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सिद्ध-साधक या योगी, सन्त-महात्मा में ‘हम’
सिद्ध-साधक या योगी, सन्त-महात्मा के दृष्टिकोण में ‘हम’ जीव ही आत्मा से मिलकर ‘हम’ आत्मा हो जाता है। तत्पश्चात् ‘हम’ ‘ज्योति’ रूप आत्मा है। ये लोग सामान्य व्यक्तियों से कहा करते हैं कि ऐ बन्धुओं ! ऐ आत्मवत् बन्धुओं ! हमारी जिस शरीर को देख रहे हो ‘हम’ वह नहीं है, ‘हम’ तो शुद्ध-बुद्ध, निर्विकल्प, निर्लेप एवं निर्विकारी ज्योति रूप आत्मा हैं। आप लोग हमें इन दृष्टियों से जान व देख नहीं सकते हो, जब दिव्य दृष्टि देंगे, तब हमें अच्छी प्रकार जान-देख व समझ पाओगे। ये महानुभाव सोsहं या शिवोsहं – हंसो नाम और दिव्य-ज्योति या आत्म-ज्योति या परमप्रकाश आदि को अपने ‘हम’ का रूप बताते, जनाते व दिखाते हैं। अन्ततः समस्त सिद्ध-साधक या योगी-यति या सन्त-महात्मा आदि आध्यात्मिक नेताओं द्वारा अपने को शरीर न मानकर ‘हम’ रूप अहम् को अहंकार घोषित करते हुये, इस ‘हम’ जीव को आत्म-ज्योति से मिलाने में ही इसका कल्याण मानते हैं। इस वर्ग के दृष्टिकोण में ‘हम’ रूप जीव आत्म-ज्योति से मिलकर हंसो-सोsहं हो जाता है और ऐसे सिद्ध-साधक, योगी-यति, ऋषि-महर्षि, सन्त-महात्मा, आलिम-औलिया, पीर-पैगम्बर आदि अपना (अपने ‘हम’ का) निवास आज्ञा-चक्र में बताते हैं और अपने अनुयायियों को भी ध्यान के द्वारा वहीं भ्रू-मध्य स्थित आज्ञा-चक्र में ही टिकने को कहते हैं। यह आत्मिक ‘मैं’ महात्माओं का है।
अवतारी और उनके अनुयायियों या तत्त्वज्ञानियों द्वारा ‘हम’ को चार रूपों में जाना व देखा जाता है – ‘हम’ शरीर; ‘हम’ जीव; ‘हम’ आत्मा; ‘हम’ परमात्मा। उदाहरणार्थ- (1) हमारा नाम दशरथ है; मानव शरीर हमारा रूप है, हमारा घर अयोध्या है। (2) ‘हम’ जीव हैं, ‘अहम्’ हमारा नाम है, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार तथा सूक्ष्म रूप में इन्द्रियों से युक्त आकृति हमारा रूप है और शरीर हमारा घर है। (3) ‘हम’ आत्मा है, सोsहं-हंसो हमारा नाम है, आत्म-ज्योति या दिव्य-ज्योति या ब्रह्म-ज्योति हमारा रूप है और भ्रू-मध्य स्थित आज्ञा-चक्र तथा शरीर से बाहर शून्य आकाश भी हमारा विवास स्थान है। (4) ‘हम’ परमात्मा है, परमतत्त्वम् (आत्मतत्त्वम्) हमारा नाम है, शब्द-ब्रह्म ही यानि शब्द-सत्ता रूप बचन ही हमारा रूप और परमआकाश रूप परमधाम या अमरलोक ही एक मात्र हमारा निवास है।
अवतारी तथा उनके अनुयायीगण या तत्त्वज्ञानी वास्तव में यथार्थतः एक ही ‘हम’ या ‘मैं’ को देखता है। सृष्टि या ब्रह्माण्ड तथा जीव; आत्मा या ब्रह्म तथा परमात्मा की वास्तविक रूप में, यथार्थतः सत्य जानकारी एवं पहचान एकमात्र अवतारी तथा उन्ही के द्वारा जनाते, बताते और दिखाते हुये पहचान कराए गए तत्त्वज्ञानियों को ही होती है। किसी भी अन्य विद्वान, शास्त्रीय जानकार, वैज्ञानिक, मान्त्रिक, तान्त्रिक, मनोवैज्ञानिक, योगी-यति, ऋषि-महर्षि, आध्यात्मिक सन्त-महात्मा, पीर-पैगम्बर, आलिम-औलिया को नहीं होती।
अवतारी तथा उनके अनुयायीगण या तत्त्वज्ञानी वास्तव में यथार्थतः एक ही ‘हम’ या ‘मैं’ को देखता है और अन्ततः वही ‘हम’ सत्य भी होता है। शेष सभी तो कोई ‘हम’ आत्मा वाला उसी से उत्पन्न और पृथक हुआ, उसी की रोशनी आत्म-ज्योति आदि होता है और कोई ‘हम’ जीव वाला तो मात्र उसी का ‘प्रतिबिंबवत् ही होता है और शेष कोई ‘हम’ शरीर वाला जो जड़, मूढ़ एवं अज्ञानी सांसारिकों की मान्यता है जो बिल्कुल ही गलत, मिथ्या, भ्रामक एवं जड़ता का सूचक है क्योंकि ‘हम’ शरीर है, यह तो कल्पना भी नहीं हो सकता, यथार्थता की बात तो दूर रही। यह जड़ियों एवं भ्रमित मूढ़ों की देन है कि ‘हम’ को शरीर मानकर उसी में फँसे रहते हैं।
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