===========================================
महाकाल की महाकाली सावित्री
जिस प्रकार दक्षिण मार्गी साधनाओं में गायत्री महाशक्ति को धारण करके पात्रता विकसित करने के लिए अधिक से अधिक पवित्र और मानसिक बनना पड़ता है । उसी प्रकार तांत्रिकों को क्रूर कर्म करने के लिए स्वयं भी क्रूर-अनाचारी बनना पडता है, ताकि उस प्रयोग को करते समय में आत्मग्लानि न उठे । आत्मा को दबाने, दबोचने और अपवित्रता, दुस्साहसिकता से भरे-पूरे की तंत्र साधना के प्रयोग पहले साधक को अपने ऊपर करने पड़ते हैं ।
हत्यारे अक्सर उस क्रूर कर्म को करने से पूर्व डटकर मद्यपान कर लेते हैं, ताकि उस कृत्य को करते हुए आत्मा में करुणा न उपजे और हाथ न रुकें । तांत्रिकी साधना अक्सर श्मशानों में होती है । मुर्दों की चिताओं पर भोजन पकाते-खाते हैं । कापालिक मनुष्य के कपालों में भोजन करते, पानी पीते और मुण्ड-मालाएँ गले में लटकाये रहते हैं । अघोरी मल-मूत्र तक खा जाते हैं, ताकि अनौचित्य के प्रति घृणा भाव समाप्त हो जाय ।
वाम मार्ग में साधक को पंच मकारों का अभ्यास करना पड़ता है- (१) मद्यं, (२) मासं च, (३) मीनं च, (४) मुद्रा (५)मैथुन एवं च । यह पाँचों मकार हेय कर्म हैं । शराब, गाँजा, भाँग आदि तीव्र नशों का सेवन । माँस भक्षण और इस प्रयोजन के लिए देवता के नाम पर पशु-पक्षियों का ही, मनुष्यों तक का वध करना । मछली, मेढ़क जैसे आसानी से मिल सकने वाले प्राणियों की आये दिन हत्या करना और उन्हें भूनते-तलते रहना ।
मुद्रा का एक अर्थ भयंकर आकृति बना कर त्रिशूल जैसे शस्त्र लेकर नग्न नृत्य करना भी और अनीति युक्त धन संग्रह करना भी, ताकि उसके सहारे व्यभिचार-बलात्कार आदि कुकृत्य किये जा सकें । बुद्धकाल में ऐसे वाममार्गी बनाचार शास्त्रों और में ऐसा उल्लेख और जो देवता ऐसे क्रूर कर्म में सहायता करते हैं, उन्हें मान्यता देने से इन्कार कर दिया ।
उस अनाचार को घटाने और मिटाने के लिए अहिंसा धर्म का प्रचार करने के लिए उन्हें संगठित संघर्ष करना पड़ा । यहाँ तक कि देववाद ही नहीं, ईश्वरवाद तक का खण्डन करने, अपने को शून्यवादी तक घोषित करना पड़ा । हमने भी तंत्रवाद से सर्वथा असहयोग रखा है । न सीखा है, न किसी सिखाया है' प्रकारान्तर से यह तांत्रिक मनोवृत्ति अनायास ही लोगों के स्वभाव में बरसात के उद्भिजों की भाँति ही पनप रही है । ऐसी दशा में कहीं तांत्रिक विधान का आश्रय भी मिल जाय, तो स्थिति दुर्गति की चरम सीमा तक जा पहुँचेगी ।
यहाँ स्थिति का स्पष्टीकरण इसलिए करना पड़ा कि सावित्री की सविता की प्रचण्डता देखते हुए कोई उसकी संगति तांत्रिक विधान या विज्ञान के साथ न जोड़ने लगे । सविता परब्रह्म का स्वरूप है और सावित्री उसकी ब्राह्मी शक्ति वह आदि से अंत तक सात्विकता से सराबोर है । किन्तु सार्वजनिक और विशाल-प्रचण्ड कार्यों के लिए उसका प्रयोग आवश्यक हो जाता है ।
इसलिए उस विज्ञान पर प्रकाश डालना पड़ा, उसे पुनर्जीवन देना पड़ा और स्वयं भी उसकी साधना में संलग्न होना पड़ा । इसके बिना हम या हमारे निजी व्यक्तित्व की दृष्टि से कितने ही परिष्कृत क्यों न हों निजी व्यक्तित्व में भले ही स्वर्ग मुक्ति या दूसरों की सीमित भलाई कर सकने वाली शक्ति क्यों न प्राप्त कर लें, विश्व कल्याण एवं युग परिवर्तन के लिए उससे बड़ी शक्ति चाहिए । वही है सविता महाकाल की महाकाली सावित्री ।
No comments:
Post a Comment