सऊर गृह अथवा प्रसूति गृह
शिशु का जिस गृह में जन्म होता है, उस गृह को सऊर अथवा प्रसूति-गृह कहा जाता है। अब आइये हम लोग देखें भारतीय संस्कृति की पद्धति से सऊर अथवा प्रसूति गृह के अन्दर क्या-क्या होता है ? क्यो होता है ? प्रसव के पूर्व प्रसव पीड़ा से युक्त महिला को जब प्रसव हेतु किसी कोठरी (घर) में ले जाया जाता है, उस समय उस प्रसव-पीड़ा से युक्त महिला को प्रसव पीड़ा कम होने अथवा अन्य तौर-तरीके से सहयोग प्रदान करने हेतु कुछ (दो-चार) अनुभवी महिलाएँ जो घर या पास-पड़ोस की ही काफी नजदीक रहने वाली होती हैं, रहती हैं और तब तक रहती हैं, जब तक कि शिशु की पैदाइश होकर उसकी देख-रेख हेतु प्रसव-सेविका अथवा प्रसव का कार्य करने वाली ‘चमइन’ (हरिजन महिला) नहीं आ जाती। जैसे ही ‘चमइन’ प्रसूति-गृह में प्रवेश करती है, वैसे ही शिशु और उसकी माँ को छोड़कर शेष सभी महिलाएँ, भले ही उसी के घर की हों, फिर भी उस प्रसूति-गृह से बाहर आ जाती हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि ‘चमइन’ ही क्यों बुलाई जाती है ? और शेष सभी महिलाएँ उस कोठरी से बाहर क्यों हो जाती हैं ? यह प्रश्न अति महत्व का है परन्तु ध्यान दिया जाय तब समझ में आएगा।
‘चमइन’ ही प्रसव-सेविका क्यों होती है ?
ऐसा सुना व देखा भी जाता है कि गर्भस्थ शिशु जैसे ही गर्भ से बाहर आता है, वैसे ही ‘चमइन’ को बुलावा चला जाता है, क्योंकि ‘नार-पुरइन’ अथवा ‘ब्रह्म-नाल’ काटना होता है, जो ‘चमइन’ ही काटती है। अन्य महिलाएँ नहीं। ऐसा क्यों होता है ? इसका मूल कारण यह है कि ‘नार-पुरइन’ अथवा ब्रह्म-नाल वह नाड़ी है, जिसके माध्यम से जीव, ब्रह्म का साक्षात्कार करता हुआ ‘ब्रह्ममय’ होकर मस्त पड़ा रहता है जिसके कारण उसे दुनिया की कोई वस्तु नहीं चाहिए। दूसरे शब्दों में गर्भस्थ शिशु जब बाहर आता है, तब उसके नाभि-कमल में एक नार-पुरइन’ अथवा ब्रह्म-नाल होती है जिसकी यह विशेषता होती है कि जब तक वह नार-पुरइन शिशु के नाभि में कायम रहती है, तब तक शिशु के अन्तर्गत रहने वाला जीव उस नार-पुरइन के माध्यम से ब्रह्म का साक्षात्कार करता हुआ ब्रह्ममय होकर कायम रहता है। जब तक वह नार-पुरइन कटेगा नहीं, तब तक जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध हटेगा या छूटेगा नहीं और जब तक जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध छूटेगा नहीं तब तक माता-पिता, भाई-बहन आदि संसार से सम्बन्ध जुड़ेगा नहीं। अर्थात् संसार से सम्बन्ध जोड़ने हेतु जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध तोड़ना पड़ता है और ब्रह्म से सम्बन्ध जोड़ने हेतु संसार का सम्बन्ध छोड़ना पड़ता है। उदाहरण के लिए श्री शुकदेव जी और कबीर दास जी को देखें।
ऐसा सुना व देखा भी जाता है कि गर्भस्थ शिशु जैसे ही गर्भ से बाहर आता है, वैसे ही ‘चमइन’ को बुलावा चला जाता है, क्योंकि ‘नार-पुरइन’ अथवा ‘ब्रह्म-नाल’ काटना होता है, जो ‘चमइन’ ही काटती है। अन्य महिलाएँ नहीं। ऐसा क्यों होता है ? इसका मूल कारण यह है कि ‘नार-पुरइन’ अथवा ब्रह्म-नाल वह नाड़ी है, जिसके माध्यम से जीव, ब्रह्म का साक्षात्कार करता हुआ ‘ब्रह्ममय’ होकर मस्त पड़ा रहता है जिसके कारण उसे दुनिया की कोई वस्तु नहीं चाहिए। दूसरे शब्दों में गर्भस्थ शिशु जब बाहर आता है, तब उसके नाभि-कमल में एक नार-पुरइन’ अथवा ब्रह्म-नाल होती है जिसकी यह विशेषता होती है कि जब तक वह नार-पुरइन शिशु के नाभि में कायम रहती है, तब तक शिशु के अन्तर्गत रहने वाला जीव उस नार-पुरइन के माध्यम से ब्रह्म का साक्षात्कार करता हुआ ब्रह्ममय होकर कायम रहता है। जब तक वह नार-पुरइन कटेगा नहीं, तब तक जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध हटेगा या छूटेगा नहीं और जब तक जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध छूटेगा नहीं तब तक माता-पिता, भाई-बहन आदि संसार से सम्बन्ध जुड़ेगा नहीं। अर्थात् संसार से सम्बन्ध जोड़ने हेतु जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध तोड़ना पड़ता है और ब्रह्म से सम्बन्ध जोड़ने हेतु संसार का सम्बन्ध छोड़ना पड़ता है। उदाहरण के लिए श्री शुकदेव जी और कबीर दास जी को देखें।
‘नार-पुरइन’ काटना संसार का घोर घृणित कार्य –
‘नार-पुरइन’ जिसका एकमात्र कार्य जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध जोड़े रहना ही होता है, जिसके परिणाम स्वरूप जीव को बाहरी दुनिया की किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं पड़ती है। ब्रह्म साक्षात्कार और ब्रह्ममय होकर रहने में। अमृतपान करना और दिव्य-ध्वनि (अनहद्-नाद) श्रवण करना तथा ब्रह्म-ज्योति को देखते हुये मस्त पड़े रहना होता है। ऐसे दिव्यानन्द को प्राप्त कराने वाली नार-पुरइन को काटना, ऐसा निकृष्ट, पतित, अधम एवं घोर घृणित कर्म कोई और हो ही नहीं सकता है। यही कारण है कि निकृष्ट महिला ‘चमइन’ के अलावा और कोई महिला इतना बड़ा पतित और घोर घृणित कार्य कर ही नहीं सकती। इसीलिए इस घोर-घृणित कार्य हेतु चमइन ही बुलाई जाती थी और संस्कृति फरक समाज में बुलाई जाती है।
‘नार-पुरइन’ जिसका एकमात्र कार्य जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध जोड़े रहना ही होता है, जिसके परिणाम स्वरूप जीव को बाहरी दुनिया की किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं पड़ती है। ब्रह्म साक्षात्कार और ब्रह्ममय होकर रहने में। अमृतपान करना और दिव्य-ध्वनि (अनहद्-नाद) श्रवण करना तथा ब्रह्म-ज्योति को देखते हुये मस्त पड़े रहना होता है। ऐसे दिव्यानन्द को प्राप्त कराने वाली नार-पुरइन को काटना, ऐसा निकृष्ट, पतित, अधम एवं घोर घृणित कर्म कोई और हो ही नहीं सकता है। यही कारण है कि निकृष्ट महिला ‘चमइन’ के अलावा और कोई महिला इतना बड़ा पतित और घोर घृणित कार्य कर ही नहीं सकती। इसीलिए इस घोर-घृणित कार्य हेतु चमइन ही बुलाई जाती थी और संस्कृति फरक समाज में बुलाई जाती है।
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