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गुह्याद् गुह्यतरं सारमुपकार-प्रकाशनम्।
इदं स्वरोदयं ज्ञानं ज्ञानानां मस्तके मणिः।।11।।
अन्वयः- इदं स्वरोदयं ज्ञानं गुह्यात् गुहयतरम् सारम्
उपकार-प्रकाशनम् च ज्ञानानां मस्तके मणि (इन अस्ति)।
भावार्थः (हे देवि), स्वरोदय का ज्ञान अत्यन्त गोपनीय ज्ञानों से भी गोपनीय है। यह अपने ज्ञाता का हर प्रकार से हित करता है। यह स्वरोदय ज्ञान सभी ज्ञानों के मस्तक पर मणि के समान है, अर्थात् यह ज्ञानी के लिए अमूल्य रत्न से भी बढ़कर है।
सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं ज्ञानं सुबोधं सत्यप्रत्ययम्।
आश्चर्यं नास्तिके लोके आधारं त्वास्तिके जने।।12।।
अन्वयः सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरम् (इदं) ज्ञानं सुबोधं सत्यप्रत्ययं च (अस्ति)।
(इदं) लोके नास्तिके आश्चर्यं आस्तिके जने तु आधारम् (अस्ति)।
भावार्थः- सूक्ष्म से भी सूक्ष्म होने पर भी यह ज्ञान सुबोध और सत्य का साधन है अर्थात् सत्य का बोध कराने वाला है। यह नास्तिकों को आश्चर्य में डालने वाला और आस्तिकों के लिए उनकी आस्था का आधार है।
शांते शुद्धे सदाचारे गुरूभक्त्यैकमानसे।
दृढ़चित्ते कृतज्ञे च देयं चैव स्वरोदयम्।।13।।
अन्वयः- शांते शुद्धे सदाचारे गुरुभक्त्या एकमानसे
दृढ़चित्ते कृतज्ञे च स्वरोदयं (ज्ञानं) देयम्।
भावार्थः- (हे देवि) जिस व्यक्ति की प्रकृति शांत हो गयी हो, जिसका चित्त शुद्ध हो, सदाचारी हो, अपने गुरु के प्रति एकनिष्ठ हो, जिसका निश्चय दृढ़ हो, ऐसे पुनीत आचरण वाले व्यक्ति को स्वरोदय ज्ञान की दीक्षा देनी चाहिए या ऐसा व्यक्ति स्वरोदय ज्ञान का अधिकारी होता है।
दुष्टे च दुर्जने क्रुद्धे नास्तिके गुरुतल्पगे।
हीनसत्त्वे दुराचारे स्वरज्ञानं न दीयते।।14।।
अन्वयः- दुष्टे, दुर्जने, क्रुद्धे, नास्तिके, गुरूतल्पगे,
हीनसत्त्वे दुराचारे च स्वरज्ञानं न दीयते।
भावार्थः- दुष्ट, दुर्जन, क्रोधी, नास्तिक, कामुक, सत्त्वहीन और दुराचारी को स्वरोदय ज्ञान की दीक्षा कभी नहीं देनी चाहिए।
शृणु त्वं कथितं देवि देहस्थ ज्ञानमुत्तमम्।
येन विज्ञानमात्रेण सर्वज्ञत्त्वं प्रणीयते।।15।।
अन्वयः- हे देवि, त्वं देहस्थम् उत्तमं ज्ञानं शृणु,
येन विज्ञानमात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रणीयते।
भावार्थः- हे देवि शरीर में स्थित इस उत्तम ज्ञान को सुनो, जिसे विशेष रुप जान लेने पर (व्यक्ति) सर्वज्ञ हो जाता है।
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