तेज-पुंज से पिण्ड रूप पृथ्वी
आदि में, परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप में स्थित शब्द-ब्रह्म या वचन या परमेश्वर के संकल्प से ‘आत्म’ शब्द छिटका जो ज्योति के साथ था, जो आत्म-ज्योति कहलाया। चूँकि आदि के पूर्व में जब मात्र परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप शब्द-ब्रह्म ही था, जो अपने आपको अज्ञानान्धकार रूप पर्दा डालकर सदा अपने को छिपाए रखता है, जिसका परिणाम यह होता है कि कोई भी वहाँ बिना उसके ले जाने के, नहीं जा सकता है परन्तु उससे उत्पन्न आत्म-ज्योति में से पुत्र रूप ‘आत्म’ शब्द अपने पैतृक मात्र ‘शब्द’ रूप में रह गया और पुत्री रूप ज्योति पृथक हो गयी। चूँकि पैतृक पर रहने वाला ‘आत्म’ शब्द अपने पिता परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) रूप ‘वचन’ के रूप में ‘शब्द’ रूप में ही रह गया। इसीलिए पिता का सत्ता-सामर्थ्य रूप चेतनता अंशवत् पुत्र में ही रह गयी, जिसका परिणाम यह हुआ कि पिता रूप शब्द-ब्रह्म के रूप ‘शब्द’ रूप में रह जाने के कारण पिता के गुण-स्वभाव पुत्र में भी आए। पिता अमर है, तो पुत्र अविनाशी, पिता रूप ‘शब्द-ब्रह्म’ ‘एक’ है तो पुत्रगण एक रूप। पिता ‘वचन’ शाश्वत् है, तो पुत्रगण स्थिर, पिता ‘शब्द-ब्रह्म’ सदा-सर्वदा कायम है, तो पुत्र भी शब्द (आत्म) नाम ‘नाम’ भी जब तक पिता के नाम-रूप-गुण में रहता है, तो पिता शब्द-ब्रह्म के साथ ही पुत्रवत् ‘आत्म’ शब्द भी कायम रहता है परन्तु वह पुत्र ‘आत्म’ शब्द माता ‘रूप’ के साथ यदि जुट गया तो अगले पुत्र (उसका पुत्र का पुत्र, पुत्र का पुत्र आदि इसी क्रम से आज तक) के आने तक तो ‘आत्म’ शब्द रहेगा, पुनः पुत्र का ‘आत्म’ शब्द (पुत्र का नाम) दर्ज हो जाएगा। यही क्रम चलता हुआ आज तक पहुँच गया है अर्थात् ‘आत्म’ शब्द जैसे ही अपना मूलतः ‘आत्म’ शब्द बदलकर रूपमय शब्द (शारीरिक नाम) में हो जाता है, वैसे ही अपने विनाशकारी स्थान को प्राप्त हो जाता है।
आत्म-ज्योति से ‘आत्म-शब्द’ को छोड़कर ज्योति जैसे ही अलग हुई, सर्वप्रथम स्थान छोड़ते ही ‘शब्द-ब्रह्म’ (आत्मतत्त्वम्) तथा ‘आत्म’ से अपने को ‘प्रचण्ड प्रवाह युक्त अक्षय तेज-पुंज’ (Supper Fluid) रूप में बदल लिया और शब्द प्रधान न रहकर ‘रूप’ प्रधान होकर ‘शब्द-ब्रह्म’ रूप पिता तथा ‘आत्म’ शब्द रूप भ्राता से भी अलग हो गयी। जिसका परिणाम यह हुआ कि ‘शब्द’ के समस्त गुणों के प्रतिकूल ‘रूप’ विनाशशील। ‘आत्म’ शब्द अविनाशी है तो ‘रूप’ विनाशशील। ‘आत्म’ अपरिवर्तनशील है तो ‘रूप’ परिवर्तनशील है। ‘आत्म’ शब्द स्थिर है, तो ज्योति-रूप भिन्न-भिन्न। ‘आत्म’ शब्द अखंडित है तो रूप विखंडित।
आत्म-ज्योति से ज्योति पृथक होते ही एक दूसरे ‘प्रचण्ड प्रवाहयुक्त अक्षय तेज पुंज’ रूप में परिवर्तित हो गयी। जिसका परिणाम यह हुआ कि पृथकता और परिवर्तनशीलता इसका स्वाभाविक गुण हो गया। अपने स्वाभाविक गुण रूप पृथकता के कारण ‘प्रचण्ड प्रवाह युक्त अक्षय तेज पुंज’, ‘आत्म’ शब्द से टकराकर विखण्डित हो गयी, जिसके कारण अनेक ‘प्रवाह युक्त तेज-पुंजों’ में परिवर्तित हो गयी। चूँकि विखण्डित समस्त पृथक हुए ‘प्रवाह युक्त तेज पुंज’ ‘प्रचण्ड प्रवाह युक्त अक्षय तेज पुंज’ के अंश मात्र थे। इसलिए ‘तेज शक्ति क्षमता’ भी अंशवत् ही होती गयी। पुनः ‘प्रवाहयुक्त तेज पुंज’ भी अपने स्वाभाविक गुण रूप पृथकता के कारण विखण्डित हो गयी, जिसकी ‘तेज शक्ति क्षमता’ इसकी अंशवत् होने लगी और ऐसे ही होते-होते ‘तेज-पुंज’ ‘तेज क्षमता की कमी से द्रवीभूत होकर पेट्रोल, स्पिरिट, मिट्टी का तेल, डीजल, मोबिल आदि पदार्थों में परिवर्तित होता गया। पुनः समय क्रम से क्षमता क्रम की कमी होती गयी और वस्तुएं द्रव से भी घनीभूत रूप ठोस कोयला आदि में परिवर्तित हो गईं।
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