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Wednesday, January 14, 2015

अलॊकीक योग दर्शन लेख। (58)



वानप्रस्थ-त्यागी एवं सन्यासी और महेश का दायित्व
गृहस्थ जीवन में जब व्यक्ति कर्म करते और भोग-भोगते हुये चारों तरफ आनन्द शून्य और शान्ति रहित रहते हुए सांसारिक जीवन से ऊब जाता है और किसी भी कर्म और भोग में कल्याण तो दिखलायी देता नहीं, इसीलिए कर्म और भोग के प्रति वैराग्य उत्पन्न होने लगता है, जिससे व्यक्ति कर्म और भोग को त्यागने हेतु उत्प्रेरित होने लगता है। कल्याण, आनन्द और शान्ति रहित जीवन कोई जीवन नहीं। ऐसा जीवन तो पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों आदि का होता है, मानव का नहीं। खाना, सोना, भय-भीत रहना और बच्चे पैदा करना आदि तो सभी जीवों को सभी योनियों में होता रहता है, परन्तु ‘सत्य-ज्ञान’ अथवा ‘सत्य-धर्म’ मात्र मनुष्य योनि में ही मिल सकता है, अन्य किसी योनि में नहीं।

         

वानप्रस्थी जीवन वह जीवन होता है जिसमें गृहस्थ जीवन में रहते हुये भी त्याग भाव को प्रधानता देते हुये सन्यास का अभ्यास करते रहा जाय। दूसरे शब्दों में गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुये परमेश्वर की उत्कट जिज्ञासा के साथ खोज करते रहना, साथ ही त्याग प्रधान भाव के साथ ही श्रद्धापूर्वक सन्त-महात्माओं की सेवा करते हुये गृहस्थ से सन्यास तक पहुँचने का प्रयत्न करते हुये सन्यास के पूर्व का जीवन ही वानप्रस्थ जीवन है। हालाँकि त्यागी शब्द तो गृहस्थ जीवन के त्याग के बाद ही लागू होता है, परन्तु गृहस्थ जीवन में कर्म करते हुये भी परमात्मा के प्रति श्रद्धापूर्वक पूर्ण समर्पण भाव में रहते हुये सन्त-महात्माओं की सेवा गृहस्थों से महत्वपूर्ण समझते हुये परमात्मा को जान-पहचान कर अपने परमकल्याण और परमशान्ति को प्राप्त होने के लिए अपने सर्वस्व के त्याग का भाव प्रधान रहते हुये कर्म करने में भी त्याग ही है। अर्थात् गृहस्थ और सन्यास के मध्य का जीवन ही वानप्रस्थ जीवन है और गृहस्थ जीवन का पूर्णतः त्याग और उत्कट जिज्ञासा पूर्वक परमात्मा की तलाश करते रहना और जो भी सन्त-महात्मा मिले, तब तक उसकी सेवा और भगवान की खोज श्रद्धा और समर्पण भाव के साथ जारी रखा जाय, जब तक कि परमात्मा की जानकारी और पहचान न हो जाय। परमात्मा की जानकारी और पहचान होते ही सदा-सर्वदा के लिए पूर्ण श्रद्धा और समर्पण के साथ उनके आश्रित रहते हुये उन्ही की शरण में पूर्णतः अपने तन-मन-धन को समर्पित कर देना चाहिए। यही कर्म, त्याग, सन्यास अथवा जीवन की चरम और परम उपलब्धि है।
त्यागी और सन्यासी की रक्षा-व्यवस्था का भार शंकर जी पर होता है। यह जीवन साधना और कल्याण प्रधान होना चाहिए, तभी दायित्व शंकर जी का होगा अन्यथा आडम्बरी-त्यागी और सन्यासी का नहीं। ज्ञानी का सारा भार भगवान पर होता है।
ब्रह्मा जी ब्रह्म तेज अथवा आत्म-ज्योति के माध्यम से रक्षा व्यवस्था कराते हैं जबकि श्री विष्णु जी लक्ष्मी द्वारा सम्पत्ति के माध्यम से रक्षा-व्यवस्था कराते हैं और शंकर जी त्याग और साधना द्वारा तप और शिव-शक्ति के तेज द्वारा व्यवस्था कराते हैं।
देखने योग्य और आश्चर्य की बात तो यह है कि जिन चार क्रियाओं को गर्भस्थ शिशु करता था, उन्ही की नकल ‘सौर-गृह’ या ‘प्रसूति-गृह’ में प्रसव के समय की जाती है। नाजानकारी के कारण अज्ञानता के रूप में वही चार क्रियाएँ प्रधानता के साथ शादी-विवाह में भ्रम-पूर्ण तरीके से करायी जाती हैं। वही चार क्रियाएँ जड़ता वश मृतक के साथ भी की जाती है। इतना ही नहीं, गलत धारणा के कारण मन्दिर में पूजा आरती के समय भी वही चार क्रियाएँ प्रधानता के साथ पुजारी जी करते कराते हैं तथा अन्त में वही चार क्रियाएँ जो गर्भस्थ शिशु गर्भ में करता रहता था, जिससे नाना भ्रम जालों में फँसकर, भटक कर वंचित हो गया था, आध्यात्मिक महात्मागण उन्ही चार क्रियाओं को राज-योग कहकर जनाते-सिखाते व कराते रहते हैं, परन्तु ये भी लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाते हैं। अंततः सबका पर्दाफास तो तब होता है, जब सबका कर्ता, भर्ता, हर्ता रूप परमेश्वर का परमधाम से भू-मण्डल पर अवतरण होता है और उन्ही के द्वारा जब सब बातों की यथार्थ जानकारी दी जाती है। अब हम सभी बन्धुगण अलग-अलग इन उपर्युक्त बातों को जाने-देखें और समझते हुये सत्यता को धारण करें।

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