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इस शिशु शरीर की मिट्टी पिता से ही दिलाई जाती है। कोई माता उस शरीर को अपने पास रोक नहीं पाती है। कहाँ गया माता का दूध ? और कहाँ गया पिता का खान-पान ? कहाँ गया पिता का प्यार और सामर्थ्य ? और कहाँ गयी माता की शक्ति ? कि अपने शिशु के शरीर को अपने हाथ ही मिट्टी खोदकर गाड़ या ढप दिया जाता है। कहाँ गयी शारीरिक क्षमता ? और जब जीव ही प्रधान है शरीर के विकास में तो शरीर जीव का हुआ कि माता-पिता का ? हमें तो यह दिखलाई दे रहा है कि शरीर का एकमात्र हित जीव ही है और कोई नहीं। क्योंकि जीव रहते ही शरीर का साथ या सहयोग कोई दे पाता है। जीव के शरीर छोड़ते ही संसार में कोई ऐसी वस्तु अथवा कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जो शरीर को रख सके और उसका विकास कर सके। शरीर का विकास मात्र जीव पर आधारित है, माता-पिता पर नहीं। बहुत शरीरों को देखा गया है कि उत्पन्न होते ही माता-पिता तो फेंक देते हैं, फिर भी शरीर समाप्त नहीं होता, जैसे कबीर और तुलसी आदि। परन्तु एक भी ऐसे माता-पिता जानने-सुनने को नहीं मिले हैं, जो जीव रहित शरीर को रखकर दूध और खान-पान देते हुए उसका विकास करता हो। इससे स्पष्ट जाहिर होता है कि शरीर एकमात्र जीव का ही होता है किसी और का नहीं। सांसारिक व्यक्ति अगर कोई सहयोग करता भी है तो उसके पीछे उसका कोई न कोई अपना स्वार्थ जरूर छिपा होता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को इस बात पर अवश्य ध्यान देना पड़ेगा कि कोई स्वार्थी आप के पतन का ही कारण हो सकता है, उत्थान का नहीं।
अब रक्षा-व्यवस्था की बात देखी जाय, तो स्पष्टतः दिखाई देगा कि माता-पिता अथवा कोई शारीरिक सम्बन्धी शरीर की रक्षा-व्यवस्था नहीं कर सकता, यदि जीव साथ छोड़ दे। जीव के साथ छोड़ते ही रक्षा-व्यवस्था तो रक्षा-व्यवस्था है, उसके स्थान पर शरीर के नाश यानि समाप्ति की व्यवस्था ये माता-पिता, पुत्र-पुत्री, सगा-सम्बन्धी आदि करना प्रारम्भ कर देंगे और तब तक चैन नहीं लेंगे, जब तक कि शरीर को आग या पानी में या मिट्टी में डालकर बर्बाद नहीं कर देंगे।
भगवद् प्रेमी बन्धुओं ! यह तो आप लोगों को मानना ही पड़ेगा कि जीव यदि शरीर का साथ छोड़ दे तो माता की गोद में भी रहने पर माता उस मुर्दा-शरीर की रक्षा नहीं कर सकती और लोगों की बात क्या कहीं जाय। परन्तु यदि जीव साथ है तो वह व्यक्ति चाहे जहाँ भी रहे, समीपस्थ व्यक्ति उसका परिचित या दोस्त बन जया करता है और उस शरीर की रक्षा व्यवस्था वह दोस्त-मित्र या सहपाठी करने लगता है। यदि कोई साथी न भी हो, तब भी उस शरीर को कोई यदि नाजायज तरीके से परेशान करता है, तो आत्मवत् सम्बन्ध प्रत्येक से होने के नाते कोई न कोई तीसरा या अन्य व्यक्ति जरूर ही परेशान आदमी की तरफ से बोलने और उसका साथ देने लगता है। यदि कोई साथ नहीं देगा, तब भी सरकार अवश्य साथ देती है। परन्तु शरीर के साथ जीव ही न हो तो दुनिया का कोई व्यक्ति अथवा वस्तु उस शरीर की रक्षा नहीं कर सकती। आक्सीजन भी जीव नहीं दाल सकता है और दूध या कोई टॉनिक भी उसका विकास या रक्षा नहीं कर सकता। इससे भी स्पष्ट हो जाता है शरीर न तो माता-पिता का है, न पुत्र-पुत्री का है और न किसी अन्य सम्बन्धी का है, यह तो मात्र जीव का ही होता है। जीव की शत्रु-मण्डली रूप माता-पिता, भाई-बहिन, पुत्र-पुत्रियाँ, सगे-सम्बन्धी तथा दोस्त या नौकरी-चाकरी आदि को किसी भी रूप में अपने में हिस्सेदार नहीं बनाना चाहिए।
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