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Wednesday, April 22, 2015

शिव स्वरोदय (भाग-9)


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अन्वय – इडा-पिङ्गला-सुषु्म्नाभिः तिसृभिः नाडीभिः बुधः देहमध्यतः प्राणसञ्चारं प्रकटं लक्ष्येत्।
भावार्ध – इडा, पिङ्गला और सुषुम्ना तीनों नाड़ियों की सहायता से शरीर के मध्य भाग में प्राणों के संचार को प्रत्यक्ष करना चाहिए। यहाँ शरीर के मध्य के दो अर्थ निकलते हैं- पहला नाभि और दूसरा मेरुदण्ड।
इडा वामेव विज्ञेया पिङ्गला दक्षिणे स्मृता।
इडानाडीस्थिता वामा ततो व्यस्ता च पिङ्गला।।49।।
अन्वय – इडा नाड़ी वामे विज्ञेया पिङ्गला (च) दक्षिणे स्मृता। (अतएव) इडा वामा पिङ्गला ततो व्यस्ता (इति कथ्यते)।
भावार्थ – इडा नाडी बायीं ओर स्थित है तथा पिङ्गला दाहिनी ओर। अतएव इडा को वाम क्षेत्र और पिंगला को दक्षिण क्षेत्र कहा जाता है।
इडायां तु स्थितश्चन्द्रः पिङ्गलायां च भास्करः।
सुषुम्ना शम्भुरूपेण शम्भुर्हंसस्वरूपतः।।50।।
अन्वय – चन्द्रः इडायां तु स्थितः भास्करः पिङ्गलायां च सुषुम्ना शम्भुरूपेण। शम्भु हंसस्वरूपतः।
भावार्थ – चंद्रमा इडा नाडी में स्थित है और सूर्य पिङ्गला नाडी में तथा सुषुम्ना स्वयं शिव-स्वरूप है। भगवान शिव का वह स्वरूप हंस कहलाता है, अर्थात् जहाँ शिव और शक्ति एक हो जाते हैं और श्वाँस अवरुद्घ हो जाती है। क्योंकि-
हकारो निर्गमे प्रोक्त सकारेण प्रवेशणम्।
हकारः शिवरूपेण सकारः शक्तिरुच्यते।।51।।

                                                  
                          
        


अन्वय – (श्वासस्य) निर्गमे हकारः प्रोक्तः प्रवेशणं सकारेण (च)। हकारः शिवरूपेण सकारः शक्तिः उच्यते।
भावार्य - तंत्रशास्त्र और योगशास्त्र की मान्यता है कि जब हमारी श्वाँस बाहर निकलती है तो “हं” की ध्वनि निकलती है और जब श्वाँस अन्दर जाती है तो “सः (सो)” की। हं को शिव- स्वरूप माना जाता है और सः या सो को शक्ति-रूप।
शक्तिरूपस्थितश्चन्द्रो वामनाडीप्रवाहकः।
दक्षनाडीप्रवाहश्च शम्भुरूपो दिवाकरः।।52।।
अन्वय – वामनाडीप्रवाहकः चन्द्रः शक्तिरूपस्थितः दक्षनाडीप्रवाहः च दिवाकरः शम्भुरूपः।
भावार्थ - वायीं नासिका से प्रवाहित होने वाला स्वर चन्द्र कहलाता है और शक्ति का रूप माना जाता है। इसी प्रकार दाहिनी नासिका से प्रवाहित होने वाला स्वर सूर्य कहलाता है, जिसे शम्भु (शिव) का रूप माना जाता है।
श्वासे सकारसंस्थे तु यद्दाने दीयते बुधैः।
तद्दानं जीवलोकेSस्मिन् कोटिकोटिगुणं भवेत्।।53।।
अन्वय – सकारसंस्थे तु बुधैः यद् दाने दीयते तद् दानं अस्मिन् जीवलोके कोटि-कोटिगुणं भवेत्।
भावार्थ – श्वास लेते समय विद्वान लोग जो दान देते हैं, वह दान इस संसार में कई करोड़गुना हो जाता है।
अनेन लक्षयेद्योगी चैकचित्तः समाहितः।
सर्वमेवविजानीयान्मार्गे वै चन्द्रसूर्ययोः।।54।।
अन्वय – एकचित्तः योगी चन्द्रसूर्ययोः मार्गे लक्षयेत् अनेन (सः) समाहितः
(भूत्वा) सर्वमेव विजानीयात्।
भावार्थ – एकाग्रचित्त होकर योगी चन्द्र और सूर्य नाड़ियों की गतिविधियों के द्वारा
सबकुछ जान लेता है।
ध्यायेत्तत्त्वं स्थिरे जीवे अस्थिरे न कदाचन।
इष्टसिद्धिर्भवेत्तस्य महालाभो जयस्तथा।।55।।
अन्वय – स्थिरे जीवे तत्त्वं ध्यायेत् कदाचन न (ध्यायेत्)। (अनेन) तस्य इष्टसिद्धिः महालाभः जयः तथा भवेत्।

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