीर्ति और प्रतिष्ठा हो। दुष्टों की होने वाली सदा निन्दा भी तुम्हारा ही स्वरूप है। तुम महायुद्ध में दुष्टसंहाररूपिणी महामारी हो और शिष्ट पुरुषों के लिये माता की भाँति हितकारिणी एवं रक्षारूपिणी हो। ब्रह्मा आदि देवताओं ने सदा तुम्हारी वन्दना, पूजा एवं स्तुति की है। ब्राह्मणों की ब्राह्मणता और तपस्वीजनों की तपस्या भी तुम्हीं हो, विद्वानों की विद्या बुद्धिमानों की बुद्धि, सत्पुरुषों की मेधा और स्मृति तथा प्रतिभाशाली पुरुषों की प्रतिभा भी तुम्हारा ही स्वरूप है। राजाओं का प्रताप और वैश्यों का वाणिज्य भी तुम्हीं हो। विश्वपूजिते! सृष्टिकाल में सृष्टिरूपिणी, पालनकाल में रक्षारूपिणी तथा संहारकाल में विश्व का विनाश करने वाली महामारीरूपिणी भी तुम्हीं हो। तुम्हीं कालरात्रि, महारात्रि तथा मोहिनी, मोहरात्रि हो; तुम मेरी दुर्लङ्घय माया हो, जिसने सम्पूर्ण जगत् को मोहित कर रखा है तथा जिससे मुग्ध हुआ विद्वान पुरुष भी मोक्षमार्ग को नहीं देख पाता।
महिमा
इस प्रकार परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा किये गये दुर्गा के दुर्गम संकटनाशनस्तोत्र का जो पूजाकाल में पाठ करता है, उसे मनोवाञ्िछत सिद्धि प्राप्त होती है। जो नारी वन्ध्या, काकवन्ध्या, मृतवत्सा तथा दुर्भगा है, वह भी एक वर्ष तक इस स्तोत्र का श्रवण करके निश्चय ही उत्तम पुत्र प्राप्त कर लेती है। जो पुरुष अत्यन्त घोर कारागार के भीतर दृढ बन्धन में बँधा हुआ है, वह एक ही मास तक इस स्तोत्र को सुन ले तो अवश्य ही बन्धन से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य राजयक्ष्मा, गलित कोढ, महाभयंकर शूल और महान् ज्वर से ग्रस्त है, वह एक वर्ष तक इस स्तोत्र का श्रवण कर ले तो शीघ्र ही रोग से छुटकारा पा जाता है। पुत्र, प्रजा और पत्नी के साथ भेद (कलह आदि) होने पर यदि एक मास तक इस स्तोत्र को सुने तो इस संकट से मुक्ति प्राप्त होती है, इसमें संशय नहीं है। राजद्वार, श्मशान, विशाल वन तथा रणक्षेत्र में और हिंसक जन्तु के समीप भी इस स्तोत्र के पाठ और श्रवण से मनुष्य संकट से मुक्त हो जाता है। यदि घर में आग लगी हो, मनुष्य दावानल से घिर गया हो अथवा डाकुओं की सेना में फँस गया हो तो इस स्तोत्र के श्रवण मात्र से वह उस संकट से पार हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। जो महादरिद्र और मूर्ख है, वह भी एक वर्ष तक इस स्तोत्र को पढे तो निस्संदेह विद्वान और धनवान् हो जाता है।
रचनाकार
ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खंड से उद्धृत इस स्तोत्र का स्तवन भगवान् श्रीकृष्ण ने भगवती दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए किया था।
परशुरामकृतं दुर्गास्तात्रम्
- परशुराम उवाच
श्रीकृष्णस्य च गोलोके परिपूर्णतमस्य च:आविर्भूता विग्रहत: पुरा सृष्ट्युन्मुखस्य च॥
सूर्यकोटिप्रभायुक्त ा वस्त्रालंकारभूषिता। वह्निशुद्धांशुकाधाना सुस्मिता सुमनोहरा॥
नवयौवनसम्पन्ना सिन्दूरविन्दुशोभिता। ललितं कबरीभारं मालतीमाल्यमण्डितम्॥
अहोऽनिर्वचनीया त्वं चारुमूर्ति च बिभ्रती। मोक्षप्रदा मुमुक्षूणां महाविष्णोर्विधि: स्वयम्॥
मुमोह क्षणमात्रेण दृ त्वां सर्वमोहिनीम्। बालै: सम्भूय सहसा सस्मिता धाविता पुरा॥
सद्भि: ख्याता तेन राधा मूलप्रकृतिरीश्वरी। कृष्णस्त्वां सहसाहूय वीर्याधानं चकार ह॥
ततो डिम्भं महज्जज्ञे ततो जातो महाविराट्। यस्यैव लोमकूपेषु ब्रह्माण्डान्यखिलानि च॥
तच्छृङ्गारक्रमेणैव त्वन्नि:श्वासो बभूव ह। स नि:श्वासो महावायु: स विराड् विश्वधारक:॥
तव घर्मजलेनैव पुप्लुवे विश्वगोलकम्। स विराड् विश्वनिलयो जलराशिर्बभूव ह॥
ततस्त्वं पञ्चधाभूय पञ्चमूर्तीश्च बिभ्रती। प्राणाधिष्ठातृमूर्तिर्या कृष्णस्य परमात्मन:॥
कृष्णप्राणाधिकां राधां तां वदन्ति पुराविद:॥
वेदाधिष्ठातृमूर्तियां वेदाशास्त्रप्रसूरपि। तौ सावित्रीं शुद्धरूपां प्रवदन्ति मनीषिण:॥
ऐश्वर्याधिष्ठातृमूर्ति: शान्तिश्च शान्तरूपिणी। लक्ष्मीं वदन्ति संतस्तां शुद्धां सत्त्वस्रूपिणीम्॥
रागाधिष्ठातृदेवी या शुक्लमूर्ति: सतां प्रसू:। सरस्वतीं तां शास्त्रज्ञां शास्त्रज्ञा: प्रवदन्त्यहो॥
बुद्धिर्विद्या सर्वशक्ते र्या मूर्तिरधिदेवता। सर्वमङ्गलमङ्गल्या सर्वमङ्गलरूपिणी॥
सर्वमङ्गलबीजस्य शिवस्य निलयेऽधुना॥
शिवे शिवास्वरूपा त्वं लक्ष्मीर्नारायणान्तिके। सरस्वती च सावित्री वेदसूर्ब्रह्मण: प्रिया॥
राधा रासेश्वरस्यैव परिपूर्णतमस्य च। परमानन्दरूपस्य परमानन्दरूपिणी॥
त्वत्कलांशांशकलया देवानामपि योषित:॥
त्वं विद्या योषित: सर्वास्त्वं सर्वबीजरूपिणी। छाया सूर्यस्य चन्द्रस्य रोहिणी सर्वमोहिनी॥
शची शक्रस्य कामस्य कामिनी रतिरीश्वरी। वरुणानी जलेशस्य वायो: स्त्री प्राणवल्लभा॥
वह्ने: प्रिया हि स्वाहा च कुबेरस्य च सुन्दरी। यमस्य तु सुशीला च नैर्ऋतस्य च कैटभी॥
ईशानस्य शशिकला शतरूपा मनो: प्रिया। देवहूति: कर्दमस्य वसिष्ठस्याप्यरुन्धती॥
लोपामुद्राप्यगस्त्यस्य देवमातादितिस्तथा। अहल्या गौतमस्यापि सर्वाधारा वसुन्धरा॥
गङ्गा च तुलसी चापि पृथिव्यां या: सरिद्वरा:। एता: सर्वाश्च या ह्यन्या: सर्वास्त्वत्कलयाम्बिके॥
गृहलक्ष्मीगर्ृहे नृणांराजलक्ष्मीश्च राजसु। तपस्विनां तपस्या त्वं गायत्री ब्राह्मणस्य च॥
सतां सत्त्वस्वरूपा त्वमसतां कलहाङ्कुरा। ज्योतीरूपा निर्गुणस्य शक्ति स्त्वं सगुणस्य च॥
सूर्ये प्रभास्वरूपा त्वं दाहिका च हुताशने। जले शैत्यस्वरूपा च शोभारूपा निशाकरे॥
त्वं भूमौ गन्धरूपा च आकाशे शब्दरूपिणी। क्षुत्पिपासादयस्त्वं च जीविनां सर्वशक्त य:॥
सर्वबीजस्वरूपा त्वं संसारे साररूपिणी। स्मूतिर्मेधा च बुद्धिर्वा ज्ञानशक्ति र्विपश्चिताम्॥
कृष्णेन विद्या या दत्ता सर्वज्ञानप्रसू: शुभा। शूलिने कृपया सा त्वं यतो मृत्युञ्जय: शिव:॥
सृष्टिपालनसंहारशक्त यस्त्रिविधाश्च या:। ब्रह्मविष्णुमहेशानां सा त्वमेव नमोऽस्तु ते॥
मधुकैटभभीत्या च त्रस्तो धाता प्रकम्पित:। स्तुत्वा मुमोच यां देवीं तां मूधनर् प्रणमाम्यहम्॥
मधुकैटभयोर्युद्धे त्रातासौ विष्णुरीश्वरीम्। बभूव शक्ति मान् स्तुत्वा तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
त्रिपुरस्य महायुद्धे सरथे पतिते शिवे। यां तुष्टुवु: सुरा: सर्वे तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
विष्णुना वृषरूपेण स्वयं शम्भु: समुत्थित: जघान त्रिपुरं स्तुत्वा तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
यदाज्ञया वाति वात: सूर्यस्तपति संततम्। वर्षतीन्द्रो दहत्यगिन्स्तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
यदाज्ञया हि कालश्च शश्वद् भ्रमति वेगत:। मृत्युश्चरति जन्त्वोघे तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
स्त्रष्टा सृजति सृष्टिं च पाता पाति यदाज्ञया। संहर्ता संहरेत् काले तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
ज्योति:स्वरूपो भगवाञ्छ्रीकृष्णो निर्गुण: स्वयम्। यया विना न शक्त श्च सृष्टिं कर्तु नमामि ताम्॥
रक्ष रक्ष जगन्मातरपराधं क्षमस्व ते। शिशूनामपराधेन कुतो माता हि कुप्यति॥
इत्युक्त्वा पर्शुरामश्च प्रणम्य तां रुरोद ह। तुष्टा दुर्गा सम्भ्रमेण चाभयं च वरं ददौ॥
अमरो भव हे पुत्र वत्स सुस्थिरतां व्रज। शर्वप्रसादात् सर्वत्र ज्योऽस्तु तव संततम्॥
सर्वान्तरात्मा भगवांस्तुष्टोऽस्तु संततं हरि:। भक्ति र्भवतु ते कृष्णे शिवदे च शिवे गुरौ॥
इष्टदेवे गुरौ यस्य भक्ति र्भवति शाश्वती। तं हन्तु न हि शक्त ाश्च रुष्टाश्च सर्वदेवता:॥
श्रीकृष्णस्य च भक्त स्त्वं शिष्यो हि शंकरस्य च। गुरुपत्नीं स्तौषि यस्मात् कस्त्वां हन्तुमिहेश्वर:॥
अहो न कृष्णभक्त ानामशुभं विद्यते क्वचित्। अन्यदेवेषु ये भक्त ा न भक्त ा वा निरेङ्कुशा:॥
चन्द्रमा बलवांस्तुष्टो येषां भाग्यवतां भृगो। तेषां तारागणा रुष्टा: किं कुर्वन्ति च दुर्बला:॥
यस्य तुष्ट: सभायां चेन्नरदेवो महान् सुखी। तस्य किं वा करिष्यन्ति रुष्टा भृत्याश्च दुर्बला:॥
इत्युक्त्वा पार्वती तुष्टा दत्त्वा रामं शुभाशिषम्। जगामान्त:पुरं तूर्ण हरिशब्दो बभूव ह॥
स्तोत्रं वै काण्वशाखोक्तं पूजाकाले च य: पठेत्। यात्राकाले च प्रातर्वा वाञ्िछतार्थ लभेद्ध्रुवम॥
पुत्रार्थी लभते पुत्रं कन्यार्थी कन्यकां लभेत्। विद्यार्थी लभते विद्यां प्रजार्थी चाप्रुयात् प्रजाम्॥
भ्रष्टराज्यो लभेद् राज्यं नष्टवित्तो धनं लभेत्॥
यस्य रुष्टो गुरुर्देवो राजा वा बान्धवोऽथवा। तस्य तुष्टश्च वरद: स्तोत्रराजप्रसादत:॥
दस्युग्रस्तोऽहिग्रस्तश्च शत्रुग्रस्तो भयानक:। व्याधिग्रस्तो भवेन्मुक्त : स्तोत्रस्मरणमात्रत:॥
राजद्वारे श्मशाने च कारागारे च बन्धने। जलराशौ निमगन्श्च मुक्त स्तत्स्मृतिमात्रत:॥
स्वामिभेदे पुत्रभेदे मित्रभेदे च दारुणे। स्तोत्रस्मरणमात्रेण वाञ्िछतार्थ लभेद् ध्रुवम॥
कृत्वा हविष्यं वर्ष च स्तोत्रराजं श्रृणोति या। भक्त्या दुर्गा च सम्पूज्य महावन्ध्या प्रसूयते॥
लभते सा दिव्यपुत्रं ज्ञानिनं चिरजीविनम्। असौभाग्या च सौभाग्यं षण्मासश्रवणाल्लभेत्॥
नवमासं काकवन्ध्या मृतवत्सा च भक्ति त:। स्तोत्रराजं या श्रृणोति सा पुत्रं लभते धु्रवम्॥
कन्यामाता पुत्रहीना पञ्जमासं श्रृणोति या। घटे सम्पूज्य दुर्गा च सा पुत्रं लभते धु्रवम्॥
भावार्थ
परशुराम ने कहा - प्राचीन काल की बात है; गोलोक में जब परिपूर्णतम श्रीकृष्ण सृष्टिरचना के लिए उद्यत हुए, उस समय उनके शरीर से तुम्हारा प्राकटय हुआ था। तुम्हारी कान्ति करोडों सूर्यो के समान थी। तुम वस्त्र और अलंकारों से विभूषित थीं। शरीर पर अगिन् में तपाकर शुद्ध की हुई साडी का परिधान था। नव तरुण अवस्था थी। ललाटपर सिंदूर की बेंदी शोभित हो रही थी। मालती की मालाओं से मण्डित गुँथी हुई सुन्दर चोटी थी। बडा ही मनोहर रूप था। मुख पर मन्द मुस्कान थी। अहो! तुम्हारी मूर्ति बडी सुन्दर थी, उसका वर्णन करना कठिन है। तुम मुमुक्षुओं को मोक्ष प्रदान करने वाली तथा स्वयं महाविष्णु की विधि हो। बाले! तुम सबको मोहित कर लेने वाली हो। तुम्हें देखकर श्रीकृष्ण उसी क्षण मोहित हो गये। तब तुम उनसे सम्भावित होकर सहसा मुस्कराती हुई भाग चलीं। इसी कारण सत्पुरुष तुम्हें मूलप्रकृति ईश्वरी राधा कहते हैं। उस समय सहसा श्रीकृष्ण ने तुम्हें बुलाकर वीर्य का आधान किया। उससे एक महान् डिम्ब उत्पन्न हुआ। उस डिम्ब से महाविराट् की उत्पत्ति हुई, जिसके रोमकूपों में समस्त ब्रह्माण्ड स्थित हैं। फिर राधा के श्रृङ्गारक्रम से तुम्हारा नि:श्वास प्रकट हुआ। वह नि:श्वास महावायु हुआ और वही विश्व को धारण करने वाला विराट् कहलाया। तुम्हारे पसीने से विश्वगोलक पिघल गया। तब विश्व का निवासस्थान वह विराट् जल की राशि हो गया। तब तुमने अपने को पाँच भागों में विभक्त करके पाँच मूर्ति धारण कर ली। उनमें परमात्मा श्रीकृष्ण की जो प्राणाधिष्ठात्री मूर्ति है, उसे भविष्यवेत्ता लोग कृष्णप्राणाधिका राधा कहते हैं। जो मूर्ति वेद-शास्त्रों की जननी तथा वेदाधिष्ठात्री है, उस शुद्धरूपा मूर्ति को मनीषीगण सावित्री नाम से पुकारते हैं। जो शान्ति तथा शान्तरूपिणी ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री मूर्ति है, उस सत्त्वस्वरूपिणी शुद्ध मुर्ति को संतलोग लक्ष्मी नाम से अभिहित करते हैं। अहो! जो राग की अधिष्ठात्री देवी तथा सत्पुरुषों को पैदा करने वाली है, जिसकी मूर्ति शुक्ल वर्ण की है, उस शास्त्र की ज्ञाता मूर्ति को शास्त्रज्ञ सरस्वती कहते हैं। जो मूर्ति बुद्धि, विद्या, समस्त शक्ति की अधिदेवता, सम्पूर्ण मङ्गलों की मङ्गलस्थान, सर्वमङ्गलरूपिणी और सम्पूर्ण मङ्गलों की कारण है, वही तुम इस समय शिव के भवन में विराजमान हो।
तुम्हीं शिव के समीप शिवा (पार्वती), नारायण के निकट लक्ष्मी और ब्रह्मा की प्रिया वेदजननी सावित्री और सरस्वती हो। जो पूरिपूर्णतम एवं परमानन्दस्वरूप हैं, उन रासेश्वर श्रीकृष्ण की तुम परमानन्दरूपिणी राधा हो। देवाङ्गनाएँ भी तुम्हारे कलांश की अंशकला से प्रादुर्भूत हुई हैं। सारी नारियाँ तुम्हारी विद्यास्वरूपा हैं और तुम सबकी कारणरूपा हो। अम्बिके! सूर्य की पत्नी छाया, चन्द्रमा की भार्या सर्वमोहिनी रोहिणी, इन्द्र की पत्नी शची, कामदेव की पत्नी ऐश्वर्यशालिनी रति, वरुण की पत्नी वरुणानी, वायु की प्राणप्रिया स्त्री, अगिन् की प्रिया स्वाहा, कुबेर की सुन्दरी भार्या, यम की पत्नी सुशीला, नैर्ऋत की जाया कैटभी, ईशान की पत्नी शशिकला, मनु की प्रिया शतरूपा, कर्दम की भार्या देवहूति, वसिष्ठ की पत्नी अरुन्धती, देवमाता अदिति, अगस्त्य मुनि की प्रिया लोपामुद्रा, गौतम की पत्नी अहल्या, सबकी आधाररूपा वसुन्धरा, गङ्गा, तुलसी तथा भूतल की सारी श्रेष्ठ सरिताएँ-ये सभी तथा इनके अतिरिक्ति जो अन्य स्त्रियाँ हैं, वे सभी तुम्हारी कला से उत्पन्न हुई हैं।
तुम मनुष्यों के घर में गृहलक्ष्मी, राजाओं के भवनों में राजलक्ष्मी, तपस्वियों की तपस्या और ब्राह्मणों की गायत्री हो। तुम सत्पुरुषों के लिए सत्त्वस्वरूप और दुष्टों के लिये कलह की अङ्कुर हो। निर्गुण की ज्योति और सगुण की शक्ति तुम्हीं हो। तुम सूर्य में प्रभा, अगिन् में दाहिका-शक्ति , जल में शीतलता और चन्द्रमा में शोभा हो। भूमि में गन्ध और आकाश में शब्द तुम्हारा ही रूप है। तुम भूख-प्यास आदि तथा प्राणियों की समस्त शक्ति हो। संसार में सबकी उत्पत्ति की कारण, साररूपा, स्मृति, मेधा, बुद्धि अथवा विद्वानों की ज्ञानशक्ति तुम्हीं हो। श्रीकृष्ण ने शिवजी को कृपापूर्वक सम्पूर्ण ज्ञान की प्रसविनी जो शुभ विद्या प्रदान की थी, वह तुम्हीं हो; उसी से शिवजी मृत्युञ्जय हुए हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की सृष्टि, पालन और संहार करने वाली जो त्रिविध शक्ति याँ हैं, उनके रूप में तुम्हीं विद्यमान हो; अत: तुम्हें नमस्कार है। जब मधु-कैटभ के भय से डरकर ब्रह्मा काँप उठे थे, उस समय जिनकी स्तुति करके वे भयमुक्त हुए थे; उन देवी को मैं सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मधु-कैटभ के युद्ध में जगत् के रक्षक ये भगवान् विष्णु जिन परमेश्वरी का स्तवन करके शक्ति मान् हुए थे, उन दुर्गा को मैं नमस्कार करता हूँ। त्रिपुर के महायुद्ध में रथसहित शिवजी के गिर जाने पर सभी देवताओं ने जिनकी स्तुति की थी; उन दुर्गा को मैं प्रणाम करता हूँ। जिनका स्तवन करके वृषरूपधारी विष्णु द्वारा उठाये गये स्वयं शम्भु ने त्रिपुर का संहार किया था; उन दुर्गा को मैं अभिवादन करता हूँ। जिनकी आज्ञा से निरन्तर वायु बहती है, सूर्य तपते हैं, इन्द्र वर्षा करते हैं और अगिन् जलाती है; उन दुर्गा को मैं सिर झुकाता हूँ। जिनकी आज्ञा से काल सदा वेगपूर्वक चक्क र काटता रहता है और मृत्यु जीव-समुदाय में विचरती रहती है; उन दुर्गा को मैं नमस्कार करता हूँ। जिनके आदेश से सृष्टिकर्ता सृष्टि की रचना करते हैं, पालनकर्ता रक्षा करते हैं और संहर्ता समय आने पर संहार करते हैं; उन दुर्गा को मैं प्रणाम करता हूँ। जिनके बिना स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण, जो ज्योति:स्वरूप एवं निर्गुण हैं, सृष्टि-रचना करने में समर्थ नहीं होते; उन देवी को मेरा नमस्कार है। जगज्जननी! रक्षा करो, रक्षा करो; मेरे अपराध को क्षमा कर दो। भला, कहीं बच्चे के अपराध करने से माता कुपित होती है।
इतना कहकर परशुराम उन्हें प्रणाम करके रोने लगे। तब दुर्गा प्रसन्न हो गयीं और शीघ्र ही उन्हें अभय का वरदान देती हुई बोलीं- हे वत्स! तुम अमर हो जाओ। बेटा! अब शान्ति धारण करो। शिवजी की कृपा से सदा सर्वत्र तुम्हारी विजय हो। सर्वान्तरात्मा भगवान् श्रीहरि सदा तुमपर प्रसन्न रहें। श्रीकृष्ण में तथा कल्याणदाता गुरुदेव शिव में तुम्हारी सुदृढ भक्ति बनी रहे; क्योंकि जिसकी इष्टदेव तथा गुरु में शाश्वती भक्ति होती है, उस पर यदि सभी देवता कुपित हो जायँ तो भी उसे मार नहीं सकते। तुम तो श्रीकृष्ण के भक्त और शंकर के शिष्य हो तथा मुझ गुरुपत्नी की स्तुति कर रहे हो; इसलिए किसकी शक्ति है जो तुम्हें मार सके। अहो! जो अन्यान्य देवताओं के भक्त हैं अथवा उनकी भक्ति न करके निरंकुश ही हैं, परंतु श्रीकृष्ण के भक्त हैं तो उनका कहीं भी अमङ्गल नहीं होता। भार्गव! भला, जिन भाग्यवानों पर बलवान् चन्द्रमा प्रसन्न हैं तो दुर्बल तारागण रुष्ट होकर उनका क्या बिगाड सकते हैं। सभा में महान आत्मबल से सम्पन्न सुखी नरेश जिसपर संतुष्ट है, उसका दुर्बल भृत्यवर्ग कुपित होकर क्या कर लेगा? यों कहकर पार्वती हर्षित हो परशुराम को शुभाशीर्वाद देकर अन्त:पुर में चली गयीं। तब तुरंत हरि-नाम का घोष गूँज उठा।
महिमा
जो मनुष्य इस काण्वशाखोक्त स्तोत्र का पूजा के समय, यात्रा के अवसर पर अथवा प्रात:काल पाठ करता है, वह अवश्य ही अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेता है। इसके पाठ से पुत्रार्थी को पुत्र, कन्यार्थी को कन्या, विद्यार्थी को विद्या, प्रजार्थी को प्रजा, राज्यभ्रष्ट को राज्य और धनहीन को धन की प्राप्ति होती है। जिसपर गुरु, देवता, राजा अथवा बन्धु-बान्धव क्रुद्ध हो गये हों, उसके लिये ये सभी इस स्तोत्रराज की कृपा से प्रसन्न होकर वरदाता हो जाते हैं। जिसे चोर-डाकुओं ने घेर लिया हो, साँप ने डस लिया हो, जो भयानक शत्रु के चंगुल में फँस गया हो अथवा व्याधिग्रस्त हो; वह इस स्तोत्र के स्मरण मात्र से मुक्त हो जाता है। राजद्वार पर, श्मशान में, कारागार में और बन्धन में पडा हुआ तथा अगाध जलराशि में डूबता हुआ मनुष्य इस स्तोत्र के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। स्वामिभेद, पुत्रभेद तथा भयंकर मित्रभेद के अवसर पर इस स्तोत्र के स्मरण मात्र से निश्चय ही अभीष्टार्थ की प्राप्ति होती है। जो स्त्री वर्षपर्यन्त भक्ति पूर्वक दुर्गा का भलीभाँति पूजन करके हविष्यान्न खाकर इस स्तोत्रराज को सुनती है, वह महावन्ध्या हो तो भी प्रसववाली हो जाती है। उसे ज्ञानी एवं चिरजीवी दिव्य पुत्र प्राप्त होता है। छ: महीने तक इसका श्रवण करने से दुर्भगा सौभाग्यवती हो जाती है। जो काकवन्ध्या और मृतवत्सा नारी भक्ति पूर्वक नौ मास तक इस स्तोत्रराज को सुनती है, वह निश्चय ही पुत्र पाती है। जो कन्या की माता तो है परंतु पुत्र से हीन है, वह यदि पाँच महीने तक कलश पर दुर्गा की सम्यक् पूजा करके इस स्तोत्र को श्रवण करती है तो उसे अवश्य ही पुत्र की प्राप्ति होती है।
रचनाकार
ब्रह्मवैवर्त पुराण में गणपति खण्ड से उद्धृत इस स्तोत्र का स्तवन परशुराम ने श्रीहरि के निर्देश पर माता दुर्गा (शिवा) को प्रसन्न करने के लिए किया था। परशुराम अपने गुरु शिव का आशीर्वाद लेने के लिए अन्त:पुर जाना चाहते थे। गणेश द्वारा रोके जाने पर दोनों में युद्ध हुआ जिसमें परशुराम ने शिव प्रदत्त फरसा चला दिया जिससे गणेश जी का एक दाँत टूट गया था (एक दंत पडा)। इससे कुपित होकर पार्वती परशुराम को मारने के लिए उद्यत हो गई। उसी समय भगवान् विष्णु बौने ब्राह्मण-बालक के रूप में उपस्थित हुए। उन्होंने पार्वती को समझाया तथा परशुराम को उनकी स्तुति करने का निर्देश दिया।
शिवकृतं दुर्गास्तोत्रम्
- श्रीमहादेव उवाच
रक्ष रक्ष महादेवि दुर्गे दुर्गतिनाशिनि। मां भक्त मनुरक्तं च शत्रुग्रस्तं कृपामयि॥
विष्णुमाये महाभागे नारायणि सनातनि। ब्रह्मस्वरूपे परमे नित्यानन्दस्वरूपिणी॥
त्वं च ब्रह्मादिदेवानामम्बिके जगदम्बिके। त्वं साकारे च गुणतो निराकारे च निर्गुणात्॥
मायया पुरुषस्त्वं च मायया प्रकृति: स्वयम्। तयो: परं ब्रह्म परं त्वं बिभर्षि सनातनि॥
वेदानां जननी त्वं च सावित्री च परात्परा। वैकुण्ठे च महालक्ष्मी: सर्वसम्पत्स्वरूपिणी॥
मर्त्यलक्ष्मीश्च क्षीरोदे कामिनी शेषशायिन:। स्वर्गेषु स्वर्गलक्ष्मीस्त्वं राजलक्ष्मीश्च भूतले॥
नागादिलक्ष्मी: पाताले गृहेषु गृहदेवता। सर्वशस्यस्वरूपा त्वं सर्वैश्वर्यविधायिनी॥
रागाधिष्ठातृदेवी त्वं ब्रह्मणश्च सरस्वती। प्राणानामधिदेवी त्वं कृष्णस्य परमात्मन:॥
गोलोके च स्वयं राधा श्रीकृष्णस्यैव वक्षसि। गोलोकाधिष्ठिता देवी वृन्दावनवने वने॥
श्रीरासमण्डले रम्या वृन्दावनविनोदिनी। शतश्रृङ्गाधिदेवी त्वं नामन चित्रावलीति च॥
दक्षकन्या कुत्र कल्पे कुत्र कल्पे च शैलजा। देवमातादितिस्त्वं च सर्वाधारा वसुन्धरा॥
त्वमेव गङ्गा तुलसी त्वं च स्वाहा स्वधा सती। त्वदंशांशांशकलया सर्वदेवादियोषित:॥
स्त्रीरूपं चापिपुरुषं देवि त्वं च नपुंसकम्। वृक्षाणां वृक्षरूपा त्वं सृष्टा चाङ्कुररूपिणी॥
वह्नौ च दाहिकाशक्ति र्जले शैत्यस्वरूपिणी। सूर्ये तेज:स्वरूपा च प्रभारूपा च संततम्॥
गन्धरूपा च भूमौ च आकाशे शब्दरूपिणी। शोभास्वरूपा चन्द्रे च पद्मसङ्घे च निश्चितम्॥
सृष्टौ सृष्टिस्वरूपा च पालने परिपालिका। महामारी च संहारे जले च जलरूपिणी॥
क्षुत्त्वं दया त्वं निद्रा त्वं तृष्णा त्वं बुद्धिरूपिणी। तुष्टिस्त्वं चापि पुष्टिस्त्वं श्रद्धा त्वं च क्षमा स्वयम्॥
शान्तिस्त्वं च स्वयं भ्रान्ति: कान्तिस्त्वं कीर्तिरेव च। लज्जा त्वं च तथा माया भुक्ति मुक्ति स्वरूपिणी॥
सर्वशक्ति स्वरूपा त्वं सर्वसम्पत्प्रदायिनी। वेदेऽनिर्वचनीया त्वं त्वां न जानाति कश्चन॥
सहस्त्रवक्त्रस्त्वां स्तोतुं न च शक्त : सुरेश्वरि। वेदा न शक्त ा: को विद्वान् न च शक्त ा सरस्वती॥
स्वयं विधाता शक्तो न न च विष्णु: सनातन:। किं स्तौमि पञ्चवक्त्रेण रणत्रस्तो महेश्वरि॥
कृपां कुरु महामाये मम शत्रुक्षयं कुरु।
भावार्थ
श्रीमहादेवजी ने कहा - दुर्गति का विनाश करने वाली महादेवि दुर्गे! मैं शत्रु के चंगुल में फँस गया हूँ; अत: कृपामयि! मुझ अनुरक्त भक्त की रक्षा करो, रक्षा करो। महाभगे जगदम्बिके! विष्णुमाया, नारायणी, सनातनी, ब्रह्मस्वरूपा, परमा और नित्यानन्दस्वरूपिणी- ये तुम्हारे ही नाम हैं। तुम ब्रह्मा आदि देवताओं की जननी हो। तुम्हीं सगुण-रूप से साकार और निर्गुण-रूप से निराकार हो। सनातनि! तुम्हीं माया के वशीभूत हो पुरुष और माया से स्वयं प्रकृति बन जाती हो तथा जो इन पुरुष-प्रकृति से परे हैं; उस परब्रह्म को तुम धारण करती हो। तुम वेदों की माता परात्परा सावित्री हो। वैकुण्ठ में समस्त सम्पत्तियों की स्वरूपभूता महालक्ष्मी, क्षीरसागर में शेषशायी नारायण की प्रियतमा मर्त्यलक्ष्मी, स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी और भूतलपर राजलक्ष्मी तुम्हीं हो। तुम पाताल में नागादिलक्ष्मी, घरों में गृहदेवता, सर्वशस्यस्वरूपा तथा सम्पूर्ण ऐश्वर्यो का विधान करने वाली हो। तुम्हीं ब्रह्मा की रागाधिष्ठात्री देवी सरस्वती हो और परमात्मा श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिदेवी भी तुम्हीं हो। तुम गोलोक में श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल पर शोभा पाने वाली गोलोक की अधिष्ठात्री देवी स्वयं राधा, वृन्दावन में होने वाली रासमण्डल में सौन्दर्यशालिनी वृन्दावनविनोदिनी तथा चित्रावली नाम से प्रसिद्ध शतश्रृङ्गपर्वत की अधिदेवी हो। तुम किसी कल्प में दक्ष की कन्या और किसी कल्प में हिमालय की पुत्री हो जाती हो। देवमाता अदिति और सबकी आधारस्वरूपा पृथ्वी तुम्हीं हो। तुम्हीं गङ्गा, तुलसी, स्वाहा, स्वधा और सती हो। समस्त देवाङ्गनाएँ तुम्हारे अंशांश की अंशकाला से उत्पन्न हुई हैं। देवि! स्त्री, पुरुष और नपुंसक तुम्हारे ही रूप हैं। तुम वूक्षों में वृक्षरूपा हो और अंकुर-रूप से तुम्हारा सृजन हुआ है। तुम अगिन् में दाहिका शक्ति , जल में शीतलता, सूर्य में सदा तेज:स्वरूप तथा कान्तिरूप, पृथ्वी में गन्धरूप, आकाश में शब्दरूप, चन्द्रमा और कमलसमूह में सदा शोभारूप, सृष्टि में सृष्टिस्वरूप, पालन-कार्य में भलीभाँति पालन करने वाली, संहारकाल में महामारी और जल में जलरूप में वर्तमान रहती हो। तुम्हीं क्षुधा, तुम्हीं दया, तुम्हीं निद्रा, तुम्हीं तृष्णा, तुम्हीं बुद्धिरूपिणी, तुम्हीं तुष्टि, तुम्हीं पुष्टि, तुम्हीं श्रद्धा और तुम्हीं स्वयं क्षमा हो। तुम स्वयं शान्ति, भ्रान्ति और कान्ति हो तथा कीर्ति भी तुम्हीं हो। तुम लज्जा तथा भोग-मोक्ष्ज्ञ-स्वरूपिणी माया हो। तुम सर्वशक्ति स्वरूपा और सम्पूर्ण सम्पत्ति प्रदान करने वाली हो। वेद में भी तुम अनिर्वचनीय हो, अत: कोई भी तुम्हें यथार्थरूप से नही जानता। सुरेश्वरि! न तो सहस्त्र मुखवाले शेष तुम्हारा स्तवन करने में समर्थ हैं, न वेदों में वर्णन करने की शक्ति है और न सरस्वती ही तुम्हारा बखान कर सकती है; फिर कोई विद्वान कैसे कर सकता है? महेश्वरि! जिसका स्तवन स्वयं ब्रह्मा और सनातन भगवान् विष्णु नहीं कर सकते, उसकी स्तुति युद्ध से भयभीत हुआ मैं अपने पाँच मुखों द्वारा कैसे कर सकता हूँ? अत: महामाये! तुम मुझपर कृपा करके मेरे शत्रु का विनाश कर दो।
रचनाकार
इस स्तोत्र का स्तवन भगवती दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए भगवान् शिव ने किया था। ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के उद्धृत इस स्तोत्र द्वारा स्तवन करके शम्भु ने त्रिपुरासुर का वध किया था। यह स्तोत्रराज संपूर्ण अज्ञान को नाश करने वाला तथा मनोरथों को पूरा करने वाला है।
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