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समाधि मात्र कौतूहल नहीं है
उससे ऊँची कक्षा प्रज्ञा की है, जिसे समाधि भी कहते हैं। जिस मानस पर प्रज्ञा का आधिपत्य होता है वह मात्र आदर्शों को ही अपनाती है। उत्कृष्टता की कसौटी पर हर विचारणा, निर्धारणा एवं योजना को कसते हैं। महामानवों जैसे पुण्य परमार्थ से भरे- पूरे निश्चय करती है और मार्ग चुनती है। उच्चस्तरीय चिन्तन और चरित्र उन्हें नर- नारायण का स्तर प्रदान करता है। ऐसे लोग देवात्मा, पुण्यात्मा एवं पुरुष- पुरुषोत्तम जैसी विभूतियों से अलंकृत किए जाते हैं। उनकी परा दृष्टि को समाधि नाम से भी सम्बोधित करते हैं। सामान्य परिस्थितियों में भी उनकी मनःस्थिति उच्चकोटि की बनी रहती है। मनुष्य कलेवर में वे देवों की तरह रहते और लोकोपयोगी कार्यों में निरत रहते हैं।
समाधि का एक क्रिया पक्ष भी है, जिसमें संकल्प बल को इस सीमा तक विकसित करना पड़ता है कि मन क्षेत्र पर पूरा नियन्त्रण प्राप्त किया जा सके। यहाँ तक कि उसकी हलचलों को भी बन्द किया जा सके। ऐसे लोग उस शून्यावस्था में चले जाते हैं, जिसमें रक्त संचार तो जारी रहता है, पर मस्तिष्क चेतना विहीन हो जाता है। यह प्रयोग इच्छित समय के लिए संकल्प लेकर किया जाता है। अवधि पूरी होने पर जागृति स्वमेव वापस लौट आती है। यह एक चमत्कारी कृत्य है जिसे हठयोग के साथ जुडा़ हुआ समझा जाता है। विचार प्रणाली को अवरुद्ध करना, हृदय की धड़कन को घटा देना, श्वास- प्रश्वास को सीमित कर देना और जागृत अवस्था में ही निद्रा की स्थिति में पहुँच जाना यह संकल्प बल के चमत्कार हैं। इच्छा शक्ति में न केवल विचारों को अपने साथ ले चलने की, उन्हें ऊँचा उठाने नीचे गिराने की सामर्थ्य है, वरन् उसमें प्रचण्डता आने पर यह स्थिति भी आ जाती है कि शरीर के किसी अंग की क्षमता को घटा या बढा़ सकें। हठयोग की समाधि इसी अभ्यास के बढे़- चढे़ रूप से प्रभावी है। इतने पर भी यह नहीं सोचना चाहिए कि समाधि वाला व्यक्ति मनोजय कर चुका, मेधा प्रज्ञा को जगा सकने में समर्थ हो चुका। ऐसी स्थिति जब तक प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक आत्मिक उत्कर्ष का प्रयोजन पूरा नहीं होता, आत्मवृत्त बढे़ बिना मनुष्य का देवत्व जगता नहीं। इस अभाव के रहते शाप वरदान दे सकने जैसी ऋद्धि- सिद्धियों का दर्शन भी नहीं होता। वह भाव- सम्वेदना का विषय है। जबकि शरीर को शिथिल तन्द्रित या निश्चेष्ट कर देना मात्र संकल्प शक्ति बढा़ लेने का चमत्कार। यह सरकस में दिखाये जाने वाले अजूबों के समतुल्य है, जिनमें अभ्यास करने वाले जानवर भी कितने ही ऐसे कौतुक दिखाने लगते हैं, जिन्हें देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।
हाट- बाजारों मे समाधि लगाने का प्रदर्शन करने वाले, गड्ढे में बैठने- उठने पर पुजापा बटोरने जैसी प्रदर्शन परक विडम्बनाएँ कोई सच्चे अर्थों में सिद्धि क्षेत्र तक पहुँचा हुआ व्यक्ति नहीं दिखा सकता। आत्म- साधनाएँ और उनकी सिद्धियाँ तो प्रायः गोपनीय रखी जाती हैं। उन्हें प्रदर्शन से बचाया जाता है। कौतुक- कौतूहल का रूप देकर भीड़ इकट्ठी नहीं की जाती। इस आधार पर भावुक लोगों की जेबें खाली नहीं कराई जातीं। इन कौतूहलों को देखकर सामान्यजन भ्रम में पड़ते हैं और उद्देश्यों को भूलकर इन तथाकथित सिद्ध पुरुषों के आगे- पीछे मनोकामनाएँ पूरी कराने के निमित्त फिरने लगते हैं। यह साधनारत योगीजनों के लिए और सर्वसाधारण के लिए हितकर ही है।
योग के तत्त्व- दर्शन की खोज करने वाले को, पातंजलि अष्टांग योग के जिज्ञासुओं को इतना ही समझना पर्याप्त है कि सिद्धावस्था तक पहुँचते ही विचारणाओं और भावनाओं पर पूरी तरह नियन्त्रण हो जाता है। न मन निरर्थक कल्पनाएँ करता है और न भावनाओं में का हीनता आती है। सुदृढ़ सुनिश्चित मान्यताओं का परिपक्व होना और आत्मजय प्राप्त कर लेना ही समाधि का व्यावहारिक रूप है, जिसकी ओर क्रमशः बढा़ जा सकता है।
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