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Wednesday, January 14, 2015

अलॊकीक योग दर्शन लेख। (50)



परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म से ‘आत्म-ज्योति’ रूप शब्द-शक्ति उत्पन्न होकर दो प्रकार की गतिविधियों में विभाजित हो जाती है जिसमें पहली – ‘आत्म’ शब्द ‘एकोsहं बहुस्याम् वभूव’ रूप सिद्धान्त से ‘आत्म’ शब्द ही ‘अहम्’ शब्द में परिवर्तित होते हुये अनेकों भागों में विभाजित हो-हो कर शरीरों के साथ संयुक्त होकर शारीरिक शब्दों (नामों) में परिवर्तित हो जाता है। अब, शारीरिक शब्द (नाम) यदि शरीर रूप साधन के माध्यम से संसार में कर्म करते और भोग भोगते हुये अपनी पूर्ववत् स्थिति की जानकारी और यादगारी में रहते हुये सुख, आनन्द, चिदानन्द और सच्चिदानन्दमय रहते हुये इधर-उधर मात्र जीवों के सुधार (जानकारी) और उद्धार (यादगारी) हेतु भ्रमण करता रहता है। यह हुई शब्द की शाश्वतता अथवा अमरता की स्थिति। व्यक्तियों का शरीर जिस शब्द परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) से ; या ‘आत्म’ से; या ‘अहम्’ से; या शरीर (शारीरिक नाम) से युक्त होकर कायम रहता है, उसी के सच्चिदानन्द से; या चिदानन्द से; या आनन्द से; या सुख से युक्त होकर शरीर पर्यन्त तक कायम रहते हुये, शरीर त्यागने पर, उसी परमानन्द और परमशान्ति से युक्त परमधाम को; कल्याण और शान्ति से युक्त शिवलोक को; आनन्द से युक्त देव लोक को; सुख-दुख से युक्त स्वर्ग-नरक को प्राप्त होते हैं अर्थात् जिस स्तर के शब्द से युक्त रहते हुये शरीर को रखेंगे और त्याग करेंगे उसी की गतिविधि में रहते हुये उसी क्षमतानुसार प्राप्ति होगी।

                 


सुख- शरीर से, शरीर के लिए तथा शरीर तक अथवा इन्द्रियों द्वारा, इन्द्रियों के लिए तथा इन्द्रियों तक ही इच्छित विषयानुकूल इन्द्रियों, वस्तुओं और परिस्थितियों आदि से प्राप्त अनुकूलता ही प्रसन्नता या सुख होता है और प्रतिकूलता ही दुःख । यह शरीर या इन्द्रिय तथा वस्तु प्रधान होता है। इस वर्ग के लोगों को आनन्द, चिदानन्द की अनुभूति भी नहीं होती है और सच्चिदानन्द की जानकारी और बोध की बात तो इन लोगों को सुनने को भी नहीं मिलती है और अगर कहीं मिल भी गयी, तो ये ऐसे अभागे किस्म के लोग होते हैं कि कामिनी-कंचन के फँसाने अथवा व्यवस्था से इन्हे फुरसत ही नहीं मिलती है। यदि कहीं फुरसत भी मिल गयी, तो इन सबकी समझ में ही नहीं आती है। यदि समझ में आती भी है, तो ये इतने अधिक व्यसनी, लोभी, लालची और आसक्त होते हैं कि कामिनी और कंचन रूपी जड़-जगत् में फँसकर ये भी जड़ी हो जाते हैं। इनको अपना ही उत्थान करने में पीछे दिखाई देने लगता है कि परिवार की क्या दशा होगी, नौकरी समाप्त हो जाएगी आदि आदि। इन जड़ियों के लिए सुख, आनन्द, चिदानन्द और सच्चिदानन्द आदि में कोई अन्तर ही नहीं मालूम पड़ता है। कैसे मालूम पड़े ? जिसकी जानकारी ही नहीं उसका अन्तर कैसे मालूम हो? शिक्षित, विद्वान, मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक, मांत्रिक, तान्त्रिक, राजा, मन्त्री, अधिकारी, कर्मचारी तथा समस्त गृहस्थ वर्ग इसी में आते हैं। ये लोग सुख को ही आनन्द मान बैठते हैं। शरीर तथा शरीर से सम्बंधित ।

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