शरीर-तन्त्र एक अति जटिल रचना है। इस साढ़े तीन हाथ के शरीर के अन्तर्गत ही अनन्त सृष्टि या ब्रह्माण्ड की समस्त वस्तुएं, यन्त्र आदि, जो कुछ भी है, प्रतीकात्मक रूप में नियत किए गए हैं। तारे, सूर्य, चन्द्रमा, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, गृह, देवता आदि जितनी भी वस्तुएं हैं, सब के सब ही प्रतीकात्मक रूप में प्रत्येक शरीर के अन्तर्गत ही नियत हुए हैं।
शरीर-तन्त्र और सृष्टि-तन्त्र दोनों की उत्पत्ति या रचना एक समान वस्तुओं और पद्धतियों से ही होती है। वह वस्तु या पदार्थ ‘जड़’ और ‘चेतन’ तथा वह पद्धति ‘गुण’ और ‘दोष’ है। इन्ही जड़ और चेतन रूपी दो वस्तुओं तथा गुण और दोष रूपी दो पद्धतियों से ही शरीर-तन्त्र तथा सृष्टि-तन्त्र की भी उत्पत्ति या रचना होती है। यही कारण है कि योगी-जन भ्रमवश स्वराट शरीर को ही विराट शरीर मान व घोषित करते हुये कायम कर देते हैं।
ज्ञानेन्द्रियों का कार्य, सृष्टि के अन्तर्गत निहित पाँच पदार्थ-तत्त्वों तथा उनसे निर्मित वस्तुओं कि यथार्थ जानकारी और पहचान कर उसका प्रतिवेदन (Report) जीवात्मा को सुपुर्द करते रहना है। जिसके आधार पर जीवात्मा मन अथवा बुद्धि को, जिसके क्षेत्र से सम्बंधित प्रतिवेदन (रिपोर्ट) होता है, उसको क्रियान्वयन हेतु सुपुर्द करती है, उसके बाद जिसको सुपुर्द होता है वह मन या बुद्धि कर्मेन्द्रियों के माध्यम से प्रतिवेदन (रिपोर्ट) तथा जीवात्मा के निर्देशन अनुसार कार्य करवाता है। इस प्रकार कार्यों के क्रियान्वयन हेतु मन और बुद्धि के साधन रूप में जिन अंगों की रचना हुई, उन्हे ही कर्मेन्द्रियाँ कहा जाता है। ये कर्मेन्द्रियाँ भी पाँच ही होती हैं। इस प्रकार ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की संयुक्त रूप में बनी आकृति ही शरीर है। अब देखते हैं कि गर्भ स्थित ‘हिरण्य’ में ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति हो जाने के बाद वह हिरण्य ही मानव शरीर के रूप में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार हिरण्य से शरीर रूप में परिवर्तित होने में कुल तीन माह के करीब समय लगता है। अब देखना यह है कि गर्भ स्थित शरीर शेष छः महीने बिना अन्न व जल के किस प्रकार कायम रहता है ? कौन उसकी रक्षा करता है ?
गर्भ स्थित ‘शरीर’ की व्यवस्था – गर्भ-स्थित शरीर-रचना जब पूरी हो जाती है, तब आश्चर्यमय बात तो यह है कि उस शरीर को हवा, पानी, अन्न आदि कौन देता है ? कैसे देता है ? शेष छः महीनों को शरीर किस प्रकार व्यतीत करता है ? आदि –
चूँकि जीव, जीवात्मा तथा आत्मा और परमात्मा सम्बन्धी गुहय, अतिगुहय तथा परमगुहय विषयों सम्बन्धी यथार्थ जानकारी, शोध प्रबन्ध आदि जितनी यथार्थता और स्पष्टता के साथ भारतीय ऋषि-महर्षि और सन्त-महात्माओं आदि ने समाज को दिया है जिसे परमात्मा वाले अवतारियों ने पुष्टि भी की और हमेशा-हमेशा परमेश्वर की यथार्थ जानकारी सम्बन्धी ‘तत्त्वज्ञान-पद्धति’ जो समाज में सैद्धांतिक, प्रायोगिक और व्यावहारिक रूप में समाज के बीच दिया, वह संसार के अन्तर्गत अन्य किसी भी देश में अब तक उपलब्ध नहीं हो पाई। यही कारण है कि संस्कृति भारत की और सभ्यता पाश्चात्य देखों की मानी गयी। नीति भारत की और नियम पाश्चात्य देशों के प्रभावी रहे, शान्ति और आनन्द भारत के और सुख-साधन पाश्चात्य देशों के प्रभावी रहे। शान्ति और आनन्द की उपलब्धि विश्व को भारत से ही हुई है और भविष्य में भी होगी क्योंकि परमेश्वर का पूर्णावतार हमेशा भारत भूमि में ही हुआ है तथा वर्तमान में भी भारत में ही हुआ है। इसका एकमात्र कारण यह है कि परमेश्वर ‘संस्कृति-प्रधान’ होता है, सभ्यता-प्रधान नहीं। प्रस्तुत उपर्युक्त प्रकरण यहाँ इसलिए आ गया कि किसी भी प्रकार का गुहय, अतिगुहय तथा परमगुहय शोध-प्रबन्ध संसार के बीच फैला है, तो वह भारत से ही फैला है और पुनः भारत से ही फैलेगा। इसीलिए गर्भ स्थित सन्तान (शरीर) के विषय में हम जो कुछ भी बताने जा रहे हैं, यह संस्कृति-प्रधान रहते हुये अकाट्य वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित है। फिर भी संस्कृति-प्रधान कुछ ऐसे शब्द भी प्रयुक्त हो सकते हैं, जो सर्वविदित न हों परन्तु यथार्थतः भाव-प्रधान होने के नाते हम यहाँ पर प्रयुक्त कर रहे हैं। हालाँकि इन शब्दों को मात्र भाव-प्रधान ही नहीं अपितु यथार्थतः वैज्ञानिक तथ्य से युक्त ही कहा जाएगा क्योंकि इसके अन्तर्गत परम सत्यता का भाव छिपा है।
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