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Wednesday, January 14, 2015

तंत्र-मंत्र-यन्त्र

जानिए तंत्र-मंत्र-यन्त्र को और पह्चानियें अपने अस्तित्त्व को
एक लेख आप के लिए
जो झंझकोर कर रख देगा इसे अवश्य पढ़ें और पहचाने तांत्रिक को ....
पंच मकार
( मध, मांस, मीन , मुद्रा , मैथुन )
तंत्र में पंच मकार रहस्य
इस गुप्त रहस्य में छिपा है ----- तंत्र का सिद्धि प्राप्ति स्वरुप जिसने तंत्र समझा है--वही तो साधक है !
तंत्र और तांत्रिक के सम्बन्ध में जितनी अधिक भ्रांतियां आज साधारण जन-मनाश में है, इस शास्त्र को लेकर जिस प्रकार की चर्चाये होती है और जिस प्रकार से इसको हीन द्रष्टि से देखा जाता है --- वह निश्य ही विचारणीय है, यदि तंत्र वास्तव में शास्त्र है, ठोस आधार से युक्त ज्ञान -विषय है एक विशिष्ट प्रक्रिया है तो फिर ऐसा क्यों ?
इसका मूल कारन तंत्र-शास्त्र अथवा तांत्रिक-ज्ञान और क्रियाएं नहीं है , अपितु अधकचरे , अज्ञानी तांत्रिकों द्वारा इस सम्बन्ध में किये गए कर और फैलाई गई भ्रांतियां है, तंत्र के लिए और इसके ज्ञान के लिए मास , मदिरा, मिटून आदि की जो क्रियाएं संपन्न की जाती है, और इसको जिस प्रकार से मैली विधा बना दिया गया, वह निश्चय ही इस महँ ज्ञान -विज्ञानं का अपमान ही है , सामान्य जन-मानस में तांत्रिक का तात्पर्य बड़ी-बड़ी लाल आँखों वाला , नसे में धुत, श्मशान अथवा एकान्त स्थान पर व्यभिचार स्वरुप क्रियाएं करने वाला , मानस आदि के लिए बलि देने वाला है, और किसी को हनी पहुचने के कार्य में लीन व्यक्ति के रूप में ही चित्र उपस्थित किया जा रहा है, यह विल्कुल ही गलत , दुराग्रहपूर्ण एवं सत्य से परे है !
तंत्र के भेद :--
तंत्र , मूल रूप से शक्ति - उपासना का एक मार्ग है, जिसके माध्यम से साधक , विशेष साधना को संपन्न कर, अपने भीतर शक्ति समाहित कर लेता है, इस शास्त्र के विशेष रूप से तीन उपासना मार्ग प्रचिलित है---
१--- दक्षिण मार्ग या समयाचार,
२--कौल या वाम मार्ग ,
३-- मिश्र मार्ग ,
दक्षिण मार्ग --- मूल रूप से वैदिक मार्ग का स्वरुप है, और यह, 'श्री विधा ' हैं , इसके प्रमुख ग्रन्थ -- "वशिष्ठ संहिता" "सनक सहित " श्री विधार्नव " इत्यादी है, वाम मार्ग जो की मूल तंत्र शास्त्र है, इसके चौंसठ विशेष ग्रन्थ है, "कौलनी कुलयोगिनी" महामाया तंत्र " आदि इसके मुख्य ग्रन्थ है, इसमे पंचमकारों की आवश्यकता को विशेष रूप से स्पस्ट किया है, इसके द्वारा ही यह साधना संपन्न की जाती है, मिश्र तंत्र के आठ मुख्य ग्रन्थ है, और इसमे सामान्य रूप से वाम मार्ग और दक्षिण मार्ग दोनों प्रकार की तंर विधाओं का समावेश है ..!!
तांत्रिक पंच मकार का रहस्य ------
वाम मार्ग के तंत्र में इसका विशेष स्थान है, इसके बिना किसी भी प्रकार की साधना पूरी हो ही नहीं सकती, और ये पंचमकार ---- मध, मांस , मीन , मुद्रा और मैथुन है, ये पांचों प्रक्रियाएं साधन विशेष रूप से विधि-विधान सहित संपन्न होने चाहिए तभी साधक को तांत्रिक साधना में सफलता प्राप्त होती है !
"कुलार्णव तंत्र" मे लिखा है की ---
मध मांस च मीनं मुद्रा मैथुनमेव च !
मकार पंचकं प्रदुर्योगिनाम मुक्तिदाय्काम !!
अर्थत मध , मास , मीन, मुद्रा और मैथुन-यह पांच मकार ही योगियों को पूर्ण सिद्धि एवं मुक्ति प्रदान करने वाले है !
यदि सामान्य रूप से इसकी व्याख्या की जाये तो यह तो एक असम्भव सी स्थिति स्पस्ट होगी , और इस प्रकार की क्रियाओं को उपयोग मे लेन वाला व्यक्ति असामान्य व्यक्ति की माना जायेगा, क्युकी मध और मांस तामसिक प्रकृति के पधार्थ है, और रसके प्रोग से तमोगुण की वृद्धि होती है , जब की तंत्र के ज्ञान से तो सिद्धि और मुक्ति प्राप्त होनी चाहिए , यही मूल बिंदु है जिसकी व्याख्या आवश्यक है, केवल शाब्दिक अर्थों पर जाकर तंत्र शास्त्र को गलत द्रस्ती से देखना , दुराचार का मार्ग मन्ना उचित नहीं है ..!
पंच मकार में भोगियों द्वारा पाखंड -----
                          
मध ---मदिरा
"योगिनी तंत्र " में स्पष्ट कहा गया है की मदिरा का तात्पर्य है --- शक्तिदायक रस, अर्थात शिव और शक्ति के सयोग से जो महँ अम्रतत्व उत्पन्न होता है , वही मदिरा है, जो द्रव कुंडलिनी में ब्रह्मरन्ध्र -सहस्त्रदल से स्त्रावित हो " कुलार्णव तंत्र " के अनुसार गुड और अदरक का मेल ब्राह्मण के लिए मदिरा है , कांसे के पात्र में नारियल का पानी क्षत्रिय के लिय और कांसे के पात्र में शहद वैश्य के लिए सूरा अर्थात मदिरा कही गई है, जहाँ किसी तंत्र साधना में सूरा का प्रोग हो , वहां इस प्रकार की सूरा विशिष्ट वर्ण वाले व्यक्ति को प्रोग में लानी चाहिय !
अर्थात जो सहस्त्रार पझ रुपी पात्र मे भरी हो और चंद्रमा को कला तत्व से स्त्रावित हो वही पिने योग्य सूरा है जिसके पिने से अशुभ कर्मों का प्रवाह नष्ट हो जाता है तथा साधक परम तत्व, ज्ञान प्राप्य कर मुक्ति या मोक्ष प्राप्त करता है, ऐसे ही व्यक्ति मुनि-योगी बन पाते है ....!!
मांस ------
मांस , तांत्रिक साधनों में बलि स्वरुप प्रोग मे लाया जाता है, मूल रूप साधना में पशु बलि का उल्लेख ही नहीं है, मांस का तात्पर्य है--शारीर का तत्व और यह तत्व मूल रूप से लवण , अदरक , लहसुन , टिल और गेहू की बालें है , इसी का साधना में, यज्ञ मे , होम में बड़ी स्वरुप आर्पित करना उचित है "योगनी तंत्र " में लिखा है
माँ शब्दाद रसना ज्ञेया संद्शान रसनाप्रियां !
एतद यो भक्षयेद देवी स एव मांससाधक: !!

                      

अर्थात "माँ " शब्द सब प्रकार की रस्पिया वस्तुओं का स्वरुप है और जो साधक इनकी बलि दे कर , त्याग कर इनका हवन करता है और इसमे सायं बरतता है --वही साधक अपने सदना रुपी खड्ग से यह बड़ी देकर पूर्णता प्राप्त करता है , वही साधक मांसाहारी है
अत: यह स्पस्ट है की पशु बलि देना और तांत्रिक साधनों में मांस का भक्षण करना आवशक नहीं है उन पाखंडी ढोगी तांत्रिको ने अपने स्वाद की पूर्ति करने हेतु मांस का भक्षण करना आवश्यक बना दिया !
यह तो तांत्रिकों द्वारा शास्त्रों मे प्राचीन ऋषियों द्वारा दिए गए मन्त्रों के अर्थों का अनर्थ कर पशु मांस को ही आवश्यक मन लिया गया है , इसी कारण तो आज भी श्रेष्ठ यागों में , देवी पूजन में नारियल को होम किया जाता है और वही पूर्ण सिद्धिदायक है
मीन-मत्स्य ------
मीन अर्थात मछली तांत्रिको क्रियाओं के मंत्रो मे विशेष रूप से आई है और इसका शाब्दिक अर्थ कर इसे केवल मछली मन लिया गया है , मूल रूप से इसका तात्पर्य है, की जब हम किसी प्रकार की तांत्रिक किया संपन्न करते हैं तो छ: प्रकार की मछलियों अर्थात-- अहंकार , दंभ, मद, पशुता , मत्सर, द्धेष, शारीर में विचरण करने वाले इन छ: प्रकार के दोषों को नष्ट कर , अपने आपको शुद्ध कर देवता की आराधना में समर्पित कर देते है, केवल मछली खाने से ही यदि तांत्रिक क्रियायां संपन्न हो जाये तो शायद आज आधे से अधिक संसार तांत्रिक होता ..!
तंत्र शास्त्र में तो लाक्षणिक शब्द दिए होते है , इनकी व्याख्या कर मूल भाव समझने की आवश्यकता है , साधक का शारीर भी जल -स्वरुप ही है और इसमें भी श्वश और प्रश्वास दो मत्स्य है जो साधक प्राणायाम के द्वारा उसको रोक कर कुम्बक करते है--वे ही मत्स्य साधक है , यदि साधक अपनी इंद्रियां को वश मे कर सकता है , तभी वह वशीकरण क्रियाओं में सिद्ध हो सकता है !
"कुलार्ण तंत्र " के अनुसार जहाँ -जहाँ तांत्रिक क्रियाओं मे मत्श्य का विधान है, वहा वैगन , मुली अथवा पानी-फल (नारियल ) को अर्पित करना चाहिए और हवन मे भी इन पदार्थों को अर्पित करना चाहिए , न की जीवित मछली को ...!!
मुद्रा-----------
मुद्रा का केवल उपासनाओं और साधनों में ही नहीं , अपितु अन्य रूप से भी विशेष महत्त्व है , मुद्रा का तात्पर्य आंतरिक भावों को प्रकट करना है, साधना काल मे साधक जो साधना कर रहा है , उस समय अपने मन के भावों को अपने इष्ट से वार्ता हेतु किस रूप से प्रकट करता है, क्योकि ह्रदय और मन के भावों को बाह्य अंगों द्वारा प्रकट किया जा सकता है , और जब हाथो, उँगलियों और पैरों की सहायता से ये मुद्रए बने जाती है, तो ये मुद्रए आंतरिक भावो का रूप ले लेती है, साधनों मे प्रत्येक प्रकार के लिए अलग -अलग मुद्राएँ है ...!!
मैथुन --------
मैथुन का तात्पर्य है --- मिलन और संभोग , इस संभोग प्रक्रिया का प्रत्येक तंत्र साधना मे विशेष स्थान है, लेकिन क्या संभोग का तात्पर्य स्त्री और पुरुष का मिलन ही है ??? क्या तांत्रिक प्रक्रियाओं में स्त्री का उपयोग अनिवार्य है ??? ... नहीं कदापि नहीं
स्त्री का तात्पर्य कुण्डलिनी शक्ति है जो भीतर स्थित है और इसका स्थान मूलाधार है, सहस्त्रार में शिव का स्थान है इस शिव और शक्ति के मिलन को ही मैथुन कहा गया है, साधना की प्रक्रिया द्वारा अपने शारीर तत्व को उस स्थिति तक पंहुचा देना की शक्ति -तत्व पूरब रूप से प्राप्त हो जाय--वही वास्तविक मैथुन है !
मूल रूप से पुष्प लताएँ , स्त्री स्वरूप है , और जब इनका समर्पण साधना मे किया जाता है तो वह स्त्री तत्व का समर्पण ही है , शारीर का विलाश प्रिय होना तंत्रोक्त मैन्थुन नहीं है , पराशक्ति -तत्व को प्राप्त कर, अपने भीतर के शिव तत्व से विलाश, रस का संगम ही पूर्ण मैथुन है ..
इसलिए शुद्ध तंत्र सदनों में तथा पूर्ण सिद्धि प्राप्त करने हेतु विभिन्न प्रकार के पुष्पों का प्रयोग विशेष रूप से करना चाहिए ...
नोट----- इस प्रकार इन पंच मकारों का सदना में विशेष स्थान एवं रहस्य , इनके मूल अर्थ को समझते हुए सदना सम्पान करनी चाहिए, यह हमारा दुर्भाग्य है, की भोग व्रती में लीन , मन्त्र-शास्त्र , तंत्र-शास्त्र के अगनी तत्वों द्वारा इन पंच मकारों का अर्थ अपनी इच्छानुसार निकल कर गलत प्रोग किया गया, इसलिए आज तंत्र साधना को गलत द्रस्ती से देका जाता है , जबकि मूल रूप से तो सिद्धि प्राप्त की यही एक विशिष्ट प्रक्रिया है, परम साधन है .....                            

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