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Wednesday, January 21, 2015

~ शिव महिम्न: स्तोत्रम ~



~ शिव महिम्न: स्तोत्रम ~
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शिव भक्तों का एक प्रिय मंत्र है | ४३
छन्दों के इस स्तोत्र में शिव के दिव्य स्वरूप
एवं उनकी सादगी का वर्णन है ।
स्तोत्र का सृजन एक अनोखे असाधारण
परिपेक्ष में किया गया था तथा शिव
को प्रसन्न कर के उनसे
क्षमा प्राप्ति की गई थी |
कथा कुछ इस प्रकार के है …
एक समय में चित्ररथ नाम का राजा था|
वो परं शिव भक्त था| उसने एक अद्भुत सुंदर
बागा का निर्माण करवाया| जिसमे
विभिन्न प्रकार के पुष्प लगे थे | प्रत्येक
दिन राजा उन पुष्पों से शिव
जी की पूजा करते थे |
फिर एक दिन …
पुष्पदंत नामक के गन्धर्व उस राजा के
उद्यान की तरफ से जा रहा था| उद्यान
की सुंदरता ने उसे आकृष्ट कर लिया| मोहित
पुष्पदंत ने बाग के पुष्पों को चुरा लिया|
अगले दिन चित्ररथ को पूजा हेतु पुष्प
प्राप्त नहीं हुए |
पर ये तो आरम्भ मात्र था …
बाग के सौंदर्य से मुग्ध पुष्पदंत प्रत्यक
दिन पुष्प की चोरी करने लगा| इस रहश्य
को सुलझाने के राजा के प्रत्येक प्रयास
विफल रहे| पुष्पदंत अपने
दिव्या शक्तियों के कारण अदृश्य
बना रहा |
और फिर …
राजा चित्ररथ ने एक अनोखा समाधान
निकाला| उन्होंने शिव को अर्पित पुष्प
एवं विल्व पत्र बाग में बिछा दिया|
रजा के उपाय से अनजान पुष्पदंत ने उन
पुष्पों को अपने पेरो से कुचल दिया| फिर
क्या था| इससे पुष्पा दंत
की दिव्या शक्तिओं का क्षय हो गया|
तब…
पुष्पदंत स्वयं भी शिव भक्त था |
अपनी गलती का बोध होने परा उसने इस
परम स्तोत्र के रचना की जिससे प्रसन्न
हो महादेव ने उसकी भूल
को क्षमा करा पुष्पदंत के दिव्या स्वरूप
को पुनः प्रदान किया |
महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी
स्तुतिर्ब्रह्मा
दीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः .
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावध
ि गृणन्
ममाप्येष स्तोत्रे हर
निरपवादः परिकरः .. १..
हे हर !!! आप प्राणी मात्र के
कष्टों को हराने वाले हैं| मैं इस स्तोत्र
द्वारा आपकी वंदना करा रहा हूँ
जो कदाचित आपके वंदना के योग्य न
भी हो| पर हे महादेव स्वयं ब्रह्मा और
अन्य देवगण भी आपके चरित्र की पूर्ण
गुणगान करने में सक्षम नहीं हैं| जिस प्रकार
एक पक्षी अपनी क्षमता के अनुसार
ही आसमान में उड़ान भर सकता है
उसी प्रकार मैं भे अपने
यथा शक्ति आपकी आराधना करता हूँ |
अतीतः पंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः
अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते
श्रुतिरपि .
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य
विषयः
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न
वचः .. २..
हे शिव !!! आपकी व्याख्या न तो मन
ना ही वचन द्वारा ही संभव है| आपके
सन्दर्भ में वेदा भी अचंभित हैं
तथा नेति नेति का प्रयोग करते हैं अर्थात
ये भी नहीं और वो भी नहीं| आपका संपूर्ण
गुणगान भला कौन करा सकता है? ये जानते
हुए भी की आप आदि अंत रहित
परमात्मा का गुणगान कठिन है मैं
आपका वंदन करता हूँ |
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः
तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मय
पदम् .
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः
पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन
बुद्धिर्व्यवसिता .. ३..
हे वेद और भाषा के सृजक जब स्वयं देवगुरु
बृहस्पति भी आपके स्वरूप की व्याख्या करने
में असमर्थ हैं तो फिर मेरा कहना ही क्या?
हे त्रिपुरारी, अपने सिमित
क्षमता का बोध होते हुए भे मैं इस विशवास
से इस स्तोत्र की रचना करा रहा हूँ के
इससे मेरे वाने शुद्ध होगी तथा मेरे
बुद्धी का विकास होगा |
तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्
त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु
तनुषु .
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं
विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके
जडधियः .. ४..
हे देव, आप ही इस संसार के सृजक,
पालनकर्ता एवं विलयकर्ता हैं| तीनों वेद
आपके ही सहिंता गाते हैं, तीनों गुण (सतो-
रजो-तमो) आपसे हे प्रकाशित हैं|
आपकी ही शक्ति त्रिदेवों में निहित है|
इसके बाद भी कुछ मूढ़
प्राणी आपका उपहास करते हैं तथा आपके
बारे भ्रम फ़ैलाने का प्रयास करते हैं
जो की सर्वथा अनुचित है |
किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभु
वनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान
इति च .
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर
दुःस्थो हतधियः
कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय
जगतः .. ५..
हे महादेव !!! वो मूढ़ प्राणी जो स्वयं
ही भ्रमित हैं इस प्रकार से तर्क-वितर्क
द्वारा आपके अस्तित्व को चुनौती देने
की कोशिश करते हैं| वो कहते हैं कि अगर
कोई परं पुरुष है तो उसके क्या गुण हैं ?
वो कैसा दिखता है ? उसके क्या साधन हैं ?
वो इस सृष्टि को किस प्रकार धारण
करता है ? ये प्रश्न वास्तव में भ्रामक
मात्र हैं | वेद ने भी स्पष्ट किया है
की तर्क
द्वारा आपको नहीं जाना जा सकता |
अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां
अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य
भवति .
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो
यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे ..
६..
हे परमपिता !!! इस सृष्टि में सात लोक हैं
(भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक,
सत्यलोक,महर्लोक, जनलोक, एवं तपलोक)|
इनका सृजन भला सृजक (आपके) के बिना कैसे
संभव हो सका ? ये किस प्रकार से और किस
साधन से निर्मित हुए ? तात्पर्य हे की आप
पर संसय का कोइ तर्क भी नहीं हो सकता |
त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं
वैष्णवमिति
प्रभिन्ने प्रस्थाने
परमिदमदः पथ्यमिति च .
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ..
७..
विवध प्राणी सत्य तक पहुचने के लिय
विभिन्न वेद पद्धतियों का अनुसरण करते हैं
| पर जिस प्रकार सभी नदी अंतत: सागर में
समाहित हो जाती है ठीक उसी प्रकार
हरा मार्ग आप तक ही पहुंचता है |
महोक्षः खट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम् .
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु
भवद्भूप्रणिहितां
न हि स्वात्मारामं
विषयमृगतृष्णा भ्रमयति .. ८..
हे शिव !!! आपके भृकुटी के इशारे मात्र से
सभी देवगण एश्वर्य एवं संपदाओं का भोग
करते हैं| पर आपके स्वयं के लिए सिर्फ बैल
(नंदी), कपाल, बाघम्बर, त्रिशुल, कपाल एवं
नाग्माला एवं भष्म मात्र है| अगर कोई
संशय करे कि अगर आप देवों के असीम एश्वर्य
के श्रोत हैं तो आप स्वयं उन
ऐश्वर्यों का भोग क्यों नहीं करते तो इस
प्रश्न का उत्तर सहज ही है| आप
इच्छा रहित हीं तथा स्वयं में ही स्थित
रहते हैं |
ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं
परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये
जगति गदति व्यस्तविषये .
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव
स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु
धृष्टा मुखरता .. ९..
हे त्रिपुरहंता !!! इस संसारा के बारे में
विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न
माता हैं. कोई इसे नित्य जानता है
तो कोई इसे अनित्य समझता है| अन्य इसे
नित्यानित्य बताते हीं. इन विभिन्न
मतों के कारण मेरी बुध्दि भ्रमित होती है
पर मेरी भक्ति आप में और दृढ
होती जा रही है |
तवैश्वर्यं यत्नाद्
यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः
परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश
यत्
स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न
फलति .. १०..
एक समय आपके पूर्ण स्वरूप का भेद जानने हेतु
ब्रह्मा एवं विष्णु क्रमश: उपर एवं नीचे
की दिशा में गए| पर उनके सारे प्रयास
विफल हुए| जब उन्होंने भक्ति मार्ग
अपनाया तभी आपको जान पाए|
क्या आपकी भक्ति कभी विफल
हो सकती है?
अयत्नादासाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं
दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान् .
शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः
स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर
विस्फूर्जितमिदम् .. ११..
हे त्रिपुरान्तक !!! दशानन रावण किस
प्रकार विश्व को शत्रु विहीन कर सका ?
उसके महाबाहू हर पल युद्ध के लिए व्यग्र
रहे | हे प्रभु ! रावण ने भक्तिवश अपने
ही शीश को काट-काट कर आपके चरण
कमलों में अर्पित कर दिया, ये
उसी भक्ति का प्रभाव था |
अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं
बलात्
कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः .
अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि
प्रतिष्ठा त्वय्यासीद्
ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः .. १२..
हे शिव !!! एक समय उसी रावण ने मद् में चूर
आपके कैलाश को उठाने की धृष्टता करने
की भूल की| हे महादेव आपने अपने सहज पाँव
के अंगूठे मात्र से उसे दबा दिया| फिर
क्या था रावण कष्ट में रूदन करा उठा|
वेदना ने पटल लोक में
भी उसका पीछा नहीं छोड़ा|
अंततः आपकी शरणागति के बाद ही वह
मुक्त हो सका |
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं
अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः .
न तच्चित्रं तस्मिन्
वरिवसितरि त्वच्चरणयोः
न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनत
िः .. १३..
हे शम्भो !!! आपकी कृपा मात्र से
ही बाणासुर दानव इन्द्रादि देवों से
भी अधिक अश्वर्यशाली बन
सका ताता तीनो लोकों पर राज्य किया|
हे ईश्वर आपकी भक्ति से क्या कुछ संभव
नहीं है?
अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा
विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं
संहृतवतः .
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो
विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भङ्ग-व्
यसनिनः .. १४..
देवताओं एव असुरों ने अमृत प्राप्ति हेतु
समुन्द्र मंथन किया| समुद्र से आने मूल्यवान
वस्तुएँ परात्प हुईं जो देव तथा दानवों ने
आपस में बाट लिया| परा जब समुन्द्र से
अत्यधिक भयावह कालकूट विष प्रगट हुआ
तो असमय ही सृष्टी समाप्त होने का भय
उत्पन्न हो गया और सभी भयभीत हो गए|
हे हर तब आपने संसार रक्षार्थ विषपान
कर लिया| वह विष आपके कंठ में निस्किर्य
हो कर पड़ा है| विष के प्रभाव से आपका कंठ
नीला पड़ गया| हे नीलकंठ आश्चर्य ही है
की ये
विकृति भी आपकी शोभा ही बदती है|
कल्याण कार्य सुन्दर ही होता है|
असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे
निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य
विशिखाः .
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्
स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु
पथ्यः परिभवः .. १५..
हे प्रभु !!! कामदेव के वार से कभी कोई
भी नहीं बच सका चाहे वो मनुष्य हों, देव
या दानव ही | पर जब कामदेव ने
आपकी शक्ति समझे बिना आप की ओर अपने
पुष्प बाण को साधा तो आपने उसे तक्षण
ही भष्म करा दिया| श्रेष्ठ जानो के
अपमान का परिणाम हितकर नहीं होता |
मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं
पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-
ग्रह-गणम् .
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-
ताडित-तटा
जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता ..
१६..
हे नटराज !!! जब संसार कल्याण के हितु आप
तांडव करने लगते हैं तो आपके पाँव के नीचे
धारा कंप उठती है, आपके हाथो के
परिधि से टकरा कार ग्रह नक्षत्र भयभीत
हो उठते हैं| विष्णु लोक भी हिल जाता है|
आपके जाता के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोग
व्याकुल हो उठता है| आशार्य ही है हे
महादेव कि अनेको बार
कल्याणकारी कार्य भे भय उत्पन्न करते हैं |
वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-
रुचिः
प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते .
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति
अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः ..
१७..
आकाश गंगा से निकलती तारागणों के बिच
से गुजरती गंगा जल अपनी धारा से
धरती पर टापू तथा अपने वेग से चक्रवात
उत्पन्न करती है| पर ये उफान से परिपूर्ण
गंगा आपके मस्तक पर एक बूंद के सामन
ही दृष्टीगोचर होती है| ये आपके दिव्य
स्वरूप का ही परिचायक है|
रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो
धनुरथो
रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर
इति .
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर
विधिः
विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु
परतन्त्राः प्रभुधियः .. १८..
हे शिव !!! आपने त्रिपुरासुर का वध करने
हेतु पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, सूर्य
चन्द्र को पहिया एवं स्वयं इन्द्र को बाण
बनाया| हे शम्भू इसा वृहत प्रयोजन
की क्या आवश्यकता थी ? आपके लिए
तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत
ही छोटी बात है|
आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता ?
हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः
यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम् .
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर
जागर्ति जगताम् .. १९..
जब भगवान विष्णु ने आपकी सहश्र
कमलों (एवं सहस्र नामों)
द्वारा पूजा प्रारम्भ की तो उन्होंने एक
कमाल कम पाया| तब भक्ति भाव से हरी ने
अपने एक आँख को कमाल के स्थान पर अर्पित
कर दिया| उनकी यही अदाम्ह्य भक्ति ने
सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर
लिया जिसे भगवान विष्णु संसार रक्षार्थ
उपयोग करते हैं ।
क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे
क्रतुमतां
क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते .
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-
प्रतिभुवं
श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु
जनः .. २०..
हे देवाधिदेव !!! आपने ही कर्म -फल
का विधान बनाया| आपके ही विधान से
अच्छे कर्मो तथा यज्ञ कर्म का फल प्राप्त
होता है | आपके वचनों में श्रद्धा रख कर
सभी वेद कर्मो में आस्था बनाया रखते हैं
तथा यज्ञ कर्म में संलग्न रहते हैं |
क्रियादक्षो दक्षः क्रतुपतिरधीशस्त
नुभृतां
ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-
गणाः .
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तः क्रतुफल-विधान-व
्यसनिनः
ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय
हि मखाः .. २१..
हे प्रभु !!! यदपि आपने यज्ञ कर्म और फल
का विधान बनाया है तदपि जो यज्ञ शुद्ध
विचारों और कर्मो से प्रेप्रित न हो और
आपकी अवहेलना करने
वाला हो उसा परिणाम कदाचित
विपरीत और अहितकर ही होता है|
दक्षप्रजापति के महायज्ञ से उपयुक्त
उदाहरण भला और क्या हो सकता है?
दक्षप्रजापति के यज्ञ में स्वयं
ब्रह्मा पुरोहित तथा अनेकानेक देवगण
तथा ऋषि-मुनि समलित हुए| फिर भी शिव
की अवहेलना के कारण यज्ञ का नाश हुआ|
आप अनीति को सहन नहीं करते भले
ही शुभकर्म के क्ष्द्म्बेश में क्यों न हो |
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं
गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा .
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममुं
त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न
मृगव्याधरभसः .. २२..
एक समय में ब्रह्मा अपनी पुत्री पे
ही मोहित हो गया| जब उनकी पुत्री ने
हिरनी का स्वरु धारण करा भागने
की कोशिस की तो कामातुर ब्रह्मा ने
भी हिरन भेष में उसका पीछा करने लगे| हे
शंकर तब आप व्याघ्र स्वरूप में धनुष-बाण ले
ब्रह्मा की और कूच किया| आपके रौद्र रूप
से भयभीत ब्रह्मा आकाश दिशा की ओर
भगा निकले तथा आजे भी आपसे भयभीत हैं |
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्
पुरः प्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि .
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्
अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः ..
२३..
हे योगेश्वर! जब आपने
माता पार्वती को अपनी सहभागी बनाया तो उन्हें
आपने योगी होने पे शंका उत्पन्न हुई| ये
शंका निर्मुर्ल ही थी क्योंकि जब स्वयं
कामदेव ने आप पर अपना प्रभाव दिखलाने
की कोशिस की तो आपने काम
को जला करा नाश्ता करा दिया |
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर
पिशाचाः सहचराः
चिता-भस्मालेपः स्रगपि नृकरोटी-
परिकरः .
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं
तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि ..
२४..
हे भोलेनाथ!!! आप स्मशान में रमण करते हैं,
भुत-प्रेत आपके संगी होते हैं, आप चिता भष्म
का लेप करते हैं तथा मुंडमाल धारण करते हैं|
ये सारे गुण ही अशुभ एवं भयावह जान पड़ते
हैं| तबभी हे स्मशान निवासी आपके भक्त
आपके इस स्वरूप में भी शुभकारी एव आनंदाई
हे प्रतीत होता है क्योकि हे शंकर आप
मनोवान्चिता फल प्रदान करने में तनिक
भी विलम्ब नहीं करते |
मनः प्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-
मरुतः
प्रहृष्यद्रोमाणः प्रमद-सलिलोत्सङ्गति-
दृशः .
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये
दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल
भवान् .. २५..
हे योगिराज!!! मनुष्य नाना प्रकार के
योग्य पदाति को अपनाते हैं जैसे की स्वास
पर नियंत्रण, उपवास, ध्यान इत्यादि| इन
योग क्रियाओं द्वारा वो जिस आनदं, जिस
सुख को प्राप्त करते हैं वो वास्तव में
आपही हैं हे महादेव!!!
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं
हुतवहः
त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु
धरणिरात्मा त्वमिति च .
परिच्छिन्नामेवं
त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं
न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न
भवसि .. २६..
हे शिव !!! आप ही सूर्य, चन्द्र, धरती,
आकाश, अग्नी, जल एवं वायु हैं | आप
ही आत्मा भी हैं| हे देव मुझे ऐसा कुछ
भी ज्ञात नहीं जो आप न हों |
त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुव
नमथो त्रीनपि सुरान्
अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत्
तीर्णविकृति .
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः
समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद
गृणात्योमिति पदम् .. २७..
हे सर्वेश्वर!!! ॐ तीन तत्वों से बना है अ,
ऊ, माँ जो तीन वेदों (ऋग, साम, यजुर), तीन
अवस्था (जाग्रत, स्वप्ना, शुसुप्ता), तीन
लोकों, तीन कालों, तीन गुणों,
तथा त्रिदेवों को इंगित करता है| हे
ॐकार आपही इस त्रिगुण, त्रिकाल,
त्रिदेव, त्रिअवस्था, औरो त्रिवेद के
समागम हैं |
भवः शर्वो रुद्रः पशुपतिरथोग्रः सहमहान्
तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिद
म् .
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव
श्रुतिरपि
प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्यो
ऽस्मि भवते .. २८..
हे शिव विद एवं देवगन आपकी इन आठ
नामों से वंदना करते हैं – भव, सर्व, रूद्र ,
पशुपति, उग्र, महादेव, भीम, एवं इशान| हे
शम्भू मैं भी आपकी इन नामो से
स्तुति करता हूँ |
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च
नमः
नमः क्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च
नमः .
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च
नमः
नमः सर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः ..
२९..
हे त्रिलोचन आप अत्यधिक दूर हैं और अत्यंत
पास भी, आप महा विशाल भी हैं तथा परम
सूक्ष्म भी, आप श्रेठ भी हैं तथा कनिष्ठ भी|
आप ही सभी कुछ हैं साथ ही आप सभे कुछ से
परे भी |
बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ भवाय नमो नमः
प्रबल-तमसे तत् संहारे हराय नमो नमः .
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ मृडाय
नमो नमः
प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये शिवाय
नमो नमः .. ३०..
हे भव, मैं आपको रजोगुण से युक्त
सृजनकर्ता जान कर आपका नमन करता हूँ |
हे हर, मैं आपको तामस गुण से युक्त,
विलयकर्ता मान आपका नमन करता हूँ| हे
मृड, आप सतोगुण से व्याप्त सबो का पालन
करने वाले हैं| आपको नमस्कार है| आप
ही ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश हैं| हे
परमात्मा, मैं आपको इन तीन गुणों से परे
जान कर शिव रूप में नमस्कार करता हूँ |
कृश-परिणति-चेतः क्लेशवश्यं क्व चेदं
क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घि
नी शश्वदृद्धिः .
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्
वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम् ..
३१..
हे शिव आप गुनातीत हैं और आपका विस्तार
नित बढता ही जाता है| अपनी सिमित
क्षमता से मैं कैसे आपकी वंदना कर सकता हूँ?
पर भक्ति से ये दूरी मिट जाती है तथा मैं
आपने कर कमलों में अपनी स्तुति प्रस्तुत
करता हूँ |
असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-
पात्रे
सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी .
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति ..
३२..
यदि कोई गिरी (पर्वत) को स्याही, सिंधु
तो दवात, देव उद्यान के किसी विशाल
वृक्ष को लेखनी एवं उसे छाल को पत्र
की तरह उपयोग में लाए तथा स्वयं ज्ञान
स्वरूपा माँ सरस्वती अनंतकाल आपके
गुणों की व्याख्या में संलग्न रहें तो भी आप
के गुणों की व्याख्या संभव नहीं है |
असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः
ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य .
सकल-गण-वरिष्ठः पुष्पदन्ताभिधानः
रुचिरमलघुवृत्तैः स्तोत्रमेतच्चकार .. ३३..
इस स्तोत्र की रचना पुश्प्दंता गंधर्व ने
उन चन्द्रमोलेश्वर शिव जी के गुणगान के
लिए की है तो गुणातीत हैं |
अहरहरनवद्यं धूर्जटेः स्तोत्रमेतत्
पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तः पुमान्
यः .
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र
प्रचुरतर-धनायुः पुत्रवान् कीर्तिमांश्च ..
३४..
जो भी इसा स्तोत्र का शुद्ध मन से नित्य
पाठ करता है वो जीवन काल में विभिन्न
ऐश्वर्यों का भोग करता है
तथा अंततः शिवधाम को प्राप्त करता है
तथा शिवतुल्य हो जाता है|
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः .
अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं
गुरोः परम् .. ३५..
महेश से श्रेष्ठ कोइ देवा नहीं, महिम्न
स्तोत्र से श्रेष्ठ कोइ स्तोत्र नहीं, ॐ से
बढकर कोई मंत्र नहीं तथा गुरू से ऊपर कोई
सत्य नहीं.
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं
यागादिकाः क्रियाः .
महिम्नस्तव पाठस्य
कलां नार्हन्ति षोडशीम् .. ३६..
दान, यज्ञ, ज्ञान एवं त्याग
इत्यादि सत्कर्म इसा स्तोत्र के पाठ के
सोलहवे अंश के बराबर भी फल नहीं प्रदान
कर सकते |
कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः
शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः .
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्
स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं
महिम्नः .. ३७..
कुसुमदंत नामक
गंधर्वों का राजा चन्द्रमोलेश्वर शिव
जी का परं भक्त था| अपने अपराध (पुष्प
की चोरी) के कारण वो अपने दिव्या स्वरूप
से वंचित हो गया| तब उसने इस स्तोत्र
की रचना करा शिव को प्रसन्न
किया तथा अपने दिव्या स्वरूप
को पुनः प्राप्त किया |
सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिर्नान्य-
चेताः .
व्रजति शिव-समीपं किन्नरैः स्तूयमानः
स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम् .. ३८..
जो इस स्तोत्र का पठन करता है
वो शिवलोक पाटा है
तथा ऋषि मुनियों द्वारा भी पूजित
हो जाता है |
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-
भाषितम् .
अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम् ..
३९..
पुष्पदंत रचित ये स्तोत्र दोषरहित है
तथा इसका नित्य पाठ करने से परं सुख
की प्राप्ति होती है |
इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पा
दयोः .
अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे
सदाशिवः .. ४०..
ये स्तोत्र शंकर भगवान को समर्पति है |
प्रभु हमसे प्रसन्न हों|
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर .
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः ..
४१..
हे शिव !!! मैं आपके वास्तविक स्वरुप्
को नहीं जानता| हे शिव आपके उस
वास्तविक स्वरूप जिसे मैं नहीं जान
सकता उसको नमस्कार है |
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं
यः पठेन्नरः .
सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके
महीयते .. ४२..
जो इस स्तोत्र का दिन में एक, दो या तीन
बार पाठ करता है वो पाप मुक्त
हो जाता है तथा शिव लोक को प्राप्त
करता है |
श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेन
स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण .
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन
सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः .. ४३..
पुष्पदंत द्वारा रचित ये स्तोत्र शिव
जी अत्यंत ही प्रिय है | इसका पाठ करने
वाला अपने संचित पापों से मुक्ति पाता है
|
.. इति श्री पुष्पदन्त विरचितं
शिवमहिम्नः
स्तोत्रं समाप्तम् .

भगवती स्तोत्र

स्तोत्र

जय भगवति देवि नमो वरदे जय पापविनाशिनि बहुफलदे।
जय शुम्भनिशुम्भकपालधरे प्रणमामि तु देवि नरार्तिहरे॥1॥
जय चन्द्रदिवाकरनेत्रधरे जय पावकभूषितवक्त्रवरे।
जय भैरवदेहनिलीनपरे जय अन्धकदैत्यविशोषकरे॥2॥
जय महिषविमर्दिनि शूलकरे जय लोकसमस्तकपापहरे।
जय देवि पितामहविष्णुनते जय भास्करशक्रशिरोवनते॥3॥
जय षण्मुखसायुधईशनुते जय सागरगामिनि शम्भुनुते।
जय दु:खदरिद्रविनाशकरे जय पुत्रकलत्रविवृद्धिकरे॥4॥
जय देवि समस्तशरीरधरे जय नाकविदर्शिनि दु:खहरे।
जय व्याधिविनाशिनि मोक्ष करे जय वाञ्िछतदायिनि सिद्धिवरे॥5॥
एतद्व्यासकृतं स्तोत्रं य: पठेन्नियत: शुचि:।
गृहे वा शुद्धभावेन प्रीता भगवती सदा॥6॥

भावार्थ

हे वरदायिनी देवि! हे भगवति! तुम्हारी जय हो। हे पापों को नष्ट करने वाली और अनन्त फल देने वाली देवि। तुम्हारी जय हो! हे शुम्भनिशुम्भ के मुण्डों को धारण करने वाली देवि! तुम्हारी जय हो। हे मुष्यों की पीडा हरने वाली देवि! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ॥1॥ हे सूर्य-चन्द्रमारूपी नेत्रों को धारण करने वाली! तुम्हारी जय हो। हे अग्नि के समान देदीप्यामान मुख से शोभित होने वाली! तुम्हारी जय हो। हे भैरव-शरीर में लीन रहने वाली और अन्धकासुरका शोषण करने वाली देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥2॥ हे महिषसुर का मर्दन करने वाली, शूलधारिणी और लोक के समस्त पापों को दूर करने वाली भगवति! तुम्हारी जय हो। ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और इन्द्र से नमस्कृत होने वाली हे देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥3॥ सशस्त्र शङ्कर और कार्तिकेयजी के द्वारा वन्दित होने वाली देवि! तुम्हारी जय हो। शिव के द्वारा प्रशंसित एवं सागर में मिलने वाली गङ्गारूपिणि देवि! तुम्हारी जय हो। दु:ख और दरिद्रता का नाश तथा पुत्र-कलत्र की वृद्धि करने वाली हे देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो॥4॥ हे देवि! तुम्हारी जय हो। तुम समस्त शरीरों को धारण करने वाली, स्वर्गलोक का दर्शन करानेवाली और दु:खहारिणी हो। हे व्यधिनाशिनी देवि! तुम्हारी जय हो। मोक्ष तुम्हारे करतलगत है, हे मनोवाच्छित फल देने वाली अष्ट सिद्धियों से सम्पन्न परा देवि! तुम्हारी जय हो॥5॥

महिमा

जो कहीं भी रहकर पवित्र भाव से नियमपूर्वक इस व्यासकृत स्तोत्र का पाठ करता है अथवा शुद्ध भाव से घर पर ही पाठ करता है, उसके ऊपर भगवती सदा ही प्रसन्न रहती हैं॥6॥

रचनाकार

भगवती के इस स्तोत्र की रचना व्यास जी ने की थी।

चन्द्रार्कचूडामणिं स्तोत्र्

श्रीदेव्या
प्रात: स्मरणम् चाञ्चल्यारुणलोचनाञ्चितकृपां चन्द्रार्कचूडामणिं

चारुस्मेरमुखां चराचरजगत्संरक्षणीं सत्पदाम्।
चञ्चच्चम्पकनासिकाग्रविलसन्मुक्तामणीरञ्जितां
श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवतीं श्रीमातरं भावये॥1॥
कस्तूरीतिलकाञ्चितेन्दुविलसत्प्रोद्भासिभालस्थलीं
कर्पूरद्रवमिश्रचूर्णखदिरामोदोल्लसद्वीटिकाम्।
लोलापाङ्गतरङ्गितैरधिकृपासारैर्नतानन्दिनीं
श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवतीं श्रीमातरं भावये॥2॥

भावार्थ

जो सांसारिक भय को हरने वाले और देवताओं के स्वामी हैं, जो गङ्गाजी को धारण करते हैं, जिनका वृषभ वाहन है, जो अम्बिका के ईश हैं तथा जिनके हाथ में खट्वाङ्ग, त्रिशूल और वरद तथा अभयमुद्रा है, उन संसार-रोग को हरने के निमित्त अद्वितीय औषधरूप ईश (महादेव जी) को मैं प्रात:समय में स्मरण करता हूँ॥1॥ भगवती पार्वती जिनका आधा अङ्ग हैं, जो संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय के कारण हैं, आदिदेव हैं, विश्वनाथ हैं, विश्व-विजयी और मनोहर हैं, सांसारिक रोग को नष्ट करने के लिए अद्वितीय औषधरूप उन गिरीश (शिव) को मैं प्रात:काल नमस्कार करता हूँ॥2॥ जो अन्त से रहित आदिदेव हैं, वेदान्त से जानने योग्य, पापरहित एवं महान् पुरुष हैं तथा जो नाम आदि भेदों से रहित, छ: भाव-विकारों (जन्म, वृद्धि, स्थिरता, परिणमन, अपक्षय और विनाश) से शून्य, संसाररोग को हरने के निमित्त अद्वितीय औषध हैं, उन एक शिवजी को मैं प्रात:काल भजता हूँ॥3॥

महिमा

जो मनुष्य प्रात:काल उठकर शिव का ध्यान कर प्रतिदिन इन तीनों श्लोकों का पाठ करते हैं, वे लोग अनेक जन्मों के सञ्चित दु:खसमूह से मुक्त होकर शिवजी के उसी कल्याणमय पद को पाते हैं॥4॥

रचनाकार

इसकी रचना श्रीशङ्कराचार्य जी ने की थी। यह महन दैवि तकत होति है! हमे शरन दो !

श्रीकृष्णकृतं दुर्गास्तोत्रम्

श्रीकृष्ण उवाच
त्वमेवसर्वजननी मूलप्रकृतिरीश्वरी। त्वमेवाद्या सृष्टिविधौ स्वेच्छया त्रिगुणात्मिका॥
कार्यार्थे सगुणा त्वं च वस्तुतो निर्गुणा स्वयम्। परब्रह्मस्वरूपा त्वं सत्या नित्या सनातनी॥
तेज:स्वरूपा परमा भक्त ानुग्रहविग्रहा। सर्वस्वरूपा सर्वेशा सर्वाधारा परात्परा॥
सर्वबीजस्वरूपा च सर्वपूज्या निराश्रया। सर्वज्ञा सर्वतोभद्रा सर्वमङ्गलमङ्गला॥
सर्वबुद्धिस्वरूपा च सर्वशक्ति स्वरूपिणी। सर्वज्ञानप्रदा देवी सर्वज्ञा सर्वभाविनी।
त्वं स्वाहा देवदाने च पितृदाने स्वधा स्वयम्। दक्षिणा सर्वदाने च सर्वशक्ति स्वरूपिणी।
निद्रा त्वं च दया त्वं च तृष्णा त्वं चात्मन: प्रिया। क्षुत्क्षान्ति: शान्तिरीशा च कान्ति: सृष्टिश्च शाश्वती॥
श्रद्धा पुष्टिश्च तन्द्रा च लज्जा शोभा दया तथा। सतां सम्पत्स्वरूपा श्रीर्विपत्तिरसतामिह॥
प्रीतिरूपा पुण्यवतां पापिनां कलहाङ्कुरा। शश्वत्कर्ममयी शक्ति : सर्वदा सर्वजीविनाम्॥
देवेभ्य: स्वपदो दात्री धातुर्धात्री कृपामयी। हिताय सर्वदेवानां सर्वासुरविनाशिनी॥
योगनिद्रा योगरूपा योगदात्री च योगिनाम्। सिद्धिस्वरूपा सिद्धानां सिद्धिदाता सिद्धियोगिनी॥
माहेश्वरी च ब्रह्माणी विष्णुमाया च वैष्णवी। भद्रदा भद्रकाली च सर्वलोकभयंकरी॥
ग्रामे ग्रामे ग्रामदेवी गृहदेवी गृहे गृहे। सतां कीर्ति: प्रतिष्ठा च निन्दा त्वमसतां सदा॥
महायुद्धे महामारी दुष्टसंहाररूपिणी। रक्षास्वरूपा शिष्टानां मातेव हितकारिणी॥
वन्द्या पूज्या स्तुता त्वं च ब्रह्मादीनां च सर्वदा। ब्राह्मण्यरूपा विप्राणां तपस्या च तपस्विनाम्॥
विद्या विद्यावतां त्वं च बुद्धिर्बुद्धिमतां सताम्। मेधास्मृतिस्वरूपा च प्रतिभा प्रतिभावताम्॥
राज्ञां प्रतापरूपा च विशां वाणिज्यरूपिणी। सृष्टौ सृष्टिस्वरूपा त्वं रक्षारूपा च पालने॥
तथान्ते त्वं महामारी विश्वस्य विश्वपूजिते। कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च मोहिनी॥
दुरत्यया मे माया त्वं यया सम्मोहितं जगत्। यया मुग्धो हि विद्वांश्च मोक्षमार्ग न पश्यति॥
इत्यात्मना कृतं स्तोत्रं दुर्गाया दुर्गनाशनम्। पूजाकाले पठेद् यो हि सिद्धिर्भवति वाञ्िछता॥
वन्ध्या च काकवन्ध्या च मृतवत्सा च दुर्भगा। श्रुत्वा स्तोत्रं वर्षमेकं सुपुत्रं लभते ध्रुवम्॥
कारागारे महाघोरे यो बद्धो दृढबन्धने। श्रुत्वा स्तोत्रं मासमेकं बन्धनान्मुच्यते ध्रुवम्॥
यक्ष्मग्रस्तो गलत्कुष्ठी महाशूली महाज्वरी। श्रुत्वा स्तोत्रं वर्षमेकं सद्यो रोगात् प्रमुच्यते॥
पुत्रभेदे प्रजाभेदे पत्‍‌नीभेदे च दुर्गत:। श्रुत्वा स्तोत्रं मासमेकं लभते नात्र संशय:॥
राजद्वारे श्मशाने च महारण्ये रणस्थले। हिंस्त्रजन्तुसमीपे च श्रुत्वा स्तोत्रं प्रमुच्यते॥
गृहदाहे च दावागनै दस्युसैन्यसमन्विते। स्तोत्रश्रवणमात्रेण लभते नात्र संशय:॥
महादरिद्रो मूर्खश्च वर्ष स्तोत्रं पठेत्तु य:। विद्यावान धनवांश्चैव स भवेन्नात्र संशय:॥

भावार्थ

श्रीकृष्ण बोले - देवि! तुम्हीं सबकी जननी, मूलप्रकृति ईश्वरी हो। तुम्हीं सृष्टिकार्य में आद्याशक्ति हो। तुम अपनी इच्छा से त्रिगुणमयी बनी हुई हो। कार्यवश सगुण रूप धारण करती हो। वास्तव में स्वयं निर्गुणा हो। सत्या, नित्या, सनातनी एवं परब्रह्मस्वरूपा हो, परमा तेज:स्वरूपा हो। भक्त ों पर कृपा करने के लिये दिव्य शरीर धारण करती हो। तुम सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी, सर्वाधारा, परात्परा, सर्वबीजस्वरूपा, सर्वपूज्या, निराश्रया, सर्वज्ञा, सर्वतोभद्रा (सब ओर से मङ्गलमयी), सर्वमङ्गलमङ्गला, सर्वबुद्धिस्वरूपा, सर्वशक्ति रूपिणी, सर्वज्ञानप्रदा देवी, सब कुछ जानने वाली और सबको उत्पन्न करने वाली हो। देवताओं के लिये हविष्य दान करने के निमित्त तुम्हीं स्वाहा हो, पितरों के लिये श्राद्ध अर्पण करने के निमित्त तुम स्वयं ही स्वधा हो, सब प्रकार के दानयज्ञ में दक्षिणा हो तथा सम्पूर्ण शक्ति यां तुम्हारा ही स्वरूप हैं। तुम निद्रा, दया और मन को प्रिय लगने वाली तृष्णा हो। क्षुधा, क्षमा, शान्ति, ईश्वरी, कान्ति तथा शाश्वती सृष्टि भी तुम्हीं हो। तुम्हीं श्रद्धा, पुष्टि, तन्द्रा, लज्जा, शोभा और दया हो। सत्पुरुषों के यहाँ सम्पत्ति और दुष्टों के घर में विपत्ति भी तुम्हीं हो। तुम्हीं पुण्यवानों के लिये प्रीतिरूप हो, पापियों के लिये कलह का अङ्कुर हो तथा समस्त जीवों की कर्ममयी शक्ति भी सदा तुम्हीं हो। देवताओं को उनका पद प्रदान करने वाली तुम्हीं हो। धाता (ब्रह्मा)-का भी धारण-पोषण करने वाली दयामयी धात्री तुम्हीं हो। सम्पूर्ण देवताओं के हित के लिये तुम्हीं समस्त असुरों का विनाश करती हो। तुम योगनिद्रा हो। योग तुम्हारा स्वरूप है। तुम योगियों को योग प्रदान करने वाली हो। सिद्धों की सिद्धि भी तुम्हीं हो। तुम सिद्धिदायिनी और सिद्धयोगिनी हो। ब्रह्माणी, माहेश्वरी, विष्णुमाया, वैष्णवी तथा भद्रदायिनी भद्रकाली भी तुम्हीं हो। तुम्हीं समस्त लोकों के लिये भय उत्पन्न करती हो। गाँव-गाँव में ग्रामदेवी और घर-घर में गृहदेवी भी तुम्हीं हो। तुम्हीं सत्पुरुषों की कीर्ति और प्रतिष्ठा हो। दुष्टों की होने वाली सदा निन्दा भी तुम्हारा ही स्वरूप है। तुम महायुद्ध में दुष्टसंहाररूपिणी महामारी हो और शिष्ट पुरुषों के लिये माता की भाँति हितकारिणी एवं रक्षारूपिणी हो। ब्रह्मा आदि देवताओं ने सदा तुम्हारी वन्दना, पूजा एवं स्तुति की है। ब्राह्मणों की ब्राह्मणता और तपस्वीजनों की तपस्या भी तुम्हीं हो, विद्वानों की विद्या बुद्धिमानों की बुद्धि, सत्पुरुषों की मेधा और स्मृति तथा प्रतिभाशाली पुरुषों की प्रतिभा भी तुम्हारा ही स्वरूप है। राजाओं का प्रताप और वैश्यों का वाणिज्य भी तुम्हीं हो। विश्वपूजिते! सृष्टिकाल में सृष्टिरूपिणी, पालनकाल में रक्षारूपिणी तथा संहारकाल में विश्व का विनाश करने वाली महामारीरूपिणी भी तुम्हीं हो। तुम्हीं कालरात्रि, महारात्रि तथा मोहिनी, मोहरात्रि हो; तुम मेरी दुर्लङ्घय माया हो, जिसने सम्पूर्ण जगत् को मोहित कर रखा है तथा जिससे मुग्ध हुआ विद्वान पुरुष भी मोक्षमार्ग को नहीं देख पाता।

महिमा

इस प्रकार परमात्मा श्रीकृष्ण द्वारा किये गये दुर्गा के दुर्गम संकटनाशनस्तोत्र का जो पूजाकाल में पाठ करता है, उसे मनोवाञ्िछत सिद्धि प्राप्त होती है। जो नारी वन्ध्या, काकवन्ध्या, मृतवत्सा तथा दुर्भगा है, वह भी एक वर्ष तक इस स्तोत्र का श्रवण करके निश्चय ही उत्तम पुत्र प्राप्त कर लेती है। जो पुरुष अत्यन्त घोर कारागार के भीतर दृढ बन्धन में बँधा हुआ है, वह एक ही मास तक इस स्तोत्र को सुन ले तो अवश्य ही बन्धन से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य राजयक्ष्मा, गलित कोढ, महाभयंकर शूल और महान् ज्वर से ग्रस्त है, वह एक वर्ष तक इस स्तोत्र का श्रवण कर ले तो शीघ्र ही रोग से छुटकारा पा जाता है। पुत्र, प्रजा और पत्‍‌नी के साथ भेद (कलह आदि) होने पर यदि एक मास तक इस स्तोत्र को सुने तो इस संकट से मुक्ति प्राप्त होती है, इसमें संशय नहीं है। राजद्वार, श्मशान, विशाल वन तथा रणक्षेत्र में और हिंसक जन्तु के समीप भी इस स्तोत्र के पाठ और श्रवण से मनुष्य संकट से मुक्त हो जाता है। यदि घर में आग लगी हो, मनुष्य दावानल से घिर गया हो अथवा डाकुओं की सेना में फँस गया हो तो इस स्तोत्र के श्रवण मात्र से वह उस संकट से पार हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। जो महादरिद्र और मूर्ख है, वह भी एक वर्ष तक इस स्तोत्र को पढे तो निस्संदेह विद्वान और धनवान् हो जाता है।

रचनाकार

ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खंड से उद्धृत इस स्तोत्र का स्तवन भगवान् श्रीकृष्ण ने भगवती दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए किया था।

परशुरामकृतं दुर्गास्तात्रम्

परशुराम उवाच
श्रीकृष्णस्य च गोलोके परिपूर्णतमस्य च:आविर्भूता विग्रहत: पुरा सृष्ट्युन्मुखस्य च॥
सूर्यकोटिप्रभायुक्त ा वस्त्रालंकारभूषिता। वह्निशुद्धांशुकाधाना सुस्मिता सुमनोहरा॥
नवयौवनसम्पन्ना सिन्दूरविन्दुशोभिता। ललितं कबरीभारं मालतीमाल्यमण्डितम्॥
अहोऽनिर्वचनीया त्वं चारुमूर्ति च बिभ्रती। मोक्षप्रदा मुमुक्षूणां महाविष्णोर्विधि: स्वयम्॥
मुमोह क्षणमात्रेण दृ त्वां सर्वमोहिनीम्। बालै: सम्भूय सहसा सस्मिता धाविता पुरा॥
सद्भि: ख्याता तेन राधा मूलप्रकृतिरीश्वरी। कृष्णस्त्वां सहसाहूय वीर्याधानं चकार ह॥
ततो डिम्भं महज्जज्ञे ततो जातो महाविराट्। यस्यैव लोमकूपेषु ब्रह्माण्डान्यखिलानि च॥
तच्छृङ्गारक्रमेणैव त्वन्नि:श्वासो बभूव ह। स नि:श्वासो महावायु: स विराड् विश्वधारक:॥
तव घर्मजलेनैव पुप्लुवे विश्वगोलकम्। स विराड् विश्वनिलयो जलराशिर्बभूव ह॥
ततस्त्वं पञ्चधाभूय पञ्चमूर्तीश्च बिभ्रती। प्राणाधिष्ठातृमूर्तिर्या कृष्णस्य परमात्मन:॥
कृष्णप्राणाधिकां राधां तां वदन्ति पुराविद:॥
वेदाधिष्ठातृमूर्तियां वेदाशास्त्रप्रसूरपि। तौ सावित्रीं शुद्धरूपां प्रवदन्ति मनीषिण:॥
ऐश्वर्याधिष्ठातृमूर्ति: शान्तिश्च शान्तरूपिणी। लक्ष्मीं वदन्ति संतस्तां शुद्धां सत्त्‍‌वस्रूपिणीम्॥
रागाधिष्ठातृदेवी या शुक्लमूर्ति: सतां प्रसू:। सरस्वतीं तां शास्त्रज्ञां शास्त्रज्ञा: प्रवदन्त्यहो॥
बुद्धिर्विद्या सर्वशक्ते र्या मूर्तिरधिदेवता। सर्वमङ्गलमङ्गल्या सर्वमङ्गलरूपिणी॥
सर्वमङ्गलबीजस्य शिवस्य निलयेऽधुना॥
शिवे शिवास्वरूपा त्वं लक्ष्मीर्नारायणान्तिके। सरस्वती च सावित्री वेदसू‌र्ब्रह्मण: प्रिया॥
राधा रासेश्वरस्यैव परिपूर्णतमस्य च। परमानन्दरूपस्य परमानन्दरूपिणी॥
त्वत्कलांशांशकलया देवानामपि योषित:॥
त्वं विद्या योषित: सर्वास्त्वं सर्वबीजरूपिणी। छाया सूर्यस्य चन्द्रस्य रोहिणी सर्वमोहिनी॥
शची शक्रस्य कामस्य कामिनी रतिरीश्वरी। वरुणानी जलेशस्य वायो: स्त्री प्राणवल्लभा॥
वह्ने: प्रिया हि स्वाहा च कुबेरस्य च सुन्दरी। यमस्य तु सुशीला च नैर्ऋतस्य च कैटभी॥
ईशानस्य शशिकला शतरूपा मनो: प्रिया। देवहूति: कर्दमस्य वसिष्ठस्याप्यरुन्धती॥
लोपामुद्राप्यगस्त्यस्य देवमातादितिस्तथा। अहल्या गौतमस्यापि सर्वाधारा वसुन्धरा॥
गङ्गा च तुलसी चापि पृथिव्यां या: सरिद्वरा:। एता: सर्वाश्च या ह्यन्या: सर्वास्त्वत्कलयाम्बिके॥
गृहलक्ष्मीगर्ृहे नृणांराजलक्ष्मीश्च राजसु। तपस्विनां तपस्या त्वं गायत्री ब्राह्मणस्य च॥
सतां सत्त्‍‌वस्वरूपा त्वमसतां कलहाङ्कुरा। ज्योतीरूपा निर्गुणस्य शक्ति स्त्वं सगुणस्य च॥
सूर्ये प्रभास्वरूपा त्वं दाहिका च हुताशने। जले शैत्यस्वरूपा च शोभारूपा निशाकरे॥
त्वं भूमौ गन्धरूपा च आकाशे शब्दरूपिणी। क्षुत्पिपासादयस्त्वं च जीविनां सर्वशक्त य:॥
सर्वबीजस्वरूपा त्वं संसारे साररूपिणी। स्मूतिर्मेधा च बुद्धिर्वा ज्ञानशक्ति र्विपश्चिताम्॥
कृष्णेन विद्या या दत्ता सर्वज्ञानप्रसू: शुभा। शूलिने कृपया सा त्वं यतो मृत्युञ्जय: शिव:॥
सृष्टिपालनसंहारशक्त यस्त्रिविधाश्च या:। ब्रह्मविष्णुमहेशानां सा त्वमेव नमोऽस्तु ते॥
मधुकैटभभीत्या च त्रस्तो धाता प्रकम्पित:। स्तुत्वा मुमोच यां देवीं तां मूधनर् प्रणमाम्यहम्॥
मधुकैटभयोर्युद्धे त्रातासौ विष्णुरीश्वरीम्। बभूव शक्ति मान् स्तुत्वा तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
त्रिपुरस्य महायुद्धे सरथे पतिते शिवे। यां तुष्टुवु: सुरा: सर्वे तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
विष्णुना वृषरूपेण स्वयं शम्भु: समुत्थित: जघान त्रिपुरं स्तुत्वा तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
यदाज्ञया वाति वात: सूर्यस्तपति संततम्। वर्षतीन्द्रो दहत्यगिन्स्तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
यदाज्ञया हि कालश्च शश्वद् भ्रमति वेगत:। मृत्युश्चरति जन्त्वोघे तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
स्त्रष्टा सृजति सृष्टिं च पाता पाति यदाज्ञया। संहर्ता संहरेत् काले तां दुर्गा प्रणमाम्यहम्॥
ज्योति:स्वरूपो भगवाञ्छ्रीकृष्णो निर्गुण: स्वयम्। यया विना न शक्त श्च सृष्टिं कर्तु नमामि ताम्॥
रक्ष रक्ष जगन्मातरपराधं क्षमस्व ते। शिशूनामपराधेन कुतो माता हि कुप्यति॥
इत्युक्त्वा पर्शुरामश्च प्रणम्य तां रुरोद ह। तुष्टा दुर्गा सम्भ्रमेण चाभयं च वरं ददौ॥
अमरो भव हे पुत्र वत्स सुस्थिरतां व्रज। शर्वप्रसादात् सर्वत्र ज्योऽस्तु तव संततम्॥
सर्वान्तरात्मा भगवांस्तुष्टोऽस्तु संततं हरि:। भक्ति र्भवतु ते कृष्णे शिवदे च शिवे गुरौ॥
इष्टदेवे गुरौ यस्य भक्ति र्भवति शाश्वती। तं हन्तु न हि शक्त ाश्च रुष्टाश्च सर्वदेवता:॥
श्रीकृष्णस्य च भक्त स्त्वं शिष्यो हि शंकरस्य च। गुरुपत्‍‌नीं स्तौषि यस्मात् कस्त्वां हन्तुमिहेश्वर:॥
अहो न कृष्णभक्त ानामशुभं विद्यते क्वचित्। अन्यदेवेषु ये भक्त ा न भक्त ा वा निरेङ्कुशा:॥
चन्द्रमा बलवांस्तुष्टो येषां भाग्यवतां भृगो। तेषां तारागणा रुष्टा: किं कुर्वन्ति च दुर्बला:॥
यस्य तुष्ट: सभायां चेन्नरदेवो महान् सुखी। तस्य किं वा करिष्यन्ति रुष्टा भृत्याश्च दुर्बला:॥
इत्युक्त्वा पार्वती तुष्टा दत्त्‍‌वा रामं शुभाशिषम्। जगामान्त:पुरं तूर्ण हरिशब्दो बभूव ह॥
स्तोत्रं वै काण्वशाखोक्तं पूजाकाले च य: पठेत्। यात्राकाले च प्रातर्वा वाञ्िछतार्थ लभेद्ध्रुवम॥
पुत्रार्थी लभते पुत्रं कन्यार्थी कन्यकां लभेत्। विद्यार्थी लभते विद्यां प्रजार्थी चाप्रुयात् प्रजाम्॥
भ्रष्टराज्यो लभेद् राज्यं नष्टवित्तो धनं लभेत्॥
यस्य रुष्टो गुरुर्देवो राजा वा बान्धवोऽथवा। तस्य तुष्टश्च वरद: स्तोत्रराजप्रसादत:॥
दस्युग्रस्तोऽहिग्रस्तश्च शत्रुग्रस्तो भयानक:। व्याधिग्रस्तो भवेन्मुक्त : स्तोत्रस्मरणमात्रत:॥
राजद्वारे श्मशाने च कारागारे च बन्धने। जलराशौ निमगन्श्च मुक्त स्तत्स्मृतिमात्रत:॥
स्वामिभेदे पुत्रभेदे मित्रभेदे च दारुणे। स्तोत्रस्मरणमात्रेण वाञ्िछतार्थ लभेद् ध्रुवम॥
कृत्वा हविष्यं वर्ष च स्तोत्रराजं श्रृणोति या। भक्त्या दुर्गा च सम्पूज्य महावन्ध्या प्रसूयते॥
लभते सा दिव्यपुत्रं ज्ञानिनं चिरजीविनम्। असौभाग्या च सौभाग्यं षण्मासश्रवणाल्लभेत्॥
नवमासं काकवन्ध्या मृतवत्सा च भक्ति त:। स्तोत्रराजं या श्रृणोति सा पुत्रं लभते धु्रवम्॥
कन्यामाता पुत्रहीना पञ्जमासं श्रृणोति या। घटे सम्पूज्य दुर्गा च सा पुत्रं लभते धु्रवम्॥

भावार्थ

परशुराम ने कहा - प्राचीन काल की बात है; गोलोक में जब परिपूर्णतम श्रीकृष्ण सृष्टिरचना के लिए उद्यत हुए, उस समय उनके शरीर से तुम्हारा प्राकटय हुआ था। तुम्हारी कान्ति करोडों सूर्यो के समान थी। तुम वस्त्र और अलंकारों से विभूषित थीं। शरीर पर अगिन् में तपाकर शुद्ध की हुई साडी का परिधान था। नव तरुण अवस्था थी। ललाटपर सिंदूर की बेंदी शोभित हो रही थी। मालती की मालाओं से मण्डित गुँथी हुई सुन्दर चोटी थी। बडा ही मनोहर रूप था। मुख पर मन्द मुस्कान थी। अहो! तुम्हारी मूर्ति बडी सुन्दर थी, उसका वर्णन करना कठिन है। तुम मुमुक्षुओं को मोक्ष प्रदान करने वाली तथा स्वयं महाविष्णु की विधि हो। बाले! तुम सबको मोहित कर लेने वाली हो। तुम्हें देखकर श्रीकृष्ण उसी क्षण मोहित हो गये। तब तुम उनसे सम्भावित होकर सहसा मुस्कराती हुई भाग चलीं। इसी कारण सत्पुरुष तुम्हें मूलप्रकृति ईश्वरी राधा कहते हैं। उस समय सहसा श्रीकृष्ण ने तुम्हें बुलाकर वीर्य का आधान किया। उससे एक महान् डिम्ब उत्पन्न हुआ। उस डिम्ब से महाविराट् की उत्पत्ति हुई, जिसके रोमकूपों में समस्त ब्रह्माण्ड स्थित हैं। फिर राधा के श्रृङ्गारक्रम से तुम्हारा नि:श्वास प्रकट हुआ। वह नि:श्वास महावायु हुआ और वही विश्व को धारण करने वाला विराट् कहलाया। तुम्हारे पसीने से विश्वगोलक पिघल गया। तब विश्व का निवासस्थान वह विराट् जल की राशि हो गया। तब तुमने अपने को पाँच भागों में विभक्त करके पाँच मूर्ति धारण कर ली। उनमें परमात्मा श्रीकृष्ण की जो प्राणाधिष्ठात्री मूर्ति है, उसे भविष्यवेत्ता लोग कृष्णप्राणाधिका राधा कहते हैं। जो मूर्ति वेद-शास्त्रों की जननी तथा वेदाधिष्ठात्री है, उस शुद्धरूपा मूर्ति को मनीषीगण सावित्री नाम से पुकारते हैं। जो शान्ति तथा शान्तरूपिणी ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री मूर्ति है, उस सत्त्‍‌वस्वरूपिणी शुद्ध मुर्ति को संतलोग लक्ष्मी नाम से अभिहित करते हैं। अहो! जो राग की अधिष्ठात्री देवी तथा सत्पुरुषों को पैदा करने वाली है, जिसकी मूर्ति शुक्ल वर्ण की है, उस शास्त्र की ज्ञाता मूर्ति को शास्त्रज्ञ सरस्वती कहते हैं। जो मूर्ति बुद्धि, विद्या, समस्त शक्ति की अधिदेवता, सम्पूर्ण मङ्गलों की मङ्गलस्थान, सर्वमङ्गलरूपिणी और सम्पूर्ण मङ्गलों की कारण है, वही तुम इस समय शिव के भवन में विराजमान हो।
तुम्हीं शिव के समीप शिवा (पार्वती), नारायण के निकट लक्ष्मी और ब्रह्मा की प्रिया वेदजननी सावित्री और सरस्वती हो। जो पूरिपूर्णतम एवं परमानन्दस्वरूप हैं, उन रासेश्वर श्रीकृष्ण की तुम परमानन्दरूपिणी राधा हो। देवाङ्गनाएँ भी तुम्हारे कलांश की अंशकला से प्रादुर्भूत हुई हैं। सारी नारियाँ तुम्हारी विद्यास्वरूपा हैं और तुम सबकी कारणरूपा हो। अम्बिके! सूर्य की पत्‍‌नी छाया, चन्द्रमा की भार्या सर्वमोहिनी रोहिणी, इन्द्र की पत्‍‌नी शची, कामदेव की पत्‍‌नी ऐश्वर्यशालिनी रति, वरुण की पत्‍‌नी वरुणानी, वायु की प्राणप्रिया स्त्री, अगिन् की प्रिया स्वाहा, कुबेर की सुन्दरी भार्या, यम की पत्‍‌नी सुशीला, नैर्ऋत की जाया कैटभी, ईशान की पत्‍‌नी शशिकला, मनु की प्रिया शतरूपा, कर्दम की भार्या देवहूति, वसिष्ठ की पत्‍‌नी अरुन्धती, देवमाता अदिति, अगस्त्य मुनि की प्रिया लोपामुद्रा, गौतम की पत्‍‌नी अहल्या, सबकी आधाररूपा वसुन्धरा, गङ्गा, तुलसी तथा भूतल की सारी श्रेष्ठ सरिताएँ-ये सभी तथा इनके अतिरिक्ति जो अन्य स्त्रियाँ हैं, वे सभी तुम्हारी कला से उत्पन्न हुई हैं।
तुम मनुष्यों के घर में गृहलक्ष्मी, राजाओं के भवनों में राजलक्ष्मी, तपस्वियों की तपस्या और ब्राह्मणों की गायत्री हो। तुम सत्पुरुषों के लिए सत्त्‍‌वस्वरूप और दुष्टों के लिये कलह की अङ्कुर हो। निर्गुण की ज्योति और सगुण की शक्ति तुम्हीं हो। तुम सूर्य में प्रभा, अगिन् में दाहिका-शक्ति , जल में शीतलता और चन्द्रमा में शोभा हो। भूमि में गन्ध और आकाश में शब्द तुम्हारा ही रूप है। तुम भूख-प्यास आदि तथा प्राणियों की समस्त शक्ति हो। संसार में सबकी उत्पत्ति की कारण, साररूपा, स्मृति, मेधा, बुद्धि अथवा विद्वानों की ज्ञानशक्ति तुम्हीं हो। श्रीकृष्ण ने शिवजी को कृपापूर्वक सम्पूर्ण ज्ञान की प्रसविनी जो शुभ विद्या प्रदान की थी, वह तुम्हीं हो; उसी से शिवजी मृत्युञ्जय हुए हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश की सृष्टि, पालन और संहार करने वाली जो त्रिविध शक्ति याँ हैं, उनके रूप में तुम्हीं विद्यमान हो; अत: तुम्हें नमस्कार है। जब मधु-कैटभ के भय से डरकर ब्रह्मा काँप उठे थे, उस समय जिनकी स्तुति करके वे भयमुक्त हुए थे; उन देवी को मैं सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ। मधु-कैटभ के युद्ध में जगत् के रक्षक ये भगवान् विष्णु जिन परमेश्वरी का स्तवन करके शक्ति मान् हुए थे, उन दुर्गा को मैं नमस्कार करता हूँ। त्रिपुर के महायुद्ध में रथसहित शिवजी के गिर जाने पर सभी देवताओं ने जिनकी स्तुति की थी; उन दुर्गा को मैं प्रणाम करता हूँ। जिनका स्तवन करके वृषरूपधारी विष्णु द्वारा उठाये गये स्वयं शम्भु ने त्रिपुर का संहार किया था; उन दुर्गा को मैं अभिवादन करता हूँ। जिनकी आज्ञा से निरन्तर वायु बहती है, सूर्य तपते हैं, इन्द्र वर्षा करते हैं और अगिन् जलाती है; उन दुर्गा को मैं सिर झुकाता हूँ। जिनकी आज्ञा से काल सदा वेगपूर्वक चक्क र काटता रहता है और मृत्यु जीव-समुदाय में विचरती रहती है; उन दुर्गा को मैं नमस्कार करता हूँ। जिनके आदेश से सृष्टिकर्ता सृष्टि की रचना करते हैं, पालनकर्ता रक्षा करते हैं और संहर्ता समय आने पर संहार करते हैं; उन दुर्गा को मैं प्रणाम करता हूँ। जिनके बिना स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण, जो ज्योति:स्वरूप एवं निर्गुण हैं, सृष्टि-रचना करने में समर्थ नहीं होते; उन देवी को मेरा नमस्कार है। जगज्जननी! रक्षा करो, रक्षा करो; मेरे अपराध को क्षमा कर दो। भला, कहीं बच्चे के अपराध करने से माता कुपित होती है।
इतना कहकर परशुराम उन्हें प्रणाम करके रोने लगे। तब दुर्गा प्रसन्न हो गयीं और शीघ्र ही उन्हें अभय का वरदान देती हुई बोलीं- हे वत्स! तुम अमर हो जाओ। बेटा! अब शान्ति धारण करो। शिवजी की कृपा से सदा सर्वत्र तुम्हारी विजय हो। सर्वान्तरात्मा भगवान् श्रीहरि सदा तुमपर प्रसन्न रहें। श्रीकृष्ण में तथा कल्याणदाता गुरुदेव शिव में तुम्हारी सुदृढ भक्ति बनी रहे; क्योंकि जिसकी इष्टदेव तथा गुरु में शाश्वती भक्ति होती है, उस पर यदि सभी देवता कुपित हो जायँ तो भी उसे मार नहीं सकते। तुम तो श्रीकृष्ण के भक्त और शंकर के शिष्य हो तथा मुझ गुरुपत्‍‌नी की स्तुति कर रहे हो; इसलिए किसकी शक्ति है जो तुम्हें मार सके। अहो! जो अन्यान्य देवताओं के भक्त हैं अथवा उनकी भक्ति न करके निरंकुश ही हैं, परंतु श्रीकृष्ण के भक्त हैं तो उनका कहीं भी अमङ्गल नहीं होता। भार्गव! भला, जिन भाग्यवानों पर बलवान् चन्द्रमा प्रसन्न हैं तो दुर्बल तारागण रुष्ट होकर उनका क्या बिगाड सकते हैं। सभा में महान आत्मबल से सम्पन्न सुखी नरेश जिसपर संतुष्ट है, उसका दुर्बल भृत्यवर्ग कुपित होकर क्या कर लेगा? यों कहकर पार्वती हर्षित हो परशुराम को शुभाशीर्वाद देकर अन्त:पुर में चली गयीं। तब तुरंत हरि-नाम का घोष गूँज उठा।

महिमा

जो मनुष्य इस काण्वशाखोक्त स्तोत्र का पूजा के समय, यात्रा के अवसर पर अथवा प्रात:काल पाठ करता है, वह अवश्य ही अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेता है। इसके पाठ से पुत्रार्थी को पुत्र, कन्यार्थी को कन्या, विद्यार्थी को विद्या, प्रजार्थी को प्रजा, राज्यभ्रष्ट को राज्य और धनहीन को धन की प्राप्ति होती है। जिसपर गुरु, देवता, राजा अथवा बन्धु-बान्धव क्रुद्ध हो गये हों, उसके लिये ये सभी इस स्तोत्रराज की कृपा से प्रसन्न होकर वरदाता हो जाते हैं। जिसे चोर-डाकुओं ने घेर लिया हो, साँप ने डस लिया हो, जो भयानक शत्रु के चंगुल में फँस गया हो अथवा व्याधिग्रस्त हो; वह इस स्तोत्र के स्मरण मात्र से मुक्त हो जाता है। राजद्वार पर, श्मशान में, कारागार में और बन्धन में पडा हुआ तथा अगाध जलराशि में डूबता हुआ मनुष्य इस स्तोत्र के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। स्वामिभेद, पुत्रभेद तथा भयंकर मित्रभेद के अवसर पर इस स्तोत्र के स्मरण मात्र से निश्चय ही अभीष्टार्थ की प्राप्ति होती है। जो स्त्री वर्षपर्यन्त भक्ति पूर्वक दुर्गा का भलीभाँति पूजन करके हविष्यान्न खाकर इस स्तोत्रराज को सुनती है, वह महावन्ध्या हो तो भी प्रसववाली हो जाती है। उसे ज्ञानी एवं चिरजीवी दिव्य पुत्र प्राप्त होता है। छ: महीने तक इसका श्रवण करने से दुर्भगा सौभाग्यवती हो जाती है। जो काकवन्ध्या और मृतवत्सा नारी भक्ति पूर्वक नौ मास तक इस स्तोत्रराज को सुनती है, वह निश्चय ही पुत्र पाती है। जो कन्या की माता तो है परंतु पुत्र से हीन है, वह यदि पाँच महीने तक कलश पर दुर्गा की सम्यक् पूजा करके इस स्तोत्र को श्रवण करती है तो उसे अवश्य ही पुत्र की प्राप्ति होती है।

रचनाकार

ब्रह्मवैवर्त पुराण में गणपति खण्ड से उद्धृत इस स्तोत्र का स्तवन परशुराम ने श्रीहरि के निर्देश पर माता दुर्गा (शिवा) को प्रसन्न करने के लिए किया था। परशुराम अपने गुरु शिव का आशीर्वाद लेने के लिए अन्त:पुर जाना चाहते थे। गणेश द्वारा रोके जाने पर दोनों में युद्ध हुआ जिसमें परशुराम ने शिव प्रदत्त फरसा चला दिया जिससे गणेश जी का एक दाँत टूट गया था (एक दंत पडा)। इससे कुपित होकर पार्वती परशुराम को मारने के लिए उद्यत हो गई। उसी समय भगवान् विष्णु बौने ब्राह्मण-बालक के रूप में उपस्थित हुए। उन्होंने पार्वती को समझाया तथा परशुराम को उनकी स्तुति करने का निर्देश दिया।

शिवकृतं दुर्गास्तोत्रम्

श्रीमहादेव उवाच
रक्ष रक्ष महादेवि दुर्गे दुर्गतिनाशिनि। मां भक्त मनुरक्तं च शत्रुग्रस्तं कृपामयि॥
विष्णुमाये महाभागे नारायणि सनातनि। ब्रह्मस्वरूपे परमे नित्यानन्दस्वरूपिणी॥
त्वं च ब्रह्मादिदेवानामम्बिके जगदम्बिके। त्वं साकारे च गुणतो निराकारे च निर्गुणात्॥
मायया पुरुषस्त्वं च मायया प्रकृति: स्वयम्। तयो: परं ब्रह्म परं त्वं बिभर्षि सनातनि॥
वेदानां जननी त्वं च सावित्री च परात्परा। वैकुण्ठे च महालक्ष्मी: सर्वसम्पत्स्वरूपिणी॥
म‌र्त्यलक्ष्मीश्च क्षीरोदे कामिनी शेषशायिन:। स्वर्गेषु स्वर्गलक्ष्मीस्त्वं राजलक्ष्मीश्च भूतले॥
नागादिलक्ष्मी: पाताले गृहेषु गृहदेवता। सर्वशस्यस्वरूपा त्वं सर्वैश्वर्यविधायिनी॥
रागाधिष्ठातृदेवी त्वं ब्रह्मणश्च सरस्वती। प्राणानामधिदेवी त्वं कृष्णस्य परमात्मन:॥
गोलोके च स्वयं राधा श्रीकृष्णस्यैव वक्षसि। गोलोकाधिष्ठिता देवी वृन्दावनवने वने॥
श्रीरासमण्डले रम्या वृन्दावनविनोदिनी। शतश्रृङ्गाधिदेवी त्वं नामन चित्रावलीति च॥
दक्षकन्या कुत्र कल्पे कुत्र कल्पे च शैलजा। देवमातादितिस्त्वं च सर्वाधारा वसुन्धरा॥
त्वमेव गङ्गा तुलसी त्वं च स्वाहा स्वधा सती। त्वदंशांशांशकलया सर्वदेवादियोषित:॥
स्त्रीरूपं चापिपुरुषं देवि त्वं च नपुंसकम्। वृक्षाणां वृक्षरूपा त्वं सृष्टा चाङ्कुररूपिणी॥
वह्नौ च दाहिकाशक्ति र्जले शैत्यस्वरूपिणी। सूर्ये तेज:स्वरूपा च प्रभारूपा च संततम्॥
गन्धरूपा च भूमौ च आकाशे शब्दरूपिणी। शोभास्वरूपा चन्द्रे च पद्मसङ्घे च निश्चितम्॥
सृष्टौ सृष्टिस्वरूपा च पालने परिपालिका। महामारी च संहारे जले च जलरूपिणी॥
क्षुत्त्‍‌वं दया त्वं निद्रा त्वं तृष्णा त्वं बुद्धिरूपिणी। तुष्टिस्त्वं चापि पुष्टिस्त्वं श्रद्धा त्वं च क्षमा स्वयम्॥
शान्तिस्त्वं च स्वयं भ्रान्ति: कान्तिस्त्वं कीर्तिरेव च। लज्जा त्वं च तथा माया भुक्ति मुक्ति स्वरूपिणी॥
सर्वशक्ति स्वरूपा त्वं सर्वसम्पत्प्रदायिनी। वेदेऽनिर्वचनीया त्वं त्वां न जानाति कश्चन॥
सहस्त्रवक्त्रस्त्वां स्तोतुं न च शक्त : सुरेश्वरि। वेदा न शक्त ा: को विद्वान् न च शक्त ा सरस्वती॥
स्वयं विधाता शक्तो न न च विष्णु: सनातन:। किं स्तौमि पञ्चवक्त्रेण रणत्रस्तो महेश्वरि॥
कृपां कुरु महामाये मम शत्रुक्षयं कुरु।

भावार्थ

श्रीमहादेवजी ने कहा - दुर्गति का विनाश करने वाली महादेवि दुर्गे! मैं शत्रु के चंगुल में फँस गया हूँ; अत: कृपामयि! मुझ अनुरक्त भक्त की रक्षा करो, रक्षा करो। महाभगे जगदम्बिके! विष्णुमाया, नारायणी, सनातनी, ब्रह्मस्वरूपा, परमा और नित्यानन्दस्वरूपिणी- ये तुम्हारे ही नाम हैं। तुम ब्रह्मा आदि देवताओं की जननी हो। तुम्हीं सगुण-रूप से साकार और निर्गुण-रूप से निराकार हो। सनातनि! तुम्हीं माया के वशीभूत हो पुरुष और माया से स्वयं प्रकृति बन जाती हो तथा जो इन पुरुष-प्रकृति से परे हैं; उस परब्रह्म को तुम धारण करती हो। तुम वेदों की माता परात्परा सावित्री हो। वैकुण्ठ में समस्त सम्पत्तियों की स्वरूपभूता महालक्ष्मी, क्षीरसागर में शेषशायी नारायण की प्रियतमा म‌र्त्यलक्ष्मी, स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी और भूतलपर राजलक्ष्मी तुम्हीं हो। तुम पाताल में नागादिलक्ष्मी, घरों में गृहदेवता, सर्वशस्यस्वरूपा तथा सम्पूर्ण ऐश्वर्यो का विधान करने वाली हो। तुम्हीं ब्रह्मा की रागाधिष्ठात्री देवी सरस्वती हो और परमात्मा श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिदेवी भी तुम्हीं हो। तुम गोलोक में श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल पर शोभा पाने वाली गोलोक की अधिष्ठात्री देवी स्वयं राधा, वृन्दावन में होने वाली रासमण्डल में सौन्दर्यशालिनी वृन्दावनविनोदिनी तथा चित्रावली नाम से प्रसिद्ध शतश्रृङ्गपर्वत की अधिदेवी हो। तुम किसी कल्प में दक्ष की कन्या और किसी कल्प में हिमालय की पुत्री हो जाती हो। देवमाता अदिति और सबकी आधारस्वरूपा पृथ्वी तुम्हीं हो। तुम्हीं गङ्गा, तुलसी, स्वाहा, स्वधा और सती हो। समस्त देवाङ्गनाएँ तुम्हारे अंशांश की अंशकाला से उत्पन्न हुई हैं। देवि! स्त्री, पुरुष और नपुंसक तुम्हारे ही रूप हैं। तुम वूक्षों में वृक्षरूपा हो और अंकुर-रूप से तुम्हारा सृजन हुआ है। तुम अगिन् में दाहिका शक्ति , जल में शीतलता, सूर्य में सदा तेज:स्वरूप तथा कान्तिरूप, पृथ्वी में गन्धरूप, आकाश में शब्दरूप, चन्द्रमा और कमलसमूह में सदा शोभारूप, सृष्टि में सृष्टिस्वरूप, पालन-कार्य में भलीभाँति पालन करने वाली, संहारकाल में महामारी और जल में जलरूप में वर्तमान रहती हो। तुम्हीं क्षुधा, तुम्हीं दया, तुम्हीं निद्रा, तुम्हीं तृष्णा, तुम्हीं बुद्धिरूपिणी, तुम्हीं तुष्टि, तुम्हीं पुष्टि, तुम्हीं श्रद्धा और तुम्हीं स्वयं क्षमा हो। तुम स्वयं शान्ति, भ्रान्ति और कान्ति हो तथा कीर्ति भी तुम्हीं हो। तुम लज्जा तथा भोग-मोक्ष्ज्ञ-स्वरूपिणी माया हो। तुम सर्वशक्ति स्वरूपा और सम्पूर्ण सम्पत्ति प्रदान करने वाली हो। वेद में भी तुम अनिर्वचनीय हो, अत: कोई भी तुम्हें यथार्थरूप से नही जानता। सुरेश्वरि! न तो सहस्त्र मुखवाले शेष तुम्हारा स्तवन करने में समर्थ हैं, न वेदों में वर्णन करने की शक्ति है और न सरस्वती ही तुम्हारा बखान कर सकती है; फिर कोई विद्वान कैसे कर सकता है? महेश्वरि! जिसका स्तवन स्वयं ब्रह्मा और सनातन भगवान् विष्णु नहीं कर सकते, उसकी स्तुति युद्ध से भयभीत हुआ मैं अपने पाँच मुखों द्वारा कैसे कर सकता हूँ? अत: महामाये! तुम मुझपर कृपा करके मेरे शत्रु का विनाश कर दो।

रचनाकार

इस स्तोत्र का स्तवन भगवती दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए भगवान् शिव ने किया था। ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्म खण्ड के उद्धृत इस स्तोत्र द्वारा स्तवन करके शम्भु ने त्रिपुरासुर का वध किया था। यह स्तोत्रराज संपूर्ण अज्ञान को नाश करने वाला तथा मनोरथों को पूरा करने वाला है।

"महामृत्युञ्जय शिव".....(प्राणों के रक्षक)


शिव आदि देव है।शिव को समझना या जानना सब कुछ जान लेना जैसा हैं।अपने भक्तों पर परम करूणा जो रखते है,जिनके कारण यह सृष्टि संभव हो पायी है,वह एकमात्र शिव ही है।शिव इस ब्रह्माण्ड में सबसे उदार एवं कल्याणकारी हैं।अनेक रुपों में शिव सिर्फ दाता हैं।सम्पूर्ण लोक के सभी देवता और देवियाँ महा ऐश्वर्यशाली हैं,परन्तु शिव के पास सब कुछ रहते हुए भी वे वैरागी हैं।कारण वे ही निराकार और साकार पूर्ण ब्रह्म हैं।शिव पल पल कितने विष पीते है,कहना क्या?दक्ष प्रजापति ने अपनी पुत्री सती का कन्यादान किया था,शिव दमाद थे।परन्तु एक बार किसी सभा में सभी देवों की उपस्थिती में दक्ष के आने पर सभी देवता और ॠषिगण सम्मान में दक्ष को प्रणाम करने लगे,परन्तु शिव कुछ नही बोले।इस बात को स्वयं का अनादर समझ कर दक्ष शिव को भूतों का स्वामी,वेद से बहिष्कृत रहने वाला कह अपमान करने लगे,परन्तु शिव ने कुछ नहीं कहा।
कुछ काल बाद दक्ष प्रजापति ने एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन कनखल क्षेत्र में रखा सभी देवी,देवता,ॠषि,मुनि सहित असुर,नवग्रह,नक्षत्र मण्डल को भी निमंत्रित किया परन्तु शिव को नही बुलाया।कारण शिव के अपमान के लिए ही यज्ञ रखा गया था।शिव भक्त दधिचि शिव के बिना यज्ञ को अमंगलकारी बताकर वहां से चले गये।अभिमानी लोगों का यही हाल है वो थोड़ी सी शक्ति आ जाने पर अपने को सर्वज्ञ समझ लेते है।रोहिणी संग चन्द्रमा को जाते देख सती को जब इस बात का ज्ञान हुआ कि मेरे पिता के यहां यज्ञ में ये जा रहे है तो आश्चर्य हुआ कि हमे क्यों नही बुलाया?वे शिव जी के समीप जाकर बोली कि स्वामी मेरे पिता ने हमें यज्ञ में नहीं बुलाया फिर भी मैं जाना चाहती हूँ।सती को शिव नें समझाया कि बिन बुलाए जाना मृत्यु के समान हैं,परन्तु सति द्वारा हठ करने पर शिव ने आज्ञा प्रदान की।यज्ञ में जब शिव की निन्दा सुन सती ने आत्मदाह कर लिया तो शिव ने अपनी जटा से वीरभद्र तथा कालिका को प्रकट कर असंख्य गणों के साथ दक्ष यज्ञ के विनाश के लिए भेजा।क्या परिणाम हुआ अंहकारी,देव,दानव के साथ दक्ष का भी सिर मुण्डन हो गया।फिर शिव की दया ही थी कि ब्रह्मा जी के स्तुति से प्रसन्न होकर दक्ष को पशु मुख देकर अभय दान प्रदान किया।
शिव है तो सारी सृष्टि हैं।शिव का एक रूप है "महामृत्युञ्जय" जो सभी को अमृत प्रदान करते है।आज प्रकृति हमारे विरूद्ध हो गई है,कारण हम उस दिव्य प्रकृति को ही नष्ट कर रहे हैं।हम शायद ज्यादा बुद्धिमान वैज्ञानिक हो गये है।इतने ही अगर हम योग्य हो गये है तो,महामारी,भूकम्प और गंगा आदि नदीयों की अशुद्धता,आसुरी बुद्धि चिंतन को बदलने का विज्ञान क्यों नहीं ढूढँ लेते हैं।हर युग में विज्ञान रहा है।द्वापर में कृष्ण के समय भी इस सृष्टि में आसुरी प्रवृति की कमी नहीं थी,तभी तो महाभारत जैसा युद्ध हुआ था।आज उन्हीं आसुरी जीवों का ज्यादा विकास हो रहा समाज में,शिव को मनाना होगा स्तुति से प्रसन्न करना होगा तभी संतुलन होगा।भक्ती तो आज बहुत से लोग कर रहे है।भगवत कृपा,दिव्य दर्शन भी ज्यादा से ज्यादा हो रहे है,परन्तु हमारी आँखे कभी प्रभु को खोजती भी हैं क्या।शिव तो सदा हमारे सामने ही खड़े है क्या हम उन्हें देख पाते है,नहीं!कारण हमेशा व्यर्थ की चीजों को देख अपनी आँखो को थका लेते है,जिस कारण से अब उर्जा ही नहीं रही तीसरे नेत्र से देखने की हममे।शिव व्याकुल हैं हमारे लिए पर हमे तो भक्ति करने का भी ढंग नही है।हमे भी तो शिव के लिए व्याकुल होना पड़ेगा।हम दुशमन है अपने परिवार के,अपनी संतान के अपनी नयी पीढी के जिसे अपने अंहकार वश विंध्वस के राह पर ले जा रहे है,कारण शरीर,मन,बुद्धि से हम रोगग्रस्त है।यहाँ बस शिव मृत्युञ्जय की अराधना से ही हम स्वस्थ हो पायेंगे।इस विषम परिस्थितियों से बचने के लिए शिव कृपा ही एकमात्र सहारा है।मृत्यु क्या है?सिर्फ शरीर के मृत्यु की बात नहीं हैं यह,हमारे इच्छाओं की मृत्यु।हमारे जीवन की बहुत सी भौतिक जरूरते,वंश और समाज की अवनति तथा कोई भी अभाव मृत्यु ही तो हैं।
 -:अनुभव:-
मैंने जीवन में इतने प्रयोग किये है,करवाये है और देखे है की लिखूँ तो एक वृहद पुस्तक का रूप ले लेंगे।माँ काली की साधना के दौरान १० लाख मंत्र जप के बाद जब मेरा शरीर जर्जर होकर रोग ग्रस्त हो गया था तब बहुत से उपाय,दवा और दुआ के बाद भी मैं ठीक न हो सका था।मैं समझ गया अब बचना मुश्किल है,क्या करूं बच्चे अभी छोटे है इनका क्या होगा।एक रात यूँही चुपचाप रोते रोते नींद आ गई तभी मैने देखा एक विचित्र वेषभूषा में एक आदमी मेरे पास आकर बोलता है कि तुम बच नहीं सकते,तुम्हें मरना पड़ेगा।और तभी ११,१२ वर्ष के उम्र के गौर वर्ण शिव प्रकट हुए बालक रूप में।ये तो बटुक भौरव लगते है कहता हुआ और उन्हें देख वह आदमी भाग गया और मैं तो भाव विह्वल होकर बस उन्हें प्रणाम करने लगा।उन्होनें कुछ आदेश दिया,कुछ गोपनीय बात बतायी,और चले गये।मैं प्रथम बार काशी की यात्रा कर श्री विश्वनाथ जी का दर्शन किया।रात्री ८ बज रहे थे,हल्की बारिश की फुहार हो रही थी।मैं मणिकर्णिका घाट पर था तभी एक,अघोरी स्त्री ने आकर मुझे मृत्युञ्जय मंत्र नित्य दिन में जप करने को कहा।ये स्त्री कौन है,सोच ही रहा था कि वह न जाने कहां लोप हो गई।प्रातः से मैने मंदिर में जप शूरू किया और उसी दिन लगा कि अब मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ।कितनी ऐसी घटना है,शिव बाबा के करुणा और स्नेह की।
-:संदेश:-
पुराण की कथा लोग ठीक से समझ जाये तो मर्म समझ में आ जायेगा।सती महाशक्ति थी,वह जानती थी,कि शिव से वियोग होने वाला है।शिव निराकार ब्रह्म है परन्तु साकार रूप बस मेरी खातिर ही धरे हैं मैं उनकी आत्मा हूँ।मेरा अगला अवतरण हिमालय के यहाँ होगा तब तक शिव समाधि में रहेगे इसी कारण जाने के पूर्व दश महाविद्या के रूप में शिव के दशों दिशा में विराजमान हो गई।शिव ही सभी कुछ है,शिव ही माँ है,"माँ" ही शिव है,ये दो होते हुए भी एक ही हैं।शिव,शक्ति का अमिट प्रेम ही सत्य है तभी तो कहा गया "सत्यम शिवम सुन्दरम्"।
मृत्युञ्जय शस्त्र विहीन है पर उनकी शक्ति अमृतेश्वरी पीताम्बरा माता हैं।जो कहती है "देते रहिये शिव,बांटते रहिए,जीव पर करूणा बरसाते रहिये,मैं तो अमृत कुण्ड की स्वामिनी हूँ और आप मेरे स्वामी है।" यही शिवशक्ति का संबध है।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                             -:मंत्र प्रयोग:-
मूल मंत्र में संपुट लगा देने से यह मंत्र महामृत्युञ्जय हो जाता है।लघु मृत्युंजय तथा बहुत से ऐसे मंत्र है,जिसका जप किया जाता है।जीव को मृत्यु मुख से खींच लाते है,मृत्युंजय।आज तो हमेशा भय लगा रहता है कि कब क्या हो जाय।ग्रह के अशुभ दशा या दैविक,दैहिक प्रभाव,तंत्र या कोई भी अनिष्टकारी प्रभाव को दूर कर देते है पल में।पुरा परिवार सुरक्षित रहता है,छोटा रोग हो या असाध्य बिमारी,आपरेशन हो या महामारी,कोई खो जाय या कोई भी संकट आन पड़े मृत्युंजय की कृपा से सब कुछ अच्छा हो जाता हैं।मृत्युंजय मंत्र ३२ अक्षर का "त्र्यम्बक मंत्र" भी कहलाता हैं ।"ॐ" लगा देने से यह ३३ अक्षर का हो जाता हैं,इस मंत्र में संपुट लगा देने से मंत्र का कई रूप प्रकट हो जाता है।गायत्री मंत्र के साथ प्रयोग करने पर यह "मृतसंजीवनी मंत्र" हो जाता हैं।मंत्र प्रयोग के लिए "शिव वास" देखकर ही जप शुरू करें।शिव मंदिर में मंत्र जप करने पर कोई नियम की पाबन्दी नहीं हैं।यदि घर में पूजन करते है तो पहले पार्थिव शिव पूजन करके या चित्र का पूजन कर घी का दीपक अर्पण कर,पुष्प,प्रसाद के साथ कामना के लिए दायें हाथ में जल,अक्षत लेकर संकल्प कर ले।कितनी संख्या में जप करना है यह निर्णय कर ले साथ ही जप माला रूद्राक्ष का ही हो।एक निश्चित संख्या में ही जप होना चाहिए।हवन के दिन "अग्निवास" देख लेना चाहिए।आज मै "मृत्युंजय प्रयोग" दे रहा हूँ,विधि संक्षिप्त हैं पूरी श्रद्धा के साथ प्रयोग करे,और शिव कृपा देखे।साथ ही शिव पार्थिव पूजन विधि श्रावण में दे दूंगा।गुरू,गणेश पूजन के बाद शिव पूजन कर,पूर्व दिशा में ऊनी आसन पर बैठ एकाग्र चित जप करना चाहिये।आचमनी निम्न मंत्र से कर संकल्प कर ले।दाएँ हाथ मे जल लेकर मंत्र बोले 
मंत्र
१.ॐ केशवाय नमः।जल पी जाए।
२.ॐ नारायणाय नमः।जल पी जाए।
३.ॐ माधवाय नमः।जल पी लें।
अब हाथ इस मंत्र से धो ले।४.ॐ हृषिकेषाय नमः।

अब संकल्प करे।संकल्प अपने कामना अनुसार छोटा,बड़ा कर सकते है।दाएँ हाथ में जल,अक्षत,बेलपत्र,द्रव्य,सुपारी रख संकल्प करें।
संकल्प 
"ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुःश्रीमद् भगवतो महापूरूषस्य,विष्णुराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्माणोऽहनि द्वितीये परार्धे श्री श्वेत वाराहकल्पे,वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशति तमे कलियुगे कलि प्रथमचरणे भारतवर्षे भरतखण्डे जम्बूद्वीपे आर्यावर्तैक देशान्तर्गते अमुक संवतसरे महांमागल्यप्रद मासोतमे मासे अमुक मासे अमुकपक्षे,अमुकतिथौःअमुकवासरे,अमुक गोत्रोत्पन्नोहं अमुक शर्माहं,या वर्माहं ममात्मनःश्रुति स्मृति,पुराणतन्त्रोक्त फलप्राप्तये मम जन्मपत्रिका ग्रहदोष,दैहिक,दैविक,भौतिक ताप सर्वारिष्ट निरसन पूर्वक सर्वपाप क्षयार्थं मनसेप्सित फल प्राप्ति पूर्वक,दीर्घायु,विपुलं,बल,धन,धान्य,यश,पुष्टि,प्राप्तयर्थम सकल आधि,व्याधि,दोष परिहार्थम सकलाभीष्टसिद्धये श्री शिव मृत्युंजय प्रीत्यर्थ पूजन,न्यास,ध्यान यथा संख्याक मंत्र जप करिष्ये।"
गणेश प्रार्थना
गजाननं भूतगणादि सेवितं कपित्थजम्बू फलचारूभक्षणम्।उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम्॥नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय,गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते॥ॐ श्री गणेशाय नमः।

गुरू प्रार्थना 
गुरूर्ब्रह्मा,गुरूर्विष्णु,गुरूर्देवो महेश्वरः।गुरू साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः॥

गौरी प्रार्थना
ॐ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्मताम्॥
                            
  विनियोग 
अस्य त्र्यम्बक मन्त्रस्य वसिष्ठ ऋषिःअनुष्टुप छन्दःत्र्यम्बक पार्वतीपतिर्देवता,त्र्यं बीजम्,वं शक्तिः,कं कीलकम्,सर्वेष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यास
 ॐ वसिष्ठर्षये नमःशिरसि।अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे।त्र्यम्बकपार्वतीपति देवतायै नमः हृदि।त्र्यं बीजाय नमः गुह्ये।वं शक्तये नमः पादयोः।कं कीलकाय नमः नाभौ।
विनियोगाय नमःसर्वागें।
करन्यास
त्र्यम्बकम् अंगुष्ठाभ्यां नमः।यजामहे तर्जनीभ्यां नमः।सुगंधिं पुष्टिवर्द्धनं मध्यमाभ्यां नमः।उर्वारूकमिव बन्धनात् अनामिकाभ्यां नमः।मृत्योर्मुक्षीय कनिष्ठिकाभ्यां नमः।मामृतात् करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
हृदयादिन्यास
ॐ त्र्यम्बकं हृदयाय नमः।यजामहे शिरसे स्वाहा।सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनं शिखायै वषट्।उर्वारूकमिव बन्धनात् कवचाय हुं।मृत्योर्मुक्षीय नेत्रत्रयाय वौषट्।मामृतात् अस्त्राय फट्।
ध्यान
हस्ताभ्यां कलशद्वयामृतरसैराप्लावयन्तं शिरो द्वाभ्यां तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्यां बहन्तं परम्।अंकन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकान्तं शिवं स्वच्छाम्भोजगतं नवेन्दुमुकुटं देवं त्रिनेत्रं भजे।
मंत्र
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
हवन विधि
जप के समापन के दिन हवन के लिए बिल्वफल,तिल,चावल,चन्दन,पंचमेवा,जायफल,गुगुल,करायल,गुड़,सरसों धूप,घी मिलाकर हवन करे।रोग शान्ति के लिए,दूर्वा,गुरूचका चार इंच का टुकड़ा,घी मिलाकर हवन करे।श्री प्राप्ति के लिए बिल्वफल,कमलबीज,तथा खीर का हवन करे।ज्वरशांति में अपामार्ग,मृत्युभय में जायफल एवं दही,शत्रुनिवारण में पीला सरसों का हवन करें।हवन के अंत में सुखा नारियल गोला में घी भरकर खीर के साथ पुर्णाहुति दें।इसके बाद तर्पण,मार्जन करे।एक कांसे,पीतल की थाली में जल,गो दूध मिलाकर अंजली से तर्पण करे।मंत्र के दशांश हवन,उसका दशांश तर्पण,उसका दशांश मार्जन,उसका दशांश का शिवभक्त और ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए।तर्पण,मार्जन में मूल मंत्र के अंत मे तर्पण में "तर्पयामी" तथा मार्जन मे "मार्जयामी" लगा लें।अब इसके दशांश के बराबर या १,३,५,९,११ ब्राह्मणों और शिव भक्तों को भोजन कर आशिर्वाद ले।जप से पूर्व कवच का पाठ भी किया जा सकता है,या नित्य पाठ करने से आयु वृद्धि के साथ रोग से छुटकारा मिलता है।
मृत्युञ्जय कवच
विनियोग
अस्य मृत्युञ्जय कवचस्य वामदेव ऋषिःगायत्रीछन्दः मृत्युञ्जयो देवता साधकाभीष्टसिद्धर्यथ जपे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यास
वामदेव ऋषये नमःशिरसि,गायत्रीच्छन्दसे नमःमुखे,मृत्युञ्जय देवतायै नमःहृदये,विनियोगाय नमःसर्वांगे।
करन्यास
ॐ जूं सःअगुष्ठाभ्यां नमः।ॐ जूं सः तर्जनीभ्यां नमः।ॐजूं सः मध्याभ्यां नमः।ॐजूं सःअनामिकाभ्यां नमः।ॐजूं सःकनिष्ठिकाभ्यां नमः।ॐजूं सःकरतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
हृदयादिन्यास
ॐजूं सः हृदयाय नमः।ॐजूं सःशिरसे स्वाहा।ॐजूं सःशिखायै वषट्।ॐजूं सःकवचाय हुं।ॐजूंसःनेत्रत्रयाय वौषट्।ॐजूं सःअस्त्राय फट्।
ध्यान
हस्ताभ्यां.....उपरोक्त ध्यान ही पढ ले।
शिरो मे सर्वदा पातु मृत्युञ्जय सदाशिवः।स त्र्यक्षरस्वरूपो मे वदनं च महेश्वरः॥
पञ्चाक्षरात्मा भगवान् भुजौ मे परिरक्षतु।मृत्युञ्जयस्त्रिबीजात्मा ह्यायू रक्षतु मे सदा॥
बिल्ववृक्षसमासीनो दक्षिणामूर्तिरव्ययः।सदा मे सर्वदा पातु षट्त्रिंशद् वर्णरूपधृक्॥
द्वाविंशत्यक्षरो रूद्रः कुक्षौ मे परिरक्षतु।त्रिवर्णात्मा नीलकण्ठः कण्ठं रक्षतु सर्वदा॥
चिन्तामणिर्बीजपूरे ह्यर्द्धनारीश्वरो हरः।सदा रक्षतु में गुह्यं सर्वसम्पत्प्रदायकः॥
स त्र्यक्षर स्वरूपात्मा कूटरूपो महेश्वरः।मार्तण्डभैरवो नित्यं पादौ मे परिरक्षतु॥
ॐ जूं सः महाबीज स्वरूपस्त्रिपुरान्तकः।ऊर्ध्वमूर्घनि चेशानो मम रक्षतु सर्वदा॥
दक्षिणस्यां महादेवो रक्षेन्मे गिरिनायकः।अघोराख्यो महादेवःपूर्वस्यां परिरक्षतु॥
वामदेवः पश्चिमायां सदा मे परिरक्षतु।उत्तरस्यां सदा पातु सद्योजातस्वरूपधृक्॥

इस कवच को विधि विधान से अभिमंत्रित कर धारण करने का विशेष लाभ हैं।महामृत्युञ्जय मंत्र का बड़ा महात्मय है।शिव के रहते कैसी चिन्ता ये अपने भक्तों के सारे ताप शाप भस्म कर देते है।शिव है तो हम है,यह सृष्टि है तथा जगत का सारा विस्तार है,शिव भोलेभाले है और उनकी शक्ति है भोली शिवा,यही लीला हैं।