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‘हम’ किसके हैं ? माता-पिता या आत्मा-परमात्मा के : यथार्थतः सत्य कौन ?
भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए ही सबसे महत्व का विषय है कि ‘हम’ किसके हैं ? वास्तव में ‘हम’ माता-पिता आदि शारीरिक सम्बन्धियों के हैं या आत्मा और परमात्मा के ? यह एक जबर्दस्त एवं जटिल समस्या है। जब तक इसका समाधान नहीं होगा, तब तक ‘हम’ शान्ति और आनन्द, चिदानन्द और कल्याण तथा सच्चिदानन्द या मुक्ति तो कदापि हासिल नहीं कर सकते। हम सभी बन्धुओं को सर्वप्रथम इसी जटिल समस्या का समाधान ढूँढना चाहिए कि वास्तव में ‘हम’ किसके हैं और हमें संसार में हमें क्या करना चाहिए और किस प्रकार रहना चाहिए।
उपर्युक्त जटिल समस्या के समाधान में सर्वप्रथम तो हमें यह देखना पड़ेगा कि ‘हम’ शरीर हैं या जीव; ‘हम’ आत्मा हैं या परमात्मा। ये सारी बाते पिछले प्रश्नों में हल हो चुकी हैं। समाधान हेतु हमें तो यह दिखाई दे रहा है कि बारी-बारी शरीर, जीव, आत्मा तथा परमात्मा चारों को ही हमें देखना पड़ेगा कि क्रमशः ये चारों ही किसके हैं ?
यह शरीर किसका है ?- किसी भी बात की यथार्थतः जानकारी हेतु यह अति आवश्यक है कि उस वस्तु, व्यक्ति एवं बात की उत्पत्ति या रचना, उसकी रक्षा-व्यवस्था एवं विकास तथा उत्थान-पतन के आधार पर ही सही सही निर्धारण हो सकता है। शरीर न तो किसी की माता ही हो सकता है और न किसी का पिता हो सकता है, न किसी का पुत्र हो सकता है और न किसी कि पुत्री हो सकता है। इतना ही नहीं यथार्थतः बात तो यह है कि शरीर से शरीर मात्र को ही मात्र शारीरिक सम्बन्ध एक जड़ता मूलक सम्बन्ध होता है। कोई माता-पिता किसी भी शरीर की उत्पत्ति या रचना नहीं कर सकते। शरीर रचना तो दूर रही शरीर के किसी अंग या एक बाल या नाखून की रचना भी नहीं कर सकते। कोई माता-पिता जान बूझकर किसी भी पुत्र या पुत्री की रचना नहीं करता। माता-पिता के प्रेमपूर्ण हास-विलास और भोग विलास में इन दोनों की अज्ञानता में ही विधि के विधान के अनुसार गर्भ रह जाता है और शरीर की रचना हो जाती है। इसमें माता-पिता की कोई रचना या वृत्ति नहीं होती है। यदि यह कहा जाय कि माता-पिता आपस में भोग-विलास नहीं करते तो संतानों की उत्पत्ति कैसे होती ? तो यह स्पष्ट बात है कि शत प्रतिशत ही माता-पिता अपने भोगानन्द या वासना तृप्ति हेतु ही भोग-विलास करते हैं सन्तान के लिए नहीं। यदि हजार-लाख के अन्दर एक-दो व्यक्ति ऐसे भी हों कि सन्तान सोच-विचार कर ही मैथुनी सम्बन्ध स्थापित करते हों तो इससे विधान नहीं बनेगा और पूर्व का विधान नहीं बदलेगा, बल्कि यह अपवाद स्वरूप होगा। हालाँकि ये लोग भी केवल सोच विचार ही कर सकते हैं, रचना या उत्पत्ति नहीं। अतः संसार का कोई माता-पिता किसी भी शरीर की न तो रचना किए हैं और न कर सकते हैं। माता-पिता तो एक निमित्त मात्र ही होते हैं, कर्ता-भर्ता नहीं। (आदि पुरुष एवं आदि-शक्ति(स्त्री) की उत्पत्ति किसी माता-पिता से नहीं हुई थी। इस प्रकार परमप्रभु जैसा चाहे कर सकता है। ) शरीर के विकास में भी माता-पिता की प्रथम भूमिका नहीं होती, बल्कि प्रथम भूमिका जीव की होती है। कोई माता-पिता यह नहीं कह सकता या दावा नहीं कर सकता कि लड़के को दूध हमने पिलाया है, लड़के के खान-पान की व्यवस्था हमने की है क्योंकि पहली बात यह है कि शरीरों के जीवों की ब्रह्म से जुड़ी रहने वाली नार-पुरइन या ब्रह्म-नाल अमृत-पान से बिछुड़ गयी, तो क्या वे इतने से भी गए कि दूध न पिलाएँ और खान-पान की व्यवस्था न करें ? और दूसरी बात यह है कि उत्पन्न शरीर में जीव नहीं रहता तो उस शरीर को कोई माता न दूध पिलाती है और न पिता खान-पान की व्यवस्था करता है, बल्कि दोनों ही मिलकर उस जीव रहित शरीर को ले जाकर मिट्टी दे देते हैं।
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