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Wednesday, January 14, 2015

रूद्रयामल भाग (6)


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उदाहरणस्वरुप कई साधकों के नाम नीचे दिये जा रहे हैं ---
( १ ) सरस्वती तीर्थ --- ये परमहंस परिव्राजकाचार्य थे और दक्षिण से आये हुए प्रकाण्ड विद्वान् ‌ थे । ये वेदान्त , मीमांसा , सांख्य , साहित्य तथा व्याकरण के छात्रों को पढाया करते थे । इनका मुख्य ग्रन्थ शङ्कराचार्य कृत प्रपञ्चसारतन्त्र की टीका थी ।
( २ ) राघवभट्ट --- इनके पिता नासिक से काशी आकर बस गये । राघवभट्ट जन्म से ही काशी में थे । इन्होंने शारदातिलक की टीका पदार्थादर्श लिखी थी जो सर्वत्र प्रसिद्ध है । इस टीका की रचना काशी में हुई थी । रचनाकाल १४९४ ई० है ।
( ३ ) सर्वानन्द परमहंस --- पूर्वबङके बहुत उच्चकोटि के सिद्ध पुरुष थे । इन्होंने दसों महाविद्याओं का एक साथ साक्षात्कार किया था । यह भी प्रायः चार सौ वर्ष पहले की बात है । इनका अन्तिम समय काशी में ही बीता । किसी - किसी के मत से ये राजगुरु मठ में रहते थे । इनकी अलौकिक शक्तियाँ बहुत थीं । सर्वोल्लासतन्त्र इनका संकलित तन्त्रग्रन्थ है ।
( ४ ) विद्यानन्दनाथ --- ये दक्षिण भारत के निवासी थे । काञ्ची से भी दक्षिण में इनका घर था । ये सर्वशास्त्र के पण्डित थे , किन्तु तन्त्रशास्त्र में विशेष अनुराग था । ये तीर्थयात्रा के प्रसंग से जलन्धर नामक सिद्धपीठ में गये थे । वहाँ सुन्दराचार्य या सच्चिदानन्दनाथ नामक एक सिद्ध पुरुष से मिले थे , उनसे दीक्षा लेकर स्वयं ‘ विद्यानन्दनाथ दीक्षित ’ यह नाम धारण किया और गुरु के आदेश से काशी में आकर रहने लगे । काशी रहते हुए इन्होंने तन्त्रशास्त्र के अनेक विशिष्ट ग्रन्थो का प्रणयन किया । ये भी प्रायः चार सौ वर्ष पहले के आचार्य होंगे ।
( ५ ) महीधर --- ये अहिच्छत्र उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद मण्डल के रामनगर से आये थे और काशी में आन्तिम समय तक रहे । इनका प्रसिद्ध ग्रन्थ नौका टीका सहित मन्त्रमहोदधि है । रचनाकाल १६४५ वि ) सं० ( १५८८ ईशवीय ) है ।
( ६ ) नीलकण्ठ चतुर्द्धर --- ये प्रतिष्ठान ( पैठान ) के थे , किन्तु आजीवन काशी में रहे । महाभारत के टीकाकार रुप से इनकी विशेष प्रसिद्धि है । इन्होंने तन्त्रशास्त्र में शिवताण्डव की टीका लिखी जिस टीका का नाम ‘ अनूपाराम ’ है । रचनाकाल १६८० ईशवीय माना जाता है ।
( ७ ) प्रेमनिधि पन्त --- ये कूर्माचल से काशी आये हुए थे । ये जीवनान्त तक काशी में ही रहे । इन्होंने बहुत से तान्त्रिक ग्रन्थों का निर्माण किया जिनमें शिवताण्डव की टीका मल्लादर्श का नाम लिया जा सकता है । शारदातिलक तथा तन्त्रराज पर भी इन्होंने टीका लिखी थी । ये करीब २५० वर्ष पहले रहा करते थे ।
( ८ ) भास्कर राय --- ये दक्षिण देश के निवासी थे , किन्तु दीर्घकाल तक काशी में ही रहे । सिद्धपुरुष के रुप में इनकी ख्याति थी । इन्होंने ललितासहस्त्रनाम की टीका , योगिनीह्रदय पर सेतुबन्ध टीका , वरिवस्यारहस्य आदि अनेक ग्रन्थ लिखे थे । १९२९ ईशवीय के आसपास इनका जानना चाहिए ।
( ९ ) शंकरानन्दनाथ --- इनका पूर्व नाम प० शंभु भट्ट था । ये अद्वितीय मीमांसक प० खण्डदेव के शिष्य थे और मीमांसा में ग्रन्थ लिखे । ये श्री विद्या के अनन्य उपासक थे । इनका सुन्दरीमहोदय नामक ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । १७०७ ई० इनका समय माना जाता है ।
( १० ) माधवानन्दनाथ --- ये सौभाग्यकल्पद्रुम के रचियता हैं । यह ग्रन्थ परमानन्द - तन्त्र के आधार पर लिखा गया है । ये भी काशी में ही रहे । इनका समय आज से १५० वर्ष पूर्व माना जाता हैं ।
( ११ ) क्षेमानन्द --- माधवानन्द के शिष्य क्षेमानन्द प्रसिद्ध तान्त्रिक विद्वान् ‍ थे । इन्होंने सौभाग्यकल्पलतिका का निर्माण किया था ।
( १२ ) सुभगानन्दनाथ --- एक प्रसिद्ध तान्त्रिक आचार्य काशी में रहते थे । ये केरल देश के थे , इनका पूर्वनाम श्रीकण्ठ था । ये काशी में तन्त्र तथा वेद दोनों के अध्यापक थे । ये माधवानन्दजी के ही समसामायिक माने जाते हैं ।
( १३ ) काशीनाथ भट्ट --- इनका भी नाम उल्लेख योग्य है । इन्होंने छोटे - छोटे अनेक तान्त्रिक ग्रन्थ लिखे थी । ये अधिक प्राचीन नहीं , अपितु १०० वर्ष पहले के हैं ।
वैदिक एवं तान्त्रिक साधना
इस विशाल भारतीय संस्कृति का विश्लेषण करने पर प्रतीत होगा कि इसके विभिन्न अंश हैं , और अङ -प्रत्यङु रुप में इसके विभिन्न विभाग हैं । इसमें सन्देह नहीं कि इसमें ‘वैदिक -साधना ’ ही प्रधान है , किन्तु इसका भी ध्यान रखना चाहिए कि भिन्न -भिन्न समयों में इस धारा में नये -नये ववर्यन हो चुके हैं । धर्मशास्त्र , नीतिशास्त्र , इतिहास -पुराणादि के आलोचन से तथा भारतीय समाज के आन्तरिक जीवन का परिचय मिलने से उपर्युक्त तथ्य का स्पष्टतया ज्ञान होगा । वैदिकधारा का प्राधान्य होने पर भी , इसमें सन्देह नहीं है कि इसमें विभिन्न धाराओं का संमिश्रण है । इन सब धाराओं के भीतर यदि व्यापक दृष्टि से देखा जाय तो ज्ञात होगा कि ‘तन्त्र की धारा ’ ही प्रथम एवं प्रधान है । इस धारा की भी बहुत से दिशाएँ हैं , जिनमे एक वैदिकधारा के अनुकूल थी । अगली पीढियों के गवेषण -गण इस तथ्य का निरुपण करेंगे कि वैदिकधारा की जो उपासना की दिशा है , वह अविभाज्य रुप से बहुत अंशों में तान्त्रिकधारा से मिलि हुई है , और बहुत से तान्त्रिक विषय अति प्राचीन समय से परम्पराक्रम से चले आ रहे थे। उपनिषद् ‌ आदि में जिन विद्याओं का परिचय मिलता है , यथा संवर्ग , उद्‌गीथ , उपकोशल , भूमा , दहर , पर्यङ्क आदि , ये सभी विद्याएँ इसी के अन्तर्गत हैं । वेद के रहस्य अंश में भी इन सब रहस्य विद्याओं के परिज्ञान का आभास मिलता है । यहाँ तक कहा जा सकता है कि वैदिक क्रिया -काण्ड भी अध्यात्म -विद्या का ही बाह्य रुप है , जो निम्न अधिकारियों के लिए उपयोगी माना जाता था । यदि इन सब अध्यात्म -विद्याओं का रहस्य -ज्ञान कभी हो जाय , तो पता चलेगा कि मूलभूत वैदिक तथा तान्त्रिक या आगामिक ज्ञानों में विशेष भेद नहीं रहा ।
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