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एक प्रवाह युक्त अक्षय-बिन्दु
कुण्डलिनी-शक्ति (Serpent Fire) – मूलाधार स्थित ‘मूल’ जो शिव-लिंग कहलाता है, में साढ़े तीन फेरे में लिपटी हुई, सर्पिणी की आकृति की एक सूक्ष्म स्वतन्त्र नाड़ी होती है जिसमें आत्मा (सः) रूप शब्द-शक्ति अथवा चेतन-शक्ति पहुँचकर ‘अहम्’ रूप जीव में परिवर्तित हो जाती है। अब जब जीव उर्ध्व गति के माध्यम से पुनः शिव बनना चाहता है, तब तो कुण्डलिनी-शक्ति मूल से उठकर सुषुम्ना के सहारे नाना प्रकार की उर्ध्व गतियों को प्राप्त करती और छोड़ती हुई आत्मा (सः) रूप शब्द-शक्ति अथवा चेतन-शक्ति से मिलकर जीव रूप ‘अहम्’ हंसो रूप शिव-शक्ति हो जाती है।
पुनः जब जीव अधोगति रूप में सन्तानोत्पत्ति करना चाहता है, तब कुण्डलिनी जागती है। जब बार-बार स्त्री-पुरुषों द्वारा मैथुनी सम्बन्ध के समय सोयी हुई सर्पिणी रूप कुण्डलिनी-शक्ति जागती है और अधोगति वाली क्रिया-कलाप देखकर क्रोधित होकर फुफकार करती है जिससे अहम् रूप जीव एक तेज प्रवाह युक्त अक्षय-बिन्दु (Fluid Existing drop of self that moves rapidly) रूप में परिवर्तित होकर तुरन्त शुक्र (Semen) रूप में पुनः विकार क्रम से कोष (Cell) रूप में परिवर्तित हो जाता है पुनः सुरक्षा हेतु बीज (Sperm) में प्रवेश कर जाता है और बीज के सहारे गर्भाशय में प्रवेश कर पुनः विकास क्रम से स्वर्णिम-अण्डाकार (हिरण्य गर्भ) रूप में परिवर्तित हो जाता है। चूंकि यहाँ पर कुण्डलिनी-शक्ति की गति दो तरफ में बंटी हुई है –
(1) उर्ध्वगति
(2) अधोगति
(1) कुण्डलिनी की उर्ध्वगति – जब कोई व्यक्ति किसी गुरु से योग-साधना सीखता और करता है, तब साधना में बार-बार स्वास-प्रस्वास की क्रिया करने से इंगला नाड़ी और पिंगला नाड़ी सम हो जाती है, तत्पश्चात् सुषुम्न्ना नाड़ी में प्राण-वायु (स्वांस) के साथ आत्मा (सः) रूप चेतन-शक्ति प्रविष्ट होकर आगे बढ़ते हुये मूलाधार-चक्र में स्थित मूल रूप शिव-लिंग में साढ़े तीन वलय (फेरे) में लिपटी हुई कुण्डलिनी नाम की एक सूक्ष्म-स्वतन्त्र नाड़ी जो सर्पिणी-शक्ति (Serpent Fire) भी कहलाती है, के सिर पर ठोकर मारती है जिसके कारण सोयी हुई कुण्डलिनी-शक्ति जग जाती है, खुले मुख वाली सुषुम्ना-नाड़ी में स्वांस-प्रस्वांस रूपी डोरी (रस्सी) के सहारे ‘अहम्’ रूप जीव के साथ ऊपर उठने अथवा चलने लगती है जो क्रमशः मूलाधार से चलकर स्वाधिष्ठान-चक्र में पहुँचकर विश्राम लेती है। पुनः यदि साधना जारी रही तो कुण्डलिनी-शक्ति स्वाधिष्ठान-चक्र से ऊपर उठकर अथवा चलकर मणिपूरक-चक्र में प्रवेश करेगी। पुनः वहाँ विश्राम करेगी। इसी प्रकार यदि साधना जारी रही तो क्रमशः पहुँचते और विश्राम करते हुये यह मणिपूरक से अनाहत्-चक्र, अनाहत् से विशुद्ध-चक्र और विशुद्ध से आज्ञा-चक्र तक पहुँचकर ‘अहम्’ रूप जीव को ‘सः’ रूप चेतन-आत्मा से मुलाक़ात करा देती है जिसके परिणामस्वरूप ‘अहम्’ रूप जीव ‘सः’ रूप आत्मा अथवा चेतन-शक्ति से मिलकर शिव हो जाता है तत्पश्चात् शिव और शक्ति दोनों ‘हंसो’ रूप में संयुक्त रूप में एक साथ ही रहने लगते हैं। यही कुण्डलिनी-शक्ति की उर्ध्वगति है।
कुण्डलिनी-शक्ति जिस चक्र में पहुँचकर विश्राम करती है उस समय उस व्यक्ति के पास उस चक्र के अभीष्ट देवता की शक्ति हो जाती है। जिन-जिन चक्रों में विश्राम करती हुई ऊपर को जाती है उन-उन चक्रों को गुण-कर्म एवं अवस्था के अनुसार देखें, वे अग्रलिखित हैं –
(1) मूलाधार-चक्र (2) स्वाधिष्ठान-चक्र (3) मणिपूरक-चक्र (4) अनाहत्-चक्र (5) विशुद्ध-चक्र (6) आज्ञा-चक्र (7) सहस्रार
(1) उर्ध्वगति
(2) अधोगति
(1) कुण्डलिनी की उर्ध्वगति – जब कोई व्यक्ति किसी गुरु से योग-साधना सीखता और करता है, तब साधना में बार-बार स्वास-प्रस्वास की क्रिया करने से इंगला नाड़ी और पिंगला नाड़ी सम हो जाती है, तत्पश्चात् सुषुम्न्ना नाड़ी में प्राण-वायु (स्वांस) के साथ आत्मा (सः) रूप चेतन-शक्ति प्रविष्ट होकर आगे बढ़ते हुये मूलाधार-चक्र में स्थित मूल रूप शिव-लिंग में साढ़े तीन वलय (फेरे) में लिपटी हुई कुण्डलिनी नाम की एक सूक्ष्म-स्वतन्त्र नाड़ी जो सर्पिणी-शक्ति (Serpent Fire) भी कहलाती है, के सिर पर ठोकर मारती है जिसके कारण सोयी हुई कुण्डलिनी-शक्ति जग जाती है, खुले मुख वाली सुषुम्ना-नाड़ी में स्वांस-प्रस्वांस रूपी डोरी (रस्सी) के सहारे ‘अहम्’ रूप जीव के साथ ऊपर उठने अथवा चलने लगती है जो क्रमशः मूलाधार से चलकर स्वाधिष्ठान-चक्र में पहुँचकर विश्राम लेती है। पुनः यदि साधना जारी रही तो कुण्डलिनी-शक्ति स्वाधिष्ठान-चक्र से ऊपर उठकर अथवा चलकर मणिपूरक-चक्र में प्रवेश करेगी। पुनः वहाँ विश्राम करेगी। इसी प्रकार यदि साधना जारी रही तो क्रमशः पहुँचते और विश्राम करते हुये यह मणिपूरक से अनाहत्-चक्र, अनाहत् से विशुद्ध-चक्र और विशुद्ध से आज्ञा-चक्र तक पहुँचकर ‘अहम्’ रूप जीव को ‘सः’ रूप चेतन-आत्मा से मुलाक़ात करा देती है जिसके परिणामस्वरूप ‘अहम्’ रूप जीव ‘सः’ रूप आत्मा अथवा चेतन-शक्ति से मिलकर शिव हो जाता है तत्पश्चात् शिव और शक्ति दोनों ‘हंसो’ रूप में संयुक्त रूप में एक साथ ही रहने लगते हैं। यही कुण्डलिनी-शक्ति की उर्ध्वगति है।
कुण्डलिनी-शक्ति जिस चक्र में पहुँचकर विश्राम करती है उस समय उस व्यक्ति के पास उस चक्र के अभीष्ट देवता की शक्ति हो जाती है। जिन-जिन चक्रों में विश्राम करती हुई ऊपर को जाती है उन-उन चक्रों को गुण-कर्म एवं अवस्था के अनुसार देखें, वे अग्रलिखित हैं –
(1) मूलाधार-चक्र (2) स्वाधिष्ठान-चक्र (3) मणिपूरक-चक्र (4) अनाहत्-चक्र (5) विशुद्ध-चक्र (6) आज्ञा-चक्र (7) सहस्रार
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