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अन्वय -- हे देवि, (कश्चित) कदाचन कुयोगो नास्तिको भविता, (अपि)
शुद्धे स्वरबले प्राप्ते (तस्मै) सर्वम् एवं शुभं फलम् प्राप्तम्।
भावार्थ& हे देवि, यदि कोई व्यक्ति दुर्भाग्य से कभी नास्तिक हो जाये, तो स्वरोदय ज्ञान प्राप्त कर लेने पर वह पुन: पावन हो जाता है और उसे भी शुभ फल ही मिलते हैं।
देहमध्ये स्थिता नाड्यो बहुरूपाः सुविस्तरात्।
ज्ञातव्याश्च बुधैर्नित्यं स्वदेहज्ञानहेतवे।।31।।
अन्वय – देहमध्ये स्थिताः ना़ड्यः सुविस्तरात् बहुरूपाः। बुधैः स्वदेहज्ञानहेतवे नित्यं ज्ञातव्याः।
भावार्थ - मनुष्य के शरीर में अनेक नाड़ियों का जाल बिछा हुआ है। बुद्धिमान लोगों को अपने शरीर को अच्छी तरह जानने के लिए इनके विषय में अवश्य जानना चाहिए।
भावार्थ - मनुष्य के शरीर में अनेक नाड़ियों का जाल बिछा हुआ है। बुद्धिमान लोगों को अपने शरीर को अच्छी तरह जानने के लिए इनके विषय में अवश्य जानना चाहिए।
नाभिस्थानककन्दोर्ध्वमंकुरा इव निर्गताः।
द्विसप्ततिसहस्त्राणि देहमध्ये व्यवस्थिताः।।32।।
अन्वय – नाभिस्थानककन्दोर्ध्वम् अंकुरा इव निर्गताः व्यवस्थिताः (नाड्यः) देहमध्ये द्विसप्ततिसहस्त्राणि।
भावार्थ – शरीर में नाभि केंद्र से ऊपर की ओर अंकुर की तरह निकली हुई हैं और पूरे शरीर में व्यवस्थित ढंग से फैली हुई हैं।
भावार्थ – शरीर में नाभि केंद्र से ऊपर की ओर अंकुर की तरह निकली हुई हैं और पूरे शरीर में व्यवस्थित ढंग से फैली हुई हैं।
नाडीस्था कुण्डली शक्तिर्भुजङ्गाकारशायिनी।
ततो दशोर्ध्वगा नाड्यो दशैवाधः प्रतिष्ठिताः।।33।।
अन्वय - नाडीस्था भुजङ्गाकारशायिनी कुण्डलीशक्तिः। ततो दश उर्ध्वगा नाड्यः दश एव अधः प्रतिष्ठिताः।
भावार्थ – इन नाड़ियों में सर्पाकार कुण्डलिनी शक्ति सोती हुई निवास करती है। वहां से दस नाड़ियां ऊपर की ओर गयी हैं और दस नीचे की ओर।
भावार्थ – इन नाड़ियों में सर्पाकार कुण्डलिनी शक्ति सोती हुई निवास करती है। वहां से दस नाड़ियां ऊपर की ओर गयी हैं और दस नीचे की ओर।
द्वे द्वे तिर्यग्गते नाड्यो चतुर्विंशति सङ्ख्यया।
प्रधाना दशनाड्यस्तु दशवायुप्रवाहिकाः।।34।।
अन्वय – द्वे द्वे तिर्यग्गते नाड्यः सङ्ख्यया चतुर्विशति, (तेषु) दशवायुप्रवाहिकाः दशनाड्यस्तु प्रधानाः।
भावार्थ – दो-दो नाड़ियाँ शरीर के दोनों ओर तिरछी गयी हैं। इस प्रकार दस ऊपर, दस नीचे और चार शरीर के दोनों तिरछी जाने वाली नाड़ियाँ संख्या में चौबीस हैं। किन्तु उनमें दस नाडियाँ मुख्य हैं जिनसे होकर दस प्राण हमारे शरीर में निरन्तर प्रवाहित होते रहते हैं।
भावार्थ – दो-दो नाड़ियाँ शरीर के दोनों ओर तिरछी गयी हैं। इस प्रकार दस ऊपर, दस नीचे और चार शरीर के दोनों तिरछी जाने वाली नाड़ियाँ संख्या में चौबीस हैं। किन्तु उनमें दस नाडियाँ मुख्य हैं जिनसे होकर दस प्राण हमारे शरीर में निरन्तर प्रवाहित होते रहते हैं।
तिर्यगूर्ध्वास्तथाSधःस्था वायुदेहसमन्विताः।
चक्रवत्संस्थिता देहे सर्वाः प्राणसमाश्रिताः।।35।।
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