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Saturday, January 17, 2015

अलॊकीक योग दर्शन लेख। (61)



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माता भी अछूत एवं घृणित
जनित शिशु का नार-पुरइन चमइन द्वारा जैसे ही काटा जाता है, वैसे ही वह चमइन तो घोर-घृणित हो ही जाती है साथ ही नार-पुरइन कटवाने वाली माता भी अछूत एवं घृणित हो जाती है। उसी माता से उत्पन्न अन्य सन्तानें भी उनसे शरीर नहीं छुआती हैं। उनके पतिदेव भी उनसे शरीर नहीं छुआते हैं। इतना ही नहीं अपने परिवार का भी कोई सदस्य उस महिला (माता) से शरीर छुआना तो दूर रहा, यदि उस प्रसूति गृह में भी कोई भूल वश प्रवेश कर गया, तो दरवाजे से ही मना कर दिया जाता है और अगर प्रवेश कर भी गए तो उन्हे भी अपवित्र घोषित कर दिया जाता है और उनको स्नान आदि करके शुद्ध होना पड़ता है। समाज कितना जड़ी हो गया है कि इतने प्रभावकारी क्रिया कलाप के बावजूद भी यह जाँच-पड़ताल नहीं करता कि आखिर बात क्या हो जाती है कि इतनी बड़ी घृणा, अपवित्रता, छुआछूत का भाव कि माता अछूत, वह घर अछूत, वह शिशु अछूत, वह थाली अछूत जिसमें वह खाती है, वह वस्त्र अछूत जो वह पहनती है, अंततः वह परिवार ही अन्य परिवारों के लिए अछूत हो जाता है। आखिर बात क्या है ? जबकि ये सारी घटनाएँ नार-पुरइन या ब्रह्म-नाल के काटने के बाद ही प्रारम्भ होती हैं, जबकि पहले ऐसी कोई बात नहीं थी। अतः यह दिखलायी देता है कि नार-पुरइन काटकर जीव का ब्रह्म से सम्बन्ध काटना ही एकमात्र इन सभी घटनाओं का कारण है। चूँकि सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था के बिगड़ जाने का भय होता है, इसलिए एक सप्ताह तक ही छुआछूत वाला भाव माना जाता है और स्नान आदि कर-करा के सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था को कायम रखने हेतु उस व्यवहार को समाप्त कर दिया जाता है। अब यह देखना है कि नार-पुरइन काटने का परिणाम शिशु पर क्या पड़ता है और वह उसे किस प्रकार झेलता है ?

                

नार-पुरइन या ब्रह्म-नाल कटने का शिशु पर कुप्रभाव
शिशु जब उत्पन्न होता है या गर्भ से बाहर आता है, तो देखा जाता है कि आँखें बन्द रहती हैं, जिह्वा मुख में सामान्य तरीके से रहने के बजाय जिह्वा मूल से ही ऊपर के कण्ठ-कूप में उर्ध्व रूप में पड़ी रहती है, कानों में एक विचित्र तरह का ध्वनि अवरोधक पदार्थ जो ‘जावड़’ कहलाता है, भरा रहता है जिससे बाहरी शब्दों और ध्वनियों का शिशु पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इसकी महत्ता गृहस्थों को तो पता नहीं होती, इसकी महत्ता को जानना हो तो किसी भी योगी या आध्यात्मिक महात्मा से या किसी धार्मिक महापुरुष के उपदेशों से, जो वेद, पुराण, रामायण, गीता, बाइबिल, कुरान आदि सद्ग्रंथों में भरे पड़े हैं, जान-देख तथा समझ लेना चाहिए क्योंकि किसी भी बात या वस्तु का यथार्थ लाभ लेने अथवा महत्ता से लाभान्वित होने हेतु यह अति आवश्यक होता है कि उस बात या वस्तु की यथार्थता को जाना और समझा जाय।
आँखें बन्द क्यों रहती हैं ?
जिह्वा उल्टी क्यों रहती है ?
कान बन्द क्यों रहते हैं ?
शिशु पैदाइश के समय रोता क्यों है ?
जब ‘हम’ रोते हैं, तो दुनिया हँसती है और जब हम हँसते हैं तो दुनिया रोती है। ऐसा क्यों होता है ? आदि आदि।
उपर्युक्त बातें तथा क्रियाएँ मनमानी अथवा थोथी दलील नहीं है। यथार्थतः विचित्र रहस्यात्मक प्राकृतिक विधान है, जिसकी यथार्थतः जानकारी जो हासिल कर पाते हैं वे ही इसके चिदानन्द या दिव्यानन्द को जान-समझ, अनुभव एवं बोध कर पाते हैं, सभी नहीं।

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