(5) विशुद्ध-चक्र – कण्ठ स्थित चन्द्र वर्ण का षोडसाक्षर अः, अं, औ, ओ, ऐ, ए, ऊ, उ, लृ, ऋ, ई, इ, आ, अ वर्णों से युक्त षोडसदल कमल की पंखुड़ियों वाला यह चक्र विशुद्ध-चक्र है, यहाँ के अभीष्ट देवता शंकर जी हैं।
जब कुण्डलिनी-शक्ति विशुद्ध-चक्र में प्रवेश कर विश्राम करने लगती है, तब उस सिद्ध-साधक के अन्दर संसार त्याग का भाव प्रबल होने लगता है और उसके स्थान पर सन्यास भाव अच्छा लगने लगता है। संसार मिथ्या, भ्रम-जाल, स्वप्नवत् आदि के रूप में लगने लगता है। उस सिद्ध व्यक्ति में शंकर जी की शक्ति आ जाती है।
(6) आज्ञा-चक्र – भू-मध्य स्थित लाल वर्ण दो अक्षरों हं, सः से युक्त दो पंखुड़ियों वाला यह चक्र ही आज्ञा-चक्र है। इसका अभीष्ट प्रधान आत्मा (सः) रूप शब्द-शक्ति अथवा चेतन-शक्ति अथवा ब्रह्म-शक्ति अथवा ईश्वर या नूरे-इलाही या चाँदना अथवा दिव्य-ज्योति अथवा डिवाइन लाइट अथवा भर्गो-ज्योति अथवा सहज-प्रकाश अथवा परमप्रकाश अथवा आत्म ज्योतिर्मय शिव आदि-आदि अनेक नामों वाला परन्तु एक ही रूप वाला ही नियत है। यह वह चक्र है जिसका सीधा सम्बन्ध आत्मा (सः) रूप चेतन-शक्ति अथवा शब्द-शक्ति से और अप्रत्यक्ष रूप अर्थात् शब्द-शक्ति के माध्यम से शब्द-ब्रह्म रूप परमेश्वर से भी होता है। दूसरे शब्दों में आत्मा का उत्पत्ति स्रोत तो परमेश्वर होता है और गन्तव्य-स्थल आज्ञा-चक्र होता है।
संगम या त्रिवेणी
जहाँ पर दो नदियाँ मिलकर तीसरा रूप लेकर बहती हैं तो वह मिलन-स्थल ही संगम है। परन्तु जहाँ पर प्रसिद्धि प्राप्त तीनों नदियाँ- गंगा, यमुना और सरस्वती मिलती हों, उसकी महत्ता को क्या कहा जाय। उसमें भी जहाँ अक्षय-वट हो, वह भी भारद्वाज ऋषि जैसे उपदेशक के साथ, तो उसकी महिमा में चार चाँद ही ला देता है। परन्तु यह सारी महिमा मात्र कर्मकांडियों के लिए ही है योगियों-महात्माओं और ज्ञानियों के लिए नहीं, क्योंकि कर्म-कांड की मर्यादा तभी तक रहती है, जब तक कि योग-साधना नहीं जानी और की जाती और ज्ञान में तो ये कर्मकांडी और योगी-महात्मा सभी आकर विलय कर जाते हैं। अब आप योगी-महात्माओं के संगम या त्रिवेणी को जाने, देखें और स्नान करें ।
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