अज्ञानी सांसारिक व्यक्ति में ‘हम’
अज्ञानी सांसारिक व्यक्ति में ‘हम’ जीव मूलाधार-चक्र स्थित शिवलिंग में लिपटी हुई सोइ हुई सर्पिणी रूप कुण्डलिनी-शक्ति में रहता है। कुण्डलिनी-शक्ति जब ऊर्ध्वमुखी रहती है तो आत्म-कल्याण का बार-बार विचार बनता रहता है, जिससे वह व्यक्ति उत्प्रेरित हो-हो कर पूजा-पाठ, तीर्थ-स्नान, होम-जाप आदि करने लगता है, उससे भी सन्तोष नहीं हो पाता है अर्थात् संतुष्टि नहीं मिल पाती है, तब वह व्यक्ति सन्त-महात्मा आदि का पता खोज-खोज कर मिलता और शान्ति तथा आनन्द को प्राप्त करता रहता है। परन्तु जिसकी कुण्डलिनी अधोमुखी होकर सोयी रहती है, वह व्यक्ति संसार में कर्म करता और उसके अनुसार भोग-भोगता रहता है। यह अधःपतन की स्थिति है क्योंकि कर्म करता हुआ व्यक्ति जड़ता में जकड़ता जाता है। अज्ञानी सांसारिक व्यक्ति के दृष्टिकोण में ‘हम’ शरीर हैं। घर या मकान हमारा वास स्थान है, शरीर हमारा रूप है।
विचारक में ‘हम’ – विचारक के दृष्टिकोण में ‘हम’ शरीर नहीं है बल्कि जीव है। ‘हम’ जीव ही आत्मा है और आत्मा ही परमात्मा है। इनके अनुसार ‘हम’ जीव ही सब कुछ है। ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ ‘हम ब्रह्म हैं’ या ‘मैं ही ब्रह्म हूँ’। इन विचारकों के दृष्टिकोण में ‘हम’ जीव हृदय-गुफा में रहता है और विचारों के दवारा ही ‘हम’ जीव को जाना जाता है। संसार में विचार से श्रेष्ठ कोई बात नहीं है आदि। ये उपरोक्त सब विचार विचारकों का है। असलियत तो यह है कि विचारक अति स्वार्थी एवं अहंकारी व्यक्ति होता है। इनकी समस्त जानकारियों का आधार कल्पना एवं विचार होता है। कल्पना या विचार के अलावा जानकारी का इनके पास कोई आधार तो होता नहीं। ये लोग परमात्मा को तो जानते ही नहीं, आत्मा को भी नहीं जानते हैं। विचारक ‘हम’ जीव को ही सब कुछ मानते हुए, कभी-कभी तो यह भी कहने लगते हैं कि ‘हम’ एक विचार है, ‘हम’ विचार में ही रहता है और विचार हृदय गुफा में रहता है।
अन्ततः यथार्थतः सत्य बात यह है कि ‘हम’ उच्चारण ‘अहम्’ शब्द-रूप जीव का है, जो शरीर में रहते हुए मन और बुद्धि को प्रतिनिधित्व देकर, उन्ही प्रतिनिधियों के माध्यम से इन्द्रियों से कार्य कराता रहता है। इस प्रकार ‘अहम्’ रूप जीव, ‘सः’ रूप आत्मा से बराबर ही शक्ति-तेज प्राप्त करता रहता है और उसे मन और बुद्धि के माध्यम से इन्द्रियों को सुपुर्द करता रहता है। इस प्रकार स्वांस-प्रस्वांस के माध्यम से आत्मा शरीर में प्रवेश करती रहती है और जीव रूप ‘अहम्’ बराबर ही आत्मा से मिलने हेतु शरीर से बाहर जाया करता है। यही क्रम बराबर होता रहता है। विचारक के दृष्टिकोण में ‘हम’ जीव है, शरीर इसका निवास स्थान है। विचार कार्य करने का माध्यम है, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार तथा सूक्ष्म रूप में इन्द्रियों से पुनः आकृति ही जीव का रूप है।
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