Earn Money Online

Wednesday, January 21, 2015

"महामृत्युञ्जय शिव".....(प्राणों के रक्षक)


शिव आदि देव है।शिव को समझना या जानना सब कुछ जान लेना जैसा हैं।अपने भक्तों पर परम करूणा जो रखते है,जिनके कारण यह सृष्टि संभव हो पायी है,वह एकमात्र शिव ही है।शिव इस ब्रह्माण्ड में सबसे उदार एवं कल्याणकारी हैं।अनेक रुपों में शिव सिर्फ दाता हैं।सम्पूर्ण लोक के सभी देवता और देवियाँ महा ऐश्वर्यशाली हैं,परन्तु शिव के पास सब कुछ रहते हुए भी वे वैरागी हैं।कारण वे ही निराकार और साकार पूर्ण ब्रह्म हैं।शिव पल पल कितने विष पीते है,कहना क्या?दक्ष प्रजापति ने अपनी पुत्री सती का कन्यादान किया था,शिव दमाद थे।परन्तु एक बार किसी सभा में सभी देवों की उपस्थिती में दक्ष के आने पर सभी देवता और ॠषिगण सम्मान में दक्ष को प्रणाम करने लगे,परन्तु शिव कुछ नही बोले।इस बात को स्वयं का अनादर समझ कर दक्ष शिव को भूतों का स्वामी,वेद से बहिष्कृत रहने वाला कह अपमान करने लगे,परन्तु शिव ने कुछ नहीं कहा।
कुछ काल बाद दक्ष प्रजापति ने एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन कनखल क्षेत्र में रखा सभी देवी,देवता,ॠषि,मुनि सहित असुर,नवग्रह,नक्षत्र मण्डल को भी निमंत्रित किया परन्तु शिव को नही बुलाया।कारण शिव के अपमान के लिए ही यज्ञ रखा गया था।शिव भक्त दधिचि शिव के बिना यज्ञ को अमंगलकारी बताकर वहां से चले गये।अभिमानी लोगों का यही हाल है वो थोड़ी सी शक्ति आ जाने पर अपने को सर्वज्ञ समझ लेते है।रोहिणी संग चन्द्रमा को जाते देख सती को जब इस बात का ज्ञान हुआ कि मेरे पिता के यहां यज्ञ में ये जा रहे है तो आश्चर्य हुआ कि हमे क्यों नही बुलाया?वे शिव जी के समीप जाकर बोली कि स्वामी मेरे पिता ने हमें यज्ञ में नहीं बुलाया फिर भी मैं जाना चाहती हूँ।सती को शिव नें समझाया कि बिन बुलाए जाना मृत्यु के समान हैं,परन्तु सति द्वारा हठ करने पर शिव ने आज्ञा प्रदान की।यज्ञ में जब शिव की निन्दा सुन सती ने आत्मदाह कर लिया तो शिव ने अपनी जटा से वीरभद्र तथा कालिका को प्रकट कर असंख्य गणों के साथ दक्ष यज्ञ के विनाश के लिए भेजा।क्या परिणाम हुआ अंहकारी,देव,दानव के साथ दक्ष का भी सिर मुण्डन हो गया।फिर शिव की दया ही थी कि ब्रह्मा जी के स्तुति से प्रसन्न होकर दक्ष को पशु मुख देकर अभय दान प्रदान किया।
शिव है तो सारी सृष्टि हैं।शिव का एक रूप है "महामृत्युञ्जय" जो सभी को अमृत प्रदान करते है।आज प्रकृति हमारे विरूद्ध हो गई है,कारण हम उस दिव्य प्रकृति को ही नष्ट कर रहे हैं।हम शायद ज्यादा बुद्धिमान वैज्ञानिक हो गये है।इतने ही अगर हम योग्य हो गये है तो,महामारी,भूकम्प और गंगा आदि नदीयों की अशुद्धता,आसुरी बुद्धि चिंतन को बदलने का विज्ञान क्यों नहीं ढूढँ लेते हैं।हर युग में विज्ञान रहा है।द्वापर में कृष्ण के समय भी इस सृष्टि में आसुरी प्रवृति की कमी नहीं थी,तभी तो महाभारत जैसा युद्ध हुआ था।आज उन्हीं आसुरी जीवों का ज्यादा विकास हो रहा समाज में,शिव को मनाना होगा स्तुति से प्रसन्न करना होगा तभी संतुलन होगा।भक्ती तो आज बहुत से लोग कर रहे है।भगवत कृपा,दिव्य दर्शन भी ज्यादा से ज्यादा हो रहे है,परन्तु हमारी आँखे कभी प्रभु को खोजती भी हैं क्या।शिव तो सदा हमारे सामने ही खड़े है क्या हम उन्हें देख पाते है,नहीं!कारण हमेशा व्यर्थ की चीजों को देख अपनी आँखो को थका लेते है,जिस कारण से अब उर्जा ही नहीं रही तीसरे नेत्र से देखने की हममे।शिव व्याकुल हैं हमारे लिए पर हमे तो भक्ति करने का भी ढंग नही है।हमे भी तो शिव के लिए व्याकुल होना पड़ेगा।हम दुशमन है अपने परिवार के,अपनी संतान के अपनी नयी पीढी के जिसे अपने अंहकार वश विंध्वस के राह पर ले जा रहे है,कारण शरीर,मन,बुद्धि से हम रोगग्रस्त है।यहाँ बस शिव मृत्युञ्जय की अराधना से ही हम स्वस्थ हो पायेंगे।इस विषम परिस्थितियों से बचने के लिए शिव कृपा ही एकमात्र सहारा है।मृत्यु क्या है?सिर्फ शरीर के मृत्यु की बात नहीं हैं यह,हमारे इच्छाओं की मृत्यु।हमारे जीवन की बहुत सी भौतिक जरूरते,वंश और समाज की अवनति तथा कोई भी अभाव मृत्यु ही तो हैं।
 -:अनुभव:-
मैंने जीवन में इतने प्रयोग किये है,करवाये है और देखे है की लिखूँ तो एक वृहद पुस्तक का रूप ले लेंगे।माँ काली की साधना के दौरान १० लाख मंत्र जप के बाद जब मेरा शरीर जर्जर होकर रोग ग्रस्त हो गया था तब बहुत से उपाय,दवा और दुआ के बाद भी मैं ठीक न हो सका था।मैं समझ गया अब बचना मुश्किल है,क्या करूं बच्चे अभी छोटे है इनका क्या होगा।एक रात यूँही चुपचाप रोते रोते नींद आ गई तभी मैने देखा एक विचित्र वेषभूषा में एक आदमी मेरे पास आकर बोलता है कि तुम बच नहीं सकते,तुम्हें मरना पड़ेगा।और तभी ११,१२ वर्ष के उम्र के गौर वर्ण शिव प्रकट हुए बालक रूप में।ये तो बटुक भौरव लगते है कहता हुआ और उन्हें देख वह आदमी भाग गया और मैं तो भाव विह्वल होकर बस उन्हें प्रणाम करने लगा।उन्होनें कुछ आदेश दिया,कुछ गोपनीय बात बतायी,और चले गये।मैं प्रथम बार काशी की यात्रा कर श्री विश्वनाथ जी का दर्शन किया।रात्री ८ बज रहे थे,हल्की बारिश की फुहार हो रही थी।मैं मणिकर्णिका घाट पर था तभी एक,अघोरी स्त्री ने आकर मुझे मृत्युञ्जय मंत्र नित्य दिन में जप करने को कहा।ये स्त्री कौन है,सोच ही रहा था कि वह न जाने कहां लोप हो गई।प्रातः से मैने मंदिर में जप शूरू किया और उसी दिन लगा कि अब मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ।कितनी ऐसी घटना है,शिव बाबा के करुणा और स्नेह की।
-:संदेश:-
पुराण की कथा लोग ठीक से समझ जाये तो मर्म समझ में आ जायेगा।सती महाशक्ति थी,वह जानती थी,कि शिव से वियोग होने वाला है।शिव निराकार ब्रह्म है परन्तु साकार रूप बस मेरी खातिर ही धरे हैं मैं उनकी आत्मा हूँ।मेरा अगला अवतरण हिमालय के यहाँ होगा तब तक शिव समाधि में रहेगे इसी कारण जाने के पूर्व दश महाविद्या के रूप में शिव के दशों दिशा में विराजमान हो गई।शिव ही सभी कुछ है,शिव ही माँ है,"माँ" ही शिव है,ये दो होते हुए भी एक ही हैं।शिव,शक्ति का अमिट प्रेम ही सत्य है तभी तो कहा गया "सत्यम शिवम सुन्दरम्"।
मृत्युञ्जय शस्त्र विहीन है पर उनकी शक्ति अमृतेश्वरी पीताम्बरा माता हैं।जो कहती है "देते रहिये शिव,बांटते रहिए,जीव पर करूणा बरसाते रहिये,मैं तो अमृत कुण्ड की स्वामिनी हूँ और आप मेरे स्वामी है।" यही शिवशक्ति का संबध है।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                             -:मंत्र प्रयोग:-
मूल मंत्र में संपुट लगा देने से यह मंत्र महामृत्युञ्जय हो जाता है।लघु मृत्युंजय तथा बहुत से ऐसे मंत्र है,जिसका जप किया जाता है।जीव को मृत्यु मुख से खींच लाते है,मृत्युंजय।आज तो हमेशा भय लगा रहता है कि कब क्या हो जाय।ग्रह के अशुभ दशा या दैविक,दैहिक प्रभाव,तंत्र या कोई भी अनिष्टकारी प्रभाव को दूर कर देते है पल में।पुरा परिवार सुरक्षित रहता है,छोटा रोग हो या असाध्य बिमारी,आपरेशन हो या महामारी,कोई खो जाय या कोई भी संकट आन पड़े मृत्युंजय की कृपा से सब कुछ अच्छा हो जाता हैं।मृत्युंजय मंत्र ३२ अक्षर का "त्र्यम्बक मंत्र" भी कहलाता हैं ।"ॐ" लगा देने से यह ३३ अक्षर का हो जाता हैं,इस मंत्र में संपुट लगा देने से मंत्र का कई रूप प्रकट हो जाता है।गायत्री मंत्र के साथ प्रयोग करने पर यह "मृतसंजीवनी मंत्र" हो जाता हैं।मंत्र प्रयोग के लिए "शिव वास" देखकर ही जप शुरू करें।शिव मंदिर में मंत्र जप करने पर कोई नियम की पाबन्दी नहीं हैं।यदि घर में पूजन करते है तो पहले पार्थिव शिव पूजन करके या चित्र का पूजन कर घी का दीपक अर्पण कर,पुष्प,प्रसाद के साथ कामना के लिए दायें हाथ में जल,अक्षत लेकर संकल्प कर ले।कितनी संख्या में जप करना है यह निर्णय कर ले साथ ही जप माला रूद्राक्ष का ही हो।एक निश्चित संख्या में ही जप होना चाहिए।हवन के दिन "अग्निवास" देख लेना चाहिए।आज मै "मृत्युंजय प्रयोग" दे रहा हूँ,विधि संक्षिप्त हैं पूरी श्रद्धा के साथ प्रयोग करे,और शिव कृपा देखे।साथ ही शिव पार्थिव पूजन विधि श्रावण में दे दूंगा।गुरू,गणेश पूजन के बाद शिव पूजन कर,पूर्व दिशा में ऊनी आसन पर बैठ एकाग्र चित जप करना चाहिये।आचमनी निम्न मंत्र से कर संकल्प कर ले।दाएँ हाथ मे जल लेकर मंत्र बोले 
मंत्र
१.ॐ केशवाय नमः।जल पी जाए।
२.ॐ नारायणाय नमः।जल पी जाए।
३.ॐ माधवाय नमः।जल पी लें।
अब हाथ इस मंत्र से धो ले।४.ॐ हृषिकेषाय नमः।

अब संकल्प करे।संकल्प अपने कामना अनुसार छोटा,बड़ा कर सकते है।दाएँ हाथ में जल,अक्षत,बेलपत्र,द्रव्य,सुपारी रख संकल्प करें।
संकल्प 
"ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुःश्रीमद् भगवतो महापूरूषस्य,विष्णुराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्माणोऽहनि द्वितीये परार्धे श्री श्वेत वाराहकल्पे,वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशति तमे कलियुगे कलि प्रथमचरणे भारतवर्षे भरतखण्डे जम्बूद्वीपे आर्यावर्तैक देशान्तर्गते अमुक संवतसरे महांमागल्यप्रद मासोतमे मासे अमुक मासे अमुकपक्षे,अमुकतिथौःअमुकवासरे,अमुक गोत्रोत्पन्नोहं अमुक शर्माहं,या वर्माहं ममात्मनःश्रुति स्मृति,पुराणतन्त्रोक्त फलप्राप्तये मम जन्मपत्रिका ग्रहदोष,दैहिक,दैविक,भौतिक ताप सर्वारिष्ट निरसन पूर्वक सर्वपाप क्षयार्थं मनसेप्सित फल प्राप्ति पूर्वक,दीर्घायु,विपुलं,बल,धन,धान्य,यश,पुष्टि,प्राप्तयर्थम सकल आधि,व्याधि,दोष परिहार्थम सकलाभीष्टसिद्धये श्री शिव मृत्युंजय प्रीत्यर्थ पूजन,न्यास,ध्यान यथा संख्याक मंत्र जप करिष्ये।"
गणेश प्रार्थना
गजाननं भूतगणादि सेवितं कपित्थजम्बू फलचारूभक्षणम्।उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम्॥नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय,गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते॥ॐ श्री गणेशाय नमः।

गुरू प्रार्थना 
गुरूर्ब्रह्मा,गुरूर्विष्णु,गुरूर्देवो महेश्वरः।गुरू साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः॥

गौरी प्रार्थना
ॐ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्मताम्॥
                            
  विनियोग 
अस्य त्र्यम्बक मन्त्रस्य वसिष्ठ ऋषिःअनुष्टुप छन्दःत्र्यम्बक पार्वतीपतिर्देवता,त्र्यं बीजम्,वं शक्तिः,कं कीलकम्,सर्वेष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यास
 ॐ वसिष्ठर्षये नमःशिरसि।अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे।त्र्यम्बकपार्वतीपति देवतायै नमः हृदि।त्र्यं बीजाय नमः गुह्ये।वं शक्तये नमः पादयोः।कं कीलकाय नमः नाभौ।
विनियोगाय नमःसर्वागें।
करन्यास
त्र्यम्बकम् अंगुष्ठाभ्यां नमः।यजामहे तर्जनीभ्यां नमः।सुगंधिं पुष्टिवर्द्धनं मध्यमाभ्यां नमः।उर्वारूकमिव बन्धनात् अनामिकाभ्यां नमः।मृत्योर्मुक्षीय कनिष्ठिकाभ्यां नमः।मामृतात् करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
हृदयादिन्यास
ॐ त्र्यम्बकं हृदयाय नमः।यजामहे शिरसे स्वाहा।सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनं शिखायै वषट्।उर्वारूकमिव बन्धनात् कवचाय हुं।मृत्योर्मुक्षीय नेत्रत्रयाय वौषट्।मामृतात् अस्त्राय फट्।
ध्यान
हस्ताभ्यां कलशद्वयामृतरसैराप्लावयन्तं शिरो द्वाभ्यां तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्यां बहन्तं परम्।अंकन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकान्तं शिवं स्वच्छाम्भोजगतं नवेन्दुमुकुटं देवं त्रिनेत्रं भजे।
मंत्र
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
हवन विधि
जप के समापन के दिन हवन के लिए बिल्वफल,तिल,चावल,चन्दन,पंचमेवा,जायफल,गुगुल,करायल,गुड़,सरसों धूप,घी मिलाकर हवन करे।रोग शान्ति के लिए,दूर्वा,गुरूचका चार इंच का टुकड़ा,घी मिलाकर हवन करे।श्री प्राप्ति के लिए बिल्वफल,कमलबीज,तथा खीर का हवन करे।ज्वरशांति में अपामार्ग,मृत्युभय में जायफल एवं दही,शत्रुनिवारण में पीला सरसों का हवन करें।हवन के अंत में सुखा नारियल गोला में घी भरकर खीर के साथ पुर्णाहुति दें।इसके बाद तर्पण,मार्जन करे।एक कांसे,पीतल की थाली में जल,गो दूध मिलाकर अंजली से तर्पण करे।मंत्र के दशांश हवन,उसका दशांश तर्पण,उसका दशांश मार्जन,उसका दशांश का शिवभक्त और ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए।तर्पण,मार्जन में मूल मंत्र के अंत मे तर्पण में "तर्पयामी" तथा मार्जन मे "मार्जयामी" लगा लें।अब इसके दशांश के बराबर या १,३,५,९,११ ब्राह्मणों और शिव भक्तों को भोजन कर आशिर्वाद ले।जप से पूर्व कवच का पाठ भी किया जा सकता है,या नित्य पाठ करने से आयु वृद्धि के साथ रोग से छुटकारा मिलता है।
मृत्युञ्जय कवच
विनियोग
अस्य मृत्युञ्जय कवचस्य वामदेव ऋषिःगायत्रीछन्दः मृत्युञ्जयो देवता साधकाभीष्टसिद्धर्यथ जपे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यास
वामदेव ऋषये नमःशिरसि,गायत्रीच्छन्दसे नमःमुखे,मृत्युञ्जय देवतायै नमःहृदये,विनियोगाय नमःसर्वांगे।
करन्यास
ॐ जूं सःअगुष्ठाभ्यां नमः।ॐ जूं सः तर्जनीभ्यां नमः।ॐजूं सः मध्याभ्यां नमः।ॐजूं सःअनामिकाभ्यां नमः।ॐजूं सःकनिष्ठिकाभ्यां नमः।ॐजूं सःकरतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
हृदयादिन्यास
ॐजूं सः हृदयाय नमः।ॐजूं सःशिरसे स्वाहा।ॐजूं सःशिखायै वषट्।ॐजूं सःकवचाय हुं।ॐजूंसःनेत्रत्रयाय वौषट्।ॐजूं सःअस्त्राय फट्।
ध्यान
हस्ताभ्यां.....उपरोक्त ध्यान ही पढ ले।
शिरो मे सर्वदा पातु मृत्युञ्जय सदाशिवः।स त्र्यक्षरस्वरूपो मे वदनं च महेश्वरः॥
पञ्चाक्षरात्मा भगवान् भुजौ मे परिरक्षतु।मृत्युञ्जयस्त्रिबीजात्मा ह्यायू रक्षतु मे सदा॥
बिल्ववृक्षसमासीनो दक्षिणामूर्तिरव्ययः।सदा मे सर्वदा पातु षट्त्रिंशद् वर्णरूपधृक्॥
द्वाविंशत्यक्षरो रूद्रः कुक्षौ मे परिरक्षतु।त्रिवर्णात्मा नीलकण्ठः कण्ठं रक्षतु सर्वदा॥
चिन्तामणिर्बीजपूरे ह्यर्द्धनारीश्वरो हरः।सदा रक्षतु में गुह्यं सर्वसम्पत्प्रदायकः॥
स त्र्यक्षर स्वरूपात्मा कूटरूपो महेश्वरः।मार्तण्डभैरवो नित्यं पादौ मे परिरक्षतु॥
ॐ जूं सः महाबीज स्वरूपस्त्रिपुरान्तकः।ऊर्ध्वमूर्घनि चेशानो मम रक्षतु सर्वदा॥
दक्षिणस्यां महादेवो रक्षेन्मे गिरिनायकः।अघोराख्यो महादेवःपूर्वस्यां परिरक्षतु॥
वामदेवः पश्चिमायां सदा मे परिरक्षतु।उत्तरस्यां सदा पातु सद्योजातस्वरूपधृक्॥

इस कवच को विधि विधान से अभिमंत्रित कर धारण करने का विशेष लाभ हैं।महामृत्युञ्जय मंत्र का बड़ा महात्मय है।शिव के रहते कैसी चिन्ता ये अपने भक्तों के सारे ताप शाप भस्म कर देते है।शिव है तो हम है,यह सृष्टि है तथा जगत का सारा विस्तार है,शिव भोलेभाले है और उनकी शक्ति है भोली शिवा,यही लीला हैं।   

No comments:

Post a Comment