मनुष्य के भीतर की जो प्रवृत्ति अध्यात्म मार्ग में प्रधान रूप से बाधक होती है, वह है “अहंकार”। संसार में हमारे जो तरह-तरह के सम्बन्ध है उनके कारण हम अनेक बन्धनों में बँध जाते है। उनके घात-प्रतिघात से हमारे मन में सदैव द्वन्द्व की भावनायें उत्पन्न होती रहती हैं और उन्हीं के परिणाम स्वरूप हमको हर्ष-शोक सुख-दुःख स्तुति-निन्दा हानि-लाभ आदि के विचार उत्पन्न होकर अस्थिर बनाते रहते है।
इस प्रकार अहंकार तीन प्रकार का बतलाया गया है- सात्विक, राजसिक और तामसिक। अधिकांश मनुष्यों में राजसिक अहंकार की ही प्रधानता होती है, क्योंकि यह विषय वासना के फल से उत्पन्न होता है। इसी के चक्कर में पड़कर हम दिखावटी धर्म-कर्म के चक्कर में फँस जाते है। यदि हमको ऐसे बन्धन से छुटकारा पाना है तो गीता के “मा कर्मफल हेतुर्भूः” वचन को सदैव स्मरण रखना चाहिये। इसके अनुसार यदि हम अपने समस्त धर्म-कर्म का फल भगवान के चरणों में अर्पित कर देंगे तो हमारा अहंकार स्वयं ही जाता रहेगा।
तामसिक प्रवृत्ति मानसिक दुर्बलता की उत्पत्ति होती है। इसके प्रभाव से हम सदैव आलसी, सुस्त, अकर्मण्य बने रहते है, हमारा तेज क्षीण हो जाता है, और निराशा की भावना हमारे मानसिक क्षेत्र को ढक लेती है। किसी कार्य के लिये दिल में उत्साह नहीं होता। छोटे-छोटे कामों में भी भय लगता है और यही इच्छा होती है कि हम बिना कुछ उद्योग और परिश्रम के बैठे-बैठे मौज उड़ाते रहें। ऐसे लोगों में किसी उत्तम कार्य के लिये स्फूर्ति नहीं देखी जाती और वे समझते हैं कि हम में ऐसे कार्यों के लिये शक्ति और योग्यता ही नहीं है। यह अवस्था बड़ी भयंकर और पतन मार्ग पर ले जाने वाली है। ऐसी ही अवस्था वालों के लिये गीता में “मा ते संगोऽत्सव कर्मणि” और “योगस्थः कुरु कर्माणि” आदि वाक्य लिखे गये हैं। इनका आशय यही है कि अपना कल्याण चाहने वाले मनुष्य को अपने भीतर कभी अकर्मण्यता की भावना को टिकने नहीं देना चाहिये और योग युक्त होकर कर्म करते रहना चाहिये। अर्थात् प्रत्येक काम को अपना ईश्वर-प्रेरित कर्तव्य समझ कर करे, उससे क्या लाभ और क्या हानि होगी इसकी चिन्ता सर्वथा त्याग दे। केवल ‘संगत्यक्त्वा’ के उपदेश को अपना मूल-मंत्र बनाकर मोह और आसक्ति रहित भाव से कार्य करता चला जाय। भगवान की यही आज्ञा है कि कर्म करो पर उसमें आसक्त मत हो जाओ। जब तुम यह समझ लोगे कि हम जो कुछ कर रहे हैं वह भगवान की प्रेरणा से करते हैं, तो फिर हजारों विघ्न-बाधाओं के सम्मुख आने पर भी तुम घबराओगे नहीं।
सात्विक अहंकार को दूर कर सकना बड़ा कठिन होता है, क्योंकि उसका सम्बन्ध ज्ञान और आनन्द से होता है और उसकी बुराई मनुष्य को किसी प्रकार दिखलाई नहीं देती। उदाहरण के लिये अर्जुन जब शस्त्रास्त्रों से सजकर युद्ध के लिये संग्राम भूमि में आये तो अपने सम्बन्धियों, आचार्य, पितामह, भाई, भतीजों आदि को लड़ने के लिये सामने खड़े देखकर व्याकुल हो उठे और धनुष बाण को हाथ से रखकर भगवान कृष्णा से कहने लगे
गुरुन हत्वाहि महानुभावान्,
श्रेयोभोक्तूं भैक्ष्यमपीह लोके।
हस्वार्थ कामास्तु गुरुनिहैव,
भुँजाय भोगान्न् रुधिर प्रदिग्धान्॥
अर्थात्- “अपने गुरुजनों, पितामह आदि श्रेष्ठजनों की हत्या करने से तो यही अच्छा है कि भिक्षा माँगकर पेट भर लिया जाय। यदि हम इन महान पुरुषों को मारेंगे तो इसका अर्थ यह होगा कि हम उनके रक्त में सने भोगों का उपयोग कर रहे है।’ अर्जुन के इस कथन को कोई साँसारिक मनुष्य अनुचित नहीं कह सकता, वरन् इससे उसके हृदय की उदार भावना ही प्रकट होती है। आगे चल कर उसने यहाँ तक कह दिया-
यदि मामप्रतीकारमशस्त्र शस्त्र पाणयः।
धार्तराष्ट्राः राणे हन्युस्तन्में क्षेमकरम् भवेत्॥
अर्थात्- अगर मुझे युद्ध से उदासीन और निःशस्त्र देख कर दुर्योधन के पक्ष वाले आक्रमण करके मार डालें तो भी इस युद्ध से मैं उसे अपने लिये आत्म कल्याणकारी ही मानूँगा।” अर्जुन की यह भावना परम उद्धान्त होने पर भी सात्विक अहंकार थी। वह समझता था कि मेरे जैसे ज्ञान सम्पन्न और कर्तव्य परायण व्यक्ति के लिये इस स्वार्थ-प्रधान कार्य को करना बड़ा वर्हिति और अपयश करने वाला होगा। उसे इस बात का ज्ञान नहीं था कि भगवान की लीला बड़ी विचित्र होती है जिसका रहस्य बड़े से बड़े ज्ञानी भी नहीं समझ सकते। वे किसी समय मनुष्य से जान बूझ कर ऐसा कार्य भी करा डालते है जो प्रत्यक्ष में बड़ा पाप पूर्ण जान पड़ता हो। इसी लिये अन्त में भगवान को दिव्य चक्षु प्रदान करके अर्जुन का मोह और सात्विक अहंकार दूर करना पड़ा उन्होंने उसे समझा दिया कि पाप-पुण्य धर्म-अधर्म की धारणा साधारण मनुष्यों के लिये है, जो कामना या स्वार्थ की दृष्टि से कार्य करते हैं। अपने को भगवान के हाथ में देकर निष्काम भाव से कर्म करने पर पाप-पुण्य का प्रश्न ही नहीं रह जाता। भगवान और उनके सच्चे भक्त सब प्रकार के द्वन्द्वों से परे रहते है।
जिन लोगों ने अभी अध्यात्म-मार्ग पर पैर रखा है, और आत्म-समर्पण का केवल संकल्प ही किया है, उनमें इन तीनों में से कोई एक तरह का अहंकार पाया जाता है, और वही उनकी प्रगति के मार्ग में बाधक बन जाता है। जिस साधक में रजोगुण की प्रधानता होती है, वह सोचने लगता है- “हम साधक हैं- हम ने जप, तप, योग के मार्ग को अपनाया है। अन्य लोग सांसारिक माया में ही फँसे पड़े है, हम इतना आगे बढ़ जाये। हम भगवान के हाथ के एक यंत्र हो रहे है।” इस तरह के अनेक मनोभाव साधक को अहंकारी बना देते है। इसका परिणाम होता है कि जो धर्म उसकी वासना और कामना से उत्पन्न होता है उसे वह भगवान का बतलाकर उस पर आचरण करता है और बारबार असफल होकर निराश होता है। तो भी उसके मन में यह धारणा उठती है कि हम धर्माचरण कर रहे हैं और धर्म का मार्ग बाधा, विपत्ति और कंटकाकीर्ण होता ही है, इससे हमको सब कुछ सहन करते हुये परिश्रम से काम करना चाहिये। इस भाव से प्रेरित होकर वह और भी तल्लीनता से काम करने लगाता है। वह जब काम करने लगता है तब सोचता है कि हमारे हृदय में प्रविष्ट होकर भगवान ही यह काम करा रहे है, हमारा इसमें कोई हाथ नहीं पर ये सब उसके ऊपरी मन की बातें होती है। उसके भीतरी मन से उस काम को पूर्ण करने का अनुराग बहुत अधिक रहता है और उसके पूर्ण न होने से उसे बड़ा दुःख भी होता है। इस लिये अध्यात्म और योग के पथिक को अपने मन में सदैव यही भाव धारण करना होगा कि भगवान सब के हृदय में विराजमान है और समस्त अभिलाषाओं को त्याग कर उनकी लीला पर लक्ष्य रखना ही हमारा ध्येय है। जब तक भगवान स्वयं ज्ञान-दीप को जला कर अर्न्तहृदय के सम्पूर्ण तम का नाश न करेंगे तब तक साधक के मोह रूपी अंधकार में फँस जाने की पूर्ण संभावना है।
जिस साधक में तमोगुण की प्रधानता रहती है उसे अन्य प्रकार की विपत्तियों में फँसना पड़ता है। सबसे पहले साधक के हृदय में ऐसा विचार उठता है कि - “मैं दुर्बल, पापी, घृणित, अज्ञानी, अकर्मण्य हूँ। मैं जिस किसी को देखता हूँ वह सभी मुझ से ऊँचे जान पड़ते हैं। मैं सबसे नीच हूँ। भगवान को हमारे जैसों की आवश्यकता नहीं भगवान मुझे शरण में लेकर क्या करेंगे” आदि आदि। पर कुछ साधन भजन करने से उसे कुछ शांति मिल गई तो वह सोचने लगता है- “चलो सारा झंझट मिट गया, मुझे शांति तो प्राप्त हो गई, अब इससे ज्यादा क्या करना है।” इस प्रकार विचार करके वह सब तरह के कर्मों से मुँह मोड़ कर आनन्द करना ही अपना लक्ष्य बना लेता है। ऐसे साधक को यह समझना चाहिये कि वह भी परब्रह्म का अंश है और आदि शक्ति ही उसके हृदय में अवस्थान करके समस्त कार्यों का संचालन करती है। सर्वशक्तिमान भगवान की लीला तरह-तरह की होती है। किसी एक लीला को ही सब कुछ समझकर उदासीन होकर बैठ जाना साधक के लिये प्रशंसनीय नहीं है। उसे भगवान के इस वचन पर ध्यान देना चाहिये-
न मे पार्थोऽस्ति कर्तव्यं त्रिषुलोकेषु किंचन।
नानावाप्तमवाप्तव्यं वर्त्त एं च कर्मणि॥
अर्थात्- “मुझे इस संसार में कोई वस्तु या कार्य अप्राप्त नहीं है तो भी मैं सदा काम में लगा रहता हूँ।” क्योंकि साधारण लोगों को उचित मार्ग दिखलाने के लिये वैसा करना परमावश्यक है।
सात्विक अहंकार वाला साधक अपनी बुद्धि के अनुसार किसी एक तरफ झुक पड़ता है। वह किसी एक निर्दिष्ट साधन पद्धति को अंगीकार करके उसकी सिद्धि में तन्मय हो जाता है। दया या परोपकार आदि किसी एक सिद्धि के मार्ग को ग्रहण करके अपने चित्त की प्रवृत्ति के अनुसार उसकी साधना में जो संतोष उसे मिलता है उसी से वह संतुष्ट रहने लगता है। साधक का सात्विक-अहंकार जिसे श्रेयस्कर बतलाता है उसी को वह ग्रहण करता है और दूसरी तरफ निगाह उठाकर भी नहीं देखता।
हमको सदा यह बात मन में समझते रहना चाहिये कि साधन का अभिप्राय अपने व्यक्तिगत जीवन को लाभ पहुँचाना नहीं है। ये वस्तुएँ यद्यपि सिद्धि के अंग है, तथापि से पूर्ण सिद्धि नहीं है। पूर्ण योग का साधक पहले से ही अपने मन में यह निश्चय कर लेता है कि मैं किसी वस्तु के लिये भगवान से प्रार्थना नहीं करूँगा जो कुछ वह देगा उसे ही हृदय में बिना किसी प्रकार का दुर्भाव लाये स्वीकार कर लूँगा। यदि आप आनन्द की बात पूछे, तो मैं कहता हूँ कि इससे बढ़कर आनन्ददायक बात और कौन सी हो सकती है कि हमने अपना सर्वस्व भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया है। जब हम इस बात को स्वीकार करते है कि भगवान की प्रत्येक लीला आनन्दयुक्त है, तो हमको आधार बनाकर वह जो लीला करता है उसी में हमें आनन्द मानना चाहिये।
सात्विक अहंकार के रहते हुए भी साधना पूर्ण नहीं हो सकती। इसलिये योगों को पूर्णता प्राप्त करने के निमित्त उसका भी परित्याग करना होगा। सब धर्मों में मुक्ति, निर्वाण आदि को साधना का अन्तिम लक्ष्य बतलाया है, पर पूर्ण योग के साधक को इस लक्ष्य को भी त्याग देना होगा। साधक को बिना किसी भी भली बुरी अभिलाषा के केवल भगवान के रूप और उसकी लीला का ही ध्यान करना होगा इसी से वह सच्चे आनन्द का अधिकारी बन सकता है।
तामसिक प्रवृत्ति मानसिक दुर्बलता की उत्पत्ति होती है। इसके प्रभाव से हम सदैव आलसी, सुस्त, अकर्मण्य बने रहते है, हमारा तेज क्षीण हो जाता है, और निराशा की भावना हमारे मानसिक क्षेत्र को ढक लेती है। किसी कार्य के लिये दिल में उत्साह नहीं होता। छोटे-छोटे कामों में भी भय लगता है और यही इच्छा होती है कि हम बिना कुछ उद्योग और परिश्रम के बैठे-बैठे मौज उड़ाते रहें। ऐसे लोगों में किसी उत्तम कार्य के लिये स्फूर्ति नहीं देखी जाती और वे समझते हैं कि हम में ऐसे कार्यों के लिये शक्ति और योग्यता ही नहीं है। यह अवस्था बड़ी भयंकर और पतन मार्ग पर ले जाने वाली है। ऐसी ही अवस्था वालों के लिये गीता में “मा ते संगोऽत्सव कर्मणि” और “योगस्थः कुरु कर्माणि” आदि वाक्य लिखे गये हैं। इनका आशय यही है कि अपना कल्याण चाहने वाले मनुष्य को अपने भीतर कभी अकर्मण्यता की भावना को टिकने नहीं देना चाहिये और योग युक्त होकर कर्म करते रहना चाहिये। अर्थात् प्रत्येक काम को अपना ईश्वर-प्रेरित कर्तव्य समझ कर करे, उससे क्या लाभ और क्या हानि होगी इसकी चिन्ता सर्वथा त्याग दे। केवल ‘संगत्यक्त्वा’ के उपदेश को अपना मूल-मंत्र बनाकर मोह और आसक्ति रहित भाव से कार्य करता चला जाय। भगवान की यही आज्ञा है कि कर्म करो पर उसमें आसक्त मत हो जाओ। जब तुम यह समझ लोगे कि हम जो कुछ कर रहे हैं वह भगवान की प्रेरणा से करते हैं, तो फिर हजारों विघ्न-बाधाओं के सम्मुख आने पर भी तुम घबराओगे नहीं।
सात्विक अहंकार को दूर कर सकना बड़ा कठिन होता है, क्योंकि उसका सम्बन्ध ज्ञान और आनन्द से होता है और उसकी बुराई मनुष्य को किसी प्रकार दिखलाई नहीं देती। उदाहरण के लिये अर्जुन जब शस्त्रास्त्रों से सजकर युद्ध के लिये संग्राम भूमि में आये तो अपने सम्बन्धियों, आचार्य, पितामह, भाई, भतीजों आदि को लड़ने के लिये सामने खड़े देखकर व्याकुल हो उठे और धनुष बाण को हाथ से रखकर भगवान कृष्णा से कहने लगे
गुरुन हत्वाहि महानुभावान्,
श्रेयोभोक्तूं भैक्ष्यमपीह लोके।
हस्वार्थ कामास्तु गुरुनिहैव,
भुँजाय भोगान्न् रुधिर प्रदिग्धान्॥
अर्थात्- “अपने गुरुजनों, पितामह आदि श्रेष्ठजनों की हत्या करने से तो यही अच्छा है कि भिक्षा माँगकर पेट भर लिया जाय। यदि हम इन महान पुरुषों को मारेंगे तो इसका अर्थ यह होगा कि हम उनके रक्त में सने भोगों का उपयोग कर रहे है।’ अर्जुन के इस कथन को कोई साँसारिक मनुष्य अनुचित नहीं कह सकता, वरन् इससे उसके हृदय की उदार भावना ही प्रकट होती है। आगे चल कर उसने यहाँ तक कह दिया-
यदि मामप्रतीकारमशस्त्र शस्त्र पाणयः।
धार्तराष्ट्राः राणे हन्युस्तन्में क्षेमकरम् भवेत्॥
अर्थात्- अगर मुझे युद्ध से उदासीन और निःशस्त्र देख कर दुर्योधन के पक्ष वाले आक्रमण करके मार डालें तो भी इस युद्ध से मैं उसे अपने लिये आत्म कल्याणकारी ही मानूँगा।” अर्जुन की यह भावना परम उद्धान्त होने पर भी सात्विक अहंकार थी। वह समझता था कि मेरे जैसे ज्ञान सम्पन्न और कर्तव्य परायण व्यक्ति के लिये इस स्वार्थ-प्रधान कार्य को करना बड़ा वर्हिति और अपयश करने वाला होगा। उसे इस बात का ज्ञान नहीं था कि भगवान की लीला बड़ी विचित्र होती है जिसका रहस्य बड़े से बड़े ज्ञानी भी नहीं समझ सकते। वे किसी समय मनुष्य से जान बूझ कर ऐसा कार्य भी करा डालते है जो प्रत्यक्ष में बड़ा पाप पूर्ण जान पड़ता हो। इसी लिये अन्त में भगवान को दिव्य चक्षु प्रदान करके अर्जुन का मोह और सात्विक अहंकार दूर करना पड़ा उन्होंने उसे समझा दिया कि पाप-पुण्य धर्म-अधर्म की धारणा साधारण मनुष्यों के लिये है, जो कामना या स्वार्थ की दृष्टि से कार्य करते हैं। अपने को भगवान के हाथ में देकर निष्काम भाव से कर्म करने पर पाप-पुण्य का प्रश्न ही नहीं रह जाता। भगवान और उनके सच्चे भक्त सब प्रकार के द्वन्द्वों से परे रहते है।
जिन लोगों ने अभी अध्यात्म-मार्ग पर पैर रखा है, और आत्म-समर्पण का केवल संकल्प ही किया है, उनमें इन तीनों में से कोई एक तरह का अहंकार पाया जाता है, और वही उनकी प्रगति के मार्ग में बाधक बन जाता है। जिस साधक में रजोगुण की प्रधानता होती है, वह सोचने लगता है- “हम साधक हैं- हम ने जप, तप, योग के मार्ग को अपनाया है। अन्य लोग सांसारिक माया में ही फँसे पड़े है, हम इतना आगे बढ़ जाये। हम भगवान के हाथ के एक यंत्र हो रहे है।” इस तरह के अनेक मनोभाव साधक को अहंकारी बना देते है। इसका परिणाम होता है कि जो धर्म उसकी वासना और कामना से उत्पन्न होता है उसे वह भगवान का बतलाकर उस पर आचरण करता है और बारबार असफल होकर निराश होता है। तो भी उसके मन में यह धारणा उठती है कि हम धर्माचरण कर रहे हैं और धर्म का मार्ग बाधा, विपत्ति और कंटकाकीर्ण होता ही है, इससे हमको सब कुछ सहन करते हुये परिश्रम से काम करना चाहिये। इस भाव से प्रेरित होकर वह और भी तल्लीनता से काम करने लगाता है। वह जब काम करने लगता है तब सोचता है कि हमारे हृदय में प्रविष्ट होकर भगवान ही यह काम करा रहे है, हमारा इसमें कोई हाथ नहीं पर ये सब उसके ऊपरी मन की बातें होती है। उसके भीतरी मन से उस काम को पूर्ण करने का अनुराग बहुत अधिक रहता है और उसके पूर्ण न होने से उसे बड़ा दुःख भी होता है। इस लिये अध्यात्म और योग के पथिक को अपने मन में सदैव यही भाव धारण करना होगा कि भगवान सब के हृदय में विराजमान है और समस्त अभिलाषाओं को त्याग कर उनकी लीला पर लक्ष्य रखना ही हमारा ध्येय है। जब तक भगवान स्वयं ज्ञान-दीप को जला कर अर्न्तहृदय के सम्पूर्ण तम का नाश न करेंगे तब तक साधक के मोह रूपी अंधकार में फँस जाने की पूर्ण संभावना है।
जिस साधक में तमोगुण की प्रधानता रहती है उसे अन्य प्रकार की विपत्तियों में फँसना पड़ता है। सबसे पहले साधक के हृदय में ऐसा विचार उठता है कि - “मैं दुर्बल, पापी, घृणित, अज्ञानी, अकर्मण्य हूँ। मैं जिस किसी को देखता हूँ वह सभी मुझ से ऊँचे जान पड़ते हैं। मैं सबसे नीच हूँ। भगवान को हमारे जैसों की आवश्यकता नहीं भगवान मुझे शरण में लेकर क्या करेंगे” आदि आदि। पर कुछ साधन भजन करने से उसे कुछ शांति मिल गई तो वह सोचने लगता है- “चलो सारा झंझट मिट गया, मुझे शांति तो प्राप्त हो गई, अब इससे ज्यादा क्या करना है।” इस प्रकार विचार करके वह सब तरह के कर्मों से मुँह मोड़ कर आनन्द करना ही अपना लक्ष्य बना लेता है। ऐसे साधक को यह समझना चाहिये कि वह भी परब्रह्म का अंश है और आदि शक्ति ही उसके हृदय में अवस्थान करके समस्त कार्यों का संचालन करती है। सर्वशक्तिमान भगवान की लीला तरह-तरह की होती है। किसी एक लीला को ही सब कुछ समझकर उदासीन होकर बैठ जाना साधक के लिये प्रशंसनीय नहीं है। उसे भगवान के इस वचन पर ध्यान देना चाहिये-
न मे पार्थोऽस्ति कर्तव्यं त्रिषुलोकेषु किंचन।
नानावाप्तमवाप्तव्यं वर्त्त एं च कर्मणि॥
अर्थात्- “मुझे इस संसार में कोई वस्तु या कार्य अप्राप्त नहीं है तो भी मैं सदा काम में लगा रहता हूँ।” क्योंकि साधारण लोगों को उचित मार्ग दिखलाने के लिये वैसा करना परमावश्यक है।
सात्विक अहंकार वाला साधक अपनी बुद्धि के अनुसार किसी एक तरफ झुक पड़ता है। वह किसी एक निर्दिष्ट साधन पद्धति को अंगीकार करके उसकी सिद्धि में तन्मय हो जाता है। दया या परोपकार आदि किसी एक सिद्धि के मार्ग को ग्रहण करके अपने चित्त की प्रवृत्ति के अनुसार उसकी साधना में जो संतोष उसे मिलता है उसी से वह संतुष्ट रहने लगता है। साधक का सात्विक-अहंकार जिसे श्रेयस्कर बतलाता है उसी को वह ग्रहण करता है और दूसरी तरफ निगाह उठाकर भी नहीं देखता।
हमको सदा यह बात मन में समझते रहना चाहिये कि साधन का अभिप्राय अपने व्यक्तिगत जीवन को लाभ पहुँचाना नहीं है। ये वस्तुएँ यद्यपि सिद्धि के अंग है, तथापि से पूर्ण सिद्धि नहीं है। पूर्ण योग का साधक पहले से ही अपने मन में यह निश्चय कर लेता है कि मैं किसी वस्तु के लिये भगवान से प्रार्थना नहीं करूँगा जो कुछ वह देगा उसे ही हृदय में बिना किसी प्रकार का दुर्भाव लाये स्वीकार कर लूँगा। यदि आप आनन्द की बात पूछे, तो मैं कहता हूँ कि इससे बढ़कर आनन्ददायक बात और कौन सी हो सकती है कि हमने अपना सर्वस्व भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया है। जब हम इस बात को स्वीकार करते है कि भगवान की प्रत्येक लीला आनन्दयुक्त है, तो हमको आधार बनाकर वह जो लीला करता है उसी में हमें आनन्द मानना चाहिये।
सात्विक अहंकार के रहते हुए भी साधना पूर्ण नहीं हो सकती। इसलिये योगों को पूर्णता प्राप्त करने के निमित्त उसका भी परित्याग करना होगा। सब धर्मों में मुक्ति, निर्वाण आदि को साधना का अन्तिम लक्ष्य बतलाया है, पर पूर्ण योग के साधक को इस लक्ष्य को भी त्याग देना होगा। साधक को बिना किसी भी भली बुरी अभिलाषा के केवल भगवान के रूप और उसकी लीला का ही ध्यान करना होगा इसी से वह सच्चे आनन्द का अधिकारी बन सकता है।
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