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शिशु ब्रह्म से सम्बंधित रहने पर दिव्यानन्द से युक्त रहते हुए मस्ती के साथ उसी में लीन रहता था। परन्तु स्वार्थी, लोभी, आसक्त माता-पिता, पारिवारिक सदस्य बनने वाले लोग, जो शिशु के जीव के तो मीठे जहर रूपी शत्रु होते ही हैं परन्तु ये मीठे जहर ही शिशु के हितैषी बनने लगते हैं, जो कामिनी और कंचन रूप परिवारिकता, सामाजिकता और सम्पत्तिकर्ता रूप सांसारिकता में फँसा एवं जकड़कर बर्बाद कर डालते हैं। ये बनने वाले हितैषी जन स्वार्थी, लोभी, पाखण्डी, धोखेबाज़ एवं जालसाजों का एक बनावटी समाज होता है, जो शिशुओं का हितैषी बन कर प्रसूति गृह से ही शिशु के साथ धोखा, छल, प्रपञ्च रूप जालसाज़ी में फँसाकर, ब्रह्म का जीव से सम्बन्ध जो ब्रह्म-नाल के माध्यम से कायम था, उसी को काटकर अपने में साटना शुरू कर देते हैं कि – हम ‘माता’ हैं, हम ‘पिता’ हैं, हम ‘भाई’ हैं, हम ‘बहिन’ हैं, हम ‘दादा’ हैं, हम ‘मामा’ हैं, हम ‘मौसी’ हैं, हम ‘फूफा’ हैं आदि-आदि। ये सभी अपनी-अपनी क्षमतानुसार अपने-अपने सम्पर्कों को दिखा-दिखा कर फँसा देते हैं, जिसके कारण शिशु के शरीर में रहने वाला ‘अहम्’ बाद में ‘हम’ में अपभ्रंश रूप परिवर्तित होकर उच्चारित होने लगा।
परमतत्त्वं (आत्मतत्त्वम्) से छिटककर ‘आत्म’ ‘शब्द’ रूप में अलग हुआ, पुनः ‘आत्म’ शब्द ‘सः’ शब्द में परिवर्तित हुआ, पुनः ‘सः’ शब्द ‘अहम्’ बनते हुये तुरन्त सोsहं शब्द-रूप में कायम रहा, फिर सोsहं में जब ‘सः’(ब्रह्म) से सम्बन्ध कट जाता है, तब मात्र ‘अहम्’ बाद में ‘हम’ ‘हम’ करते हुए जनमानस में उच्चारित होने लगा। अन्ततः वह ‘हम’ या ‘मैं’ नाना शरीरों में जुट-जुट कर शारीरिक नामों व रूपों में छिप जाता है, जिसके कारण यह पता नहीं लगता कि ‘हम’ अथवा ‘मैं’ कौन है ? कहाँ से आया है ? कहाँ रहता है ? आदि।
‘हम’ अथवा ‘मैं’ क्या है ?
‘हम’ अथवा ‘मैं’ कौन है ?
‘हम’ अथवा ‘मैं’ कहाँ से आया है ?
‘हम’ अथवा ‘मैं’ कहाँ रहता है ?
‘हम’ अथवा ‘मैं’ किसके हैं ?
जिज्ञासु बन्धुओं ! अब आइये हम इन उपर्युक्त प्रश्नों पर बारी-बारी विचार-मन्थन, साधना और तत्त्वज्ञान पद्धति से यथार्थतः जानकारी करते हुये पहचान करें, तत्पश्चात् जो यथार्थतः सत्य हो उससे जुटकर अथवा एक होकर अपने गन्तव्य लक्ष्य को प्राप्त करते हुये मुक्त जीवन जियेँ ।
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