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(1) साधक योगी वह है जो पिण्ड के अन्दर ही जीव का आत्मा से मिलन (हंसो) साधना के माध्यम (स्वांस-प्रस्वांस) से करते हैं। परन्तु ज्ञानी या तत्वज्ञानी वह है जो ब्रह्माण्ड के अन्दर मानव का अवतार से मिलनतत्त्वज्ञान के माध्यम से (शरणागत भाव) से करते हैं।
(2) योगी अपने लक्ष्य रूप आत्मा की प्राप्ति हेतु अपने मन को इन्द्रिय रूपी गोलकों से बहिर्मुखी से हटाकर (खींचकर) अंतर्मुखी बनाते हुये स्वास-प्रस्वास में लगाकर जीव को समाधि अवस्था में आत्मा से मिलन करता है। इसकी ये समस्त क्रियाएँ पिण्ड के अन्तर्गत ही होती हैं। पिण्ड से बाहर योगी की कोई क्रिया-प्रक्रिया नहीं होती है। परन्तु ज्ञानी या तत्त्वज्ञानी अपने लक्ष्य रूप परमात्मा की प्राप्ति हेतु अपने जीवात्मा से युक्त शरीर (पिण्ड) को सम्बन्ध (ममता-आसक्ति) रूपी सम्बन्धियों से मोह आदि विषयों से हटाकर (खींचकर) पूर्णतः समर्पण (शरणागत) होते हुये सत्संग एवं धर्म संस्थापनार्थ अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति को लगाते हुये जीवात्मा से युक्त पिण्ड के अवतारी के अनुगामी के रूप में रहता है।
(3) योगी का कार्यक्षेत्र मात्र एक पिण्ड के अन्तर्गत ही रहता है परन्तु ज्ञानी का कार्यक्षेत्र सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड होता है।
(4) योगी ‘अहम्’ रूप जीव को ‘सः’ रूप आत्मा से मिलाकर जीवात्मा (हंसो) भाव से मात्र समाधि अवस्था तक ही रहता है परन्तु ज्ञानी ‘अहम्’ रूप जीव को ‘सः’ रूप आत्मा से मिलाते हुये परमात्मा से मिलाकर शरणागत भाव से शाश्वत् अद्वैत्तत्त्वबोध रूप में हो जाता है।
(5) योगी-मात्र समाधि में ही आत्मामय (हंसो) रूप में रहता है, जैसे ही समाधि टूटती है, वह पुनः सोsहं रूप होते हुये अहंकारी रूप ‘अहम्’ तत्पश्चात् शरीर (पिण्ड) में फँस जाता है, ठीक इसी प्रकार ज्ञानी अनुगामी (शरणागत) रूप में ही ‘मुक्त’ अमरता, परमपद, परमतत्त्वमय, पापमुक्त, बन्धन मुक्त, सच्चिदानन्दमय (आत्मतत्त्वम्) रूप में रहता है परन्तु जैसे अनुगामी (शरणागत) भाव के टूटते ही वह पुनः मिथ्याज्ञानभिमानी रूप होते हुये शैतानियत अहंकारी रूप में ‘अहम्’ होते हुये शरीर में फँसते हुये ममता और आसक्ति के कारण विनाश को प्राप्त होता है।
(6) योगी की स्थिति ठीक गूलर के कीड़े के समान होती है, जैसे गूलर का कीड़ा गूलर के फल के अन्दर रहते हुये उसी को सम्पूर्ण संसार भ्रमवश समझने और कहने भी लगता है और कहते-कहते यहाँ तक भी कहना आरम्भ कर देता है कि गूलर के एक फल के अन्तर्गत ही गूलर का वृक्ष रूप उसका संसार तथा गूलर के वृक्ष को लगाने और उसके(गूलर के) फल को खाने वाला किसान भी उसी फल में ही रहता है तत्पश्चात् स्वयं को ही गूलर लगाने और खाने वाला किसान भी घोषित करने लगता है, परन्तु ज्ञानी की स्थिति ऐसी नहीं होती है। ज्ञानी की स्थिति तो इस प्रकार होती है कि गूलर के फल सहित ज्ञानदाता रूप अवतारी के परमतत्व रूप विराट विराट रूप महाकारण शरीर के पेट में बैठ (प्रवेश) कर उसमें बैठकर यथार्थतः देखने लगता है कि एक फलमात्र ही उसका वृक्ष रूप संसार नहीं है और न तो गूलर वृक्ष लगाने तथा उसके फल को खाने वाला किसान रूप भगवान ही उसमें रहते हैं। यथार्थतः स्थिति यह है कि किसान रूप भगवान न तो गूलर का वृक्ष हैं और न ही उसका फल, वह तो गूलर के फल रूप बीज अपने ब्रह्माण्ड रूपी खेत में लगाता और उसके फलों को खाता रहता है अर्थात् बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज लगाते और खाते हुये दोनों (बीज रूप गूलर का फल तथा गूलर का वृक्ष) से अलग एक किसान के रूप में कायम रहता है और ज्ञानी उस किसान रूप भगवान् के साथ उसके अपने परिवार के रूप में अनुगामी भाव से कायम रहता है।
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