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यम-नियम क्या है?
ब्रह्मचर्य
ब्रह्मचर्य का पालन मन, वचन और काया से होना चाहिए । हमने गीता में पढ़ा है कि जो शरीर को काबू में रखता हुआ जान पड़ता है पर मन से विकार को पोषण किया करता है वह मूढ़,मिथ्याचारी है । मन को विकारपूर्ण रहने देकर शरीर को दबाने की कोशिश करना हानि कारक है । जहाँ मन है वहाँ अन्त को शरीर भी घिसटे बिना नहीं रहता । यहाँ एक भेद समझ लेना जरूरी है । मन को विकार वश होने देना एक बात है और मन का अपने आप अनिच्छा से बलात् विकार को प्राप्त होना या होते रहना दूसरी बात है । इस विकार में यदि हम सहायक न बनें तो आखिर जीत हमारी ही है । हम प्रतिपल यह अनुभव करते हैं कि शरीर तो काबू में रहता है पर मन नहीं रहता । इसलिए शरीर को तुरन्त ही वश में करके मन को वश में करने की रोज कोशिश करने से हम अपने कर्तव्य का पालन करते हैं-कर चुकते हैं । वीर्य का उपयोग तो शारीरिक और मानसिक शक्ति को बढ़ाने में है । विषय भोग में उसका उपयोग करना, उसका अति दुरुपयोग है, इसके कारण वह कई रोगों को मूल बन जाता है ।
जीवनोद्देश्य की पूर्ति में, सत्कामो द्वारा ईश्वर को प्रसन्न करने के प्रयत्न में, ब्रह्म भावना की चर्या में तन्मयता प्राप्त करने के लिए इन्द्रियों को संयम अत्यन्त आवश्यक है । जिसकी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय में दौड़ी फिरती हैं, उसका चित्त एक स्थान पर ठहर नहीं सकता और न उच्च उद्देश्यों में दिलचस्पी ले सकता है । दीर्घ जीवन, निरोगता, शरीर की पुष्टता, सुड़ौलता, बलबुद्धि, तेज, बुद्धि की प्रखरता आदि शारीरिक लाभों की नीव इन्द्रिय संयम के ऊपर रखी होती है, शक्तियों का खर्च भोगों में न होगा तो उसके द्वारा शरीर और मस्तिष्क बलवान हो सकेगा अन्यथा जिस प्रकार फूटे हुए दीपक में से तेल चूता रहता है तो वह अधिक समय तक अधिक प्रकाश के साथ न जल सकेगा, जिस वृक्ष की जड़ों में कीड़े या दीमक लग रहे हों वह निर्बल और अल्पजीवी ही होगा यही बात मनुष्य की है । असंयम के कारण इन्द्रिय भोगों में जिसकी शक्ति अधिक मात्रा में खर्च होती रहती है, वह न तो शरीरिक दृष्टि से निरोग,बलवान एवं दीर्घजीवी हो सकता है और न मानसिक दृष्टि से ही मेधावी, मनस्वी एवं प्रभावशाली हो सकता है, फिर ब्रह्म के आचरण में रत होना तो दूर की बात है ।
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इन्द्रिय संयम का तात्पर्य है, विवेक के साथ मर्यादा के अन्तर्गत इन्द्रियों का उपयोग होना । इन्द्रियों के आधीन अपने को इतना अधिक नहीं होना चाहिए कि भोगेच्छा को रोका न जा सके या रोकने में बहुत आदत डालनी चाहिए कि इन्द्रियों की इच्छा को जब चाहे तब आसानी से रोक सकें और भोग सामने हो तो भी उसे छोड़ सकें । कहने को पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं पर वास्तव में दो का ही संयम करना है । नाक, कान, आँख के भोग तो कभी-कभी और कम मात्रा में मिलते हैं, इसलिए उनकी अधिक चाट नहीं होती और न उनमें इतनी प्रबलता ही होती है । जिन पर काबू पाना है, वह हैं-स्वाद और कामवासना । जीभ के चटोरपन की प्रेरणा से किसी भी वस्तु को खाने से इन्कार कर देना चाहिए । चटपटे, मीठे,खारी, खट्टे, चिकने पदार्थों को देखकर चटोरे मनुष्यों के मुँह में पानी भर आता है, इस वृत्ति को रोकना चाहिए ।
जब इस प्रकार मन चल रहा हो तो हठात् उस वस्तु को न खाने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए और दृढ़तापूर्वक उसका पालन करना चाहिए । कुछ समय के लिए बीच-बीच में कुछ समय तक नमक और मीठा छोड़ने का प्रयोग करते रहना चाहिए जो वस्तु आवश्यक और लाभदायक हो उसे स्वाद रहित होते हुए भी सेवन करना चाहिए । इसी प्रकार गृहस्थ होते हुए भी कभी-कभी कुछ समय के लिए ब्रह्मचर्य से रहने के व्रत उन्हें पूरा करते रहना चाहिए । अन्य स्त्रियों को बहिन या पुत्री की दृष्टि से देखना चाहिए । कुदृष्टि के उत्पन्न होते ही अपना एक कान ऐंठ कर अपने आप जोर से चपत लगानी चाहिए । गन्दी पुस्तकों से, तस्वीरों से और संगीत से बचना चाहिए । इस प्रकार धीरे-धीरे स्वाद और कामवासना पर विजय प्राप्त की जा सकती है । किसी बात को पूरा करने के लिए मनुष्य दृढ़ प्रतिज्ञा हो जाय और प्रयत्न बराबर जारी रखें तो कोई कारण नहीं कि उसमें सफलता प्राप्त न हो ।
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