============================================================संक्षिप्त.विवरण
कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है, जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।
योग
योगरन्धितकर्माणो ह्रदि योगविभाविते ।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम् ॥
- श्रीमद्भाग ०८ . ३ . २७
योग के द्वारा कर्म , कर्म वासना और कर्मफल को भस्म करके योगी जन योग से विशुद्ध अपने ह्रदय में जिन योगेश्वर भगवान् का दर्शन करते हैं । उन्हें मैं प्रणाम करता हूँ ।
पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभूस्तस्मात्पराङ् पश्यति नान्तरात्मन् ।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ॥
कठोपनिषद् २ .१ .१
समस्त जन संसार में स्वभावतः बहिर्मुख ही उत्पन्न होते हैं । उनमें कोई विरला योगी ही अमृतत्व की कामना से अन्तर्मुख होकर प्रत्यगात्मा को देखता है ।
ओंकार का जप और तेज का ध्यान ही शब्दब्रह्म की उपासना है । इस लोक में दो प्रकार के शब्द सुने जाते हैं , एक नित्य तथा दूसरा कार्यरुप अनित्य । जो शब्द सुना जाता है या उच्चरित होता हैं , वह लोक व्यवहार के लिए प्रवृत्त वैखरी रुप कार्यात्मक अनित्य है । पश्यन्ती रुप शब्द ब्रह्मात्मक बिम्ब के ही वर्ण (मात्रुकाएँ ), पद और वाक्य प्रतिबिम्ब हैं । पश्यन्ति रुप नित्य शब्दात्मा समस्त साध्य साधनात्मक पद और पदार्थ भेद रुप व्यवहार का उपादान कारण है । अकार ककारादि क्रम का वहाँ उपसंहार हो जाता है । अतः समस्त कर्मों का आश्रय , सुख -दुःख का अधिष्ठान , घट के भीतर रखे हुए दीपक के प्रकाश की भाँति भोगायतन शरीर मात्र का प्रकाशक ‘शब्दब्रह्म ’ उच्चारण करने वाले जनों के ह्रदय में विद्यमान रहता है । योगी उसी शब्द तत्त्व स्वरुप महानात्मा के साथ ऐक्य लाभ करता हुआ वैकरण्य (लय ) को प्राप्त करता है ।
नाद्योग में साधक दक्षिणकर्ण में ‘अनाहत ’ को सुनता है । अभ्यास करने पर क्रमशः घण्टा -वादन , मेघ -गर्जन एवं तालवादन आदि दस प्रकार के नाद सुनायी पडते हैं । अन्तिम नाद ओंकार है , उसी में मन का लय करना चाहिए । तभी स्वरुपस्थिति प्राप्त होती है । ऐसा ही नादबिन्दूपनिषद् में कहा भी है --
सिद्धासने स्थितो योगी मुद्रां सन्धाय वैष्णवीम् ।
श्रुणुयाद् दक्षिणे कर्णे नादमन्तर्गतं सदा ॥
हठयोगप्रदीपिका (४ . २९ , ८३ . ५९ ) में कहा गया है कि ---
इन्दियाणां मनोनाथो मनोनाथस्तु मारुतः ।
मारुतस्य लयो नाथः स लयो नादमाश्रितः ॥
अभ्यस्यमानो नादोऽयं ब्राह्ममावृणुते ध्वनिम् ।
पश्चाद् विक्षेपमखिलं जित्वा योगी सुखी भवेत् ॥
कर्पूरमनले यद्वषत् सैन्धवं सलिले यथा ।
तथा संघीयमानं च मनस्तत्त्वे विलियते ॥
यह लय योग ही कुण्डलिनी योग के नाम से प्रसिद्ध है ---
लयक्रिया साधनेन सुप्ता सा कुलकुण्डली ।
प्रबुद्ध्य तस्मिन् पुरुषे लीयते नात्र संशयः ॥
शिवत्वमाप्नोति तया सह्रदयस्य साधकः ।
यह कुण्डलिनी योग इस प्रकार से जाना जाता है ---शरीर में मेरुदण्ड के नीचे ‘मूलाधार ’ के नाम से प्रसिद्ध एक कन्द है । बहत्तर हजार नाडियाँ उससे निकलकर सम्पूर्ण देह में व्याप्त रहती हैं । उनमें इडा , पिङुला और सुषुम्ना नामक तीन नाडियाँ मुख्य हैं । मेरुदण्ड के वामभाग में चन्द्ररुपिणी इडा का , दक्षिण भाग में सूर्यरुपिणी पिङुला का और मध्य छिद्र में सुषुम्ना का मार्ग है । भ्रूमध्य में संगम प्राप्त करके ये नाडियाँ सिर में ब्रह्मान्ध्रपर्यन्त जाती है । मूलाधार में महाशक्ति कुलकुण्डलिनी सोती रहती है । ध्यान और जप आदि से उसे जगाकर सहस्त्रार चक्र (मस्तिष्क ) में विराजमान परमेश्वर में लीन करना ही लय योग या कुण्डलिनी योग है । सम्पूर्ण रुद्रयामल के ९० अध्यायों में इन्हीं महाशक्ति कुलकुण्डलिनी के जागरण की प्रक्रिया का साङोपाङ दिग्दर्शन परिलक्षित होता है ।
योग
योगरन्धितकर्माणो ह्रदि योगविभाविते ।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम् ॥
- श्रीमद्भाग ०८ . ३ . २७
योग के द्वारा कर्म , कर्म वासना और कर्मफल को भस्म करके योगी जन योग से विशुद्ध अपने ह्रदय में जिन योगेश्वर भगवान् का दर्शन करते हैं । उन्हें मैं प्रणाम करता हूँ ।
पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभूस्तस्मात्पराङ् पश्यति नान्तरात्मन् ।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ॥
कठोपनिषद् २ .१ .१
समस्त जन संसार में स्वभावतः बहिर्मुख ही उत्पन्न होते हैं । उनमें कोई विरला योगी ही अमृतत्व की कामना से अन्तर्मुख होकर प्रत्यगात्मा को देखता है ।
ओंकार का जप और तेज का ध्यान ही शब्दब्रह्म की उपासना है । इस लोक में दो प्रकार के शब्द सुने जाते हैं , एक नित्य तथा दूसरा कार्यरुप अनित्य । जो शब्द सुना जाता है या उच्चरित होता हैं , वह लोक व्यवहार के लिए प्रवृत्त वैखरी रुप कार्यात्मक अनित्य है । पश्यन्ती रुप शब्द ब्रह्मात्मक बिम्ब के ही वर्ण (मात्रुकाएँ ), पद और वाक्य प्रतिबिम्ब हैं । पश्यन्ति रुप नित्य शब्दात्मा समस्त साध्य साधनात्मक पद और पदार्थ भेद रुप व्यवहार का उपादान कारण है । अकार ककारादि क्रम का वहाँ उपसंहार हो जाता है । अतः समस्त कर्मों का आश्रय , सुख -दुःख का अधिष्ठान , घट के भीतर रखे हुए दीपक के प्रकाश की भाँति भोगायतन शरीर मात्र का प्रकाशक ‘शब्दब्रह्म ’ उच्चारण करने वाले जनों के ह्रदय में विद्यमान रहता है । योगी उसी शब्द तत्त्व स्वरुप महानात्मा के साथ ऐक्य लाभ करता हुआ वैकरण्य (लय ) को प्राप्त करता है ।
नाद्योग में साधक दक्षिणकर्ण में ‘अनाहत ’ को सुनता है । अभ्यास करने पर क्रमशः घण्टा -वादन , मेघ -गर्जन एवं तालवादन आदि दस प्रकार के नाद सुनायी पडते हैं । अन्तिम नाद ओंकार है , उसी में मन का लय करना चाहिए । तभी स्वरुपस्थिति प्राप्त होती है । ऐसा ही नादबिन्दूपनिषद् में कहा भी है --
सिद्धासने स्थितो योगी मुद्रां सन्धाय वैष्णवीम् ।
श्रुणुयाद् दक्षिणे कर्णे नादमन्तर्गतं सदा ॥
हठयोगप्रदीपिका (४ . २९ , ८३ . ५९ ) में कहा गया है कि ---
इन्दियाणां मनोनाथो मनोनाथस्तु मारुतः ।
मारुतस्य लयो नाथः स लयो नादमाश्रितः ॥
अभ्यस्यमानो नादोऽयं ब्राह्ममावृणुते ध्वनिम् ।
पश्चाद् विक्षेपमखिलं जित्वा योगी सुखी भवेत् ॥
कर्पूरमनले यद्वषत् सैन्धवं सलिले यथा ।
तथा संघीयमानं च मनस्तत्त्वे विलियते ॥
यह लय योग ही कुण्डलिनी योग के नाम से प्रसिद्ध है ---
लयक्रिया साधनेन सुप्ता सा कुलकुण्डली ।
प्रबुद्ध्य तस्मिन् पुरुषे लीयते नात्र संशयः ॥
शिवत्वमाप्नोति तया सह्रदयस्य साधकः ।
यह कुण्डलिनी योग इस प्रकार से जाना जाता है ---शरीर में मेरुदण्ड के नीचे ‘मूलाधार ’ के नाम से प्रसिद्ध एक कन्द है । बहत्तर हजार नाडियाँ उससे निकलकर सम्पूर्ण देह में व्याप्त रहती हैं । उनमें इडा , पिङुला और सुषुम्ना नामक तीन नाडियाँ मुख्य हैं । मेरुदण्ड के वामभाग में चन्द्ररुपिणी इडा का , दक्षिण भाग में सूर्यरुपिणी पिङुला का और मध्य छिद्र में सुषुम्ना का मार्ग है । भ्रूमध्य में संगम प्राप्त करके ये नाडियाँ सिर में ब्रह्मान्ध्रपर्यन्त जाती है । मूलाधार में महाशक्ति कुलकुण्डलिनी सोती रहती है । ध्यान और जप आदि से उसे जगाकर सहस्त्रार चक्र (मस्तिष्क ) में विराजमान परमेश्वर में लीन करना ही लय योग या कुण्डलिनी योग है । सम्पूर्ण रुद्रयामल के ९० अध्यायों में इन्हीं महाशक्ति कुलकुण्डलिनी के जागरण की प्रक्रिया का साङोपाङ दिग्दर्शन परिलक्षित होता है ।
क्रमाशा:
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