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Wednesday, April 22, 2015

शिव स्वरोदय (भाग-2)



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तत्वमेव परं मूलं निश्चितं तत्त्ववादिभिः।
तत्त्वस्वरूपं किं देव तत्त्वमेव प्रकाशय।।5।।
अन्वय --देव्युवाच – देव, परं मूलं तत्वम् निश्चितम् एव कथम? तत्ववादिभि: तत्वस्वरूपं किम्? (तत्) तत्वं प्रकाशय।
अर्थ:- हे देव! किस प्रकार (सृष्टि, स्थिति, संहार एवं इनके निर्णय) का मूल कारण तत्व हैं? तत्ववादियों ने उसका क्या स्वरूप बताया है? वह तत्व क्या है?
निरंजनो निराकार एको देवो महेश्वरः।
तस्मादाकाशमुत्पन्नमाकाशाद्वायुसंभवः।।6।।
अन्वय -- ईश्वर उवाच - निरञ्जन: निराकार: एक: देव: महेष्वर:
(तदेव तत् तत्वम्)। तस्माद् (एव) आकाशम् उत्पन्नम्
आकाशाद् वायु: सम्भव:।
अर्थ:- हे देवि, अजन्मा और निराकार एक मात्र देवता महेश्वर हैं, वे ही इस जगत प्रपंच के मूल कारण हैं। उन्हीं देव से सर्वप्रथम यह आकाश उत्पन्न हुआ और आकाश से वायु उत्पन्न हुआ।
वायोस्तेजस्ततश्चापस्ततः पृथ्वीसमुद्भवः।
एतानि पंचतत्त्वानि विस्तीर्णानि पंचधा ।।7।।
अन्वय --वायो: तेज: तत: आप: तत: पृथिव्या: (तत्वम्) समुद्भव: (भवति)। एतानि पञ्चतत्वानि विस्तीर्णानि पञचधा।
अर्थ:- वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी का उद्भव हुआ। इन पाँच प्रकार से ये पंच महाभूत विस्तृत होकर (समष्टि रूप से) सृष्टि करते हैं।


तेभ्यो ब्रह्माण्डमुत्पन्नं तैरेव परिवर्त्तते।
विलीयते च तत्रैव तत्रैव रमते पुनः।।8।।
अन्वय -- तेभ्यो ब्रह्माण्डम् उत्पन्नं, तै: एव परिवर्तते, विलीयते
तत्रैव एव, तत्र एव च रमते पुन:।
अर्थ:- उन्हीं पंच महाभूतों से ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता है, उन्हीं के द्वारा परिवर्तित होता है और उन्हीं में विलीन हो जाता है तथा सृष्टि का क्रम सतत् चलता रहता है।
पंचतत्त्वमये देहे पंचतत्त्वानि सुन्दरि।
सूक्ष्म रुपेण वर्त्तन्ते ज्ञायन्ते तत्त्वयोगिभिः।।9।।
अन्वय -- (हे) सुन्दरि, पंचतत्वमये देहे पंचतत्वानि सूक्ष्मरूपेण
वर्तन्ते, तत्वयोगिभि: ज्ञायन्ते।
अर्थ:- हे सुन्दरि, इन्हीं पाँच तत्वों से निर्मित हमारे शरीर में ये पाँचों तत्व सूक्ष्म रूप से सक्रिय रहते हैं, जिनसे हमारे शरीर में परिवर्तन होता रहता है। इनका पूर्ण ज्ञान तत्वदर्शी योगियों को ही होता है। यहाँ तत्वायोगी का अर्थ तत्व की साधना कर तत्वों के रहस्यों के प्रकाश का साक्षात् करने वाले योगियों से है।
अथ स्वरं प्रवक्ष्यामि शरीरस्थस्वरोदयम्।
हंसचारस्वरूपेण भवेज्ज्ञानं त्रिकालजम्।।10।।
अन्वयः अथ शरीरस्थ स्वरोदयं स्वरं प्रलक्ष्यामिं।
हंसचाररुपेण त्रिकालजं ज्ञानं भवेत्।
भावार्थः हे देवि, इसके बाद मैं अब तुम्हें शरीर में स्थित स्वरोदय को व्यक्त करने वाले स्वर के विषय में बताता हूँ। यह स्वर “हंस” रूप है अर्थात् जब साँस बाहर निकलती है तो ‘हं’ की ध्वनि होती है और जब साँस अन्दर जाती है तो ‘सः (सो)’ की ध्वनि होती है। इसके संचरण के स्वरूप का ज्ञान हो जाने पर तीनों काल- भूत, भविष्य और वर्तमान हस्तामलवक हो जाते हैं।

शिव स्वरोदय (भाग-9)


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अन्वय – इडा-पिङ्गला-सुषु्म्नाभिः तिसृभिः नाडीभिः बुधः देहमध्यतः प्राणसञ्चारं प्रकटं लक्ष्येत्।
भावार्ध – इडा, पिङ्गला और सुषुम्ना तीनों नाड़ियों की सहायता से शरीर के मध्य भाग में प्राणों के संचार को प्रत्यक्ष करना चाहिए। यहाँ शरीर के मध्य के दो अर्थ निकलते हैं- पहला नाभि और दूसरा मेरुदण्ड।
इडा वामेव विज्ञेया पिङ्गला दक्षिणे स्मृता।
इडानाडीस्थिता वामा ततो व्यस्ता च पिङ्गला।।49।।
अन्वय – इडा नाड़ी वामे विज्ञेया पिङ्गला (च) दक्षिणे स्मृता। (अतएव) इडा वामा पिङ्गला ततो व्यस्ता (इति कथ्यते)।
भावार्थ – इडा नाडी बायीं ओर स्थित है तथा पिङ्गला दाहिनी ओर। अतएव इडा को वाम क्षेत्र और पिंगला को दक्षिण क्षेत्र कहा जाता है।
इडायां तु स्थितश्चन्द्रः पिङ्गलायां च भास्करः।
सुषुम्ना शम्भुरूपेण शम्भुर्हंसस्वरूपतः।।50।।
अन्वय – चन्द्रः इडायां तु स्थितः भास्करः पिङ्गलायां च सुषुम्ना शम्भुरूपेण। शम्भु हंसस्वरूपतः।
भावार्थ – चंद्रमा इडा नाडी में स्थित है और सूर्य पिङ्गला नाडी में तथा सुषुम्ना स्वयं शिव-स्वरूप है। भगवान शिव का वह स्वरूप हंस कहलाता है, अर्थात् जहाँ शिव और शक्ति एक हो जाते हैं और श्वाँस अवरुद्घ हो जाती है। क्योंकि-
हकारो निर्गमे प्रोक्त सकारेण प्रवेशणम्।
हकारः शिवरूपेण सकारः शक्तिरुच्यते।।51।।

                                                  
                          
        


अन्वय – (श्वासस्य) निर्गमे हकारः प्रोक्तः प्रवेशणं सकारेण (च)। हकारः शिवरूपेण सकारः शक्तिः उच्यते।
भावार्य - तंत्रशास्त्र और योगशास्त्र की मान्यता है कि जब हमारी श्वाँस बाहर निकलती है तो “हं” की ध्वनि निकलती है और जब श्वाँस अन्दर जाती है तो “सः (सो)” की। हं को शिव- स्वरूप माना जाता है और सः या सो को शक्ति-रूप।
शक्तिरूपस्थितश्चन्द्रो वामनाडीप्रवाहकः।
दक्षनाडीप्रवाहश्च शम्भुरूपो दिवाकरः।।52।।
अन्वय – वामनाडीप्रवाहकः चन्द्रः शक्तिरूपस्थितः दक्षनाडीप्रवाहः च दिवाकरः शम्भुरूपः।
भावार्थ - वायीं नासिका से प्रवाहित होने वाला स्वर चन्द्र कहलाता है और शक्ति का रूप माना जाता है। इसी प्रकार दाहिनी नासिका से प्रवाहित होने वाला स्वर सूर्य कहलाता है, जिसे शम्भु (शिव) का रूप माना जाता है।
श्वासे सकारसंस्थे तु यद्दाने दीयते बुधैः।
तद्दानं जीवलोकेSस्मिन् कोटिकोटिगुणं भवेत्।।53।।
अन्वय – सकारसंस्थे तु बुधैः यद् दाने दीयते तद् दानं अस्मिन् जीवलोके कोटि-कोटिगुणं भवेत्।
भावार्थ – श्वास लेते समय विद्वान लोग जो दान देते हैं, वह दान इस संसार में कई करोड़गुना हो जाता है।
अनेन लक्षयेद्योगी चैकचित्तः समाहितः।
सर्वमेवविजानीयान्मार्गे वै चन्द्रसूर्ययोः।।54।।
अन्वय – एकचित्तः योगी चन्द्रसूर्ययोः मार्गे लक्षयेत् अनेन (सः) समाहितः
(भूत्वा) सर्वमेव विजानीयात्।
भावार्थ – एकाग्रचित्त होकर योगी चन्द्र और सूर्य नाड़ियों की गतिविधियों के द्वारा
सबकुछ जान लेता है।
ध्यायेत्तत्त्वं स्थिरे जीवे अस्थिरे न कदाचन।
इष्टसिद्धिर्भवेत्तस्य महालाभो जयस्तथा।।55।।
अन्वय – स्थिरे जीवे तत्त्वं ध्यायेत् कदाचन न (ध्यायेत्)। (अनेन) तस्य इष्टसिद्धिः महालाभः जयः तथा भवेत्।

शिव स्वरोदय (भाग-8)


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अन्वय –प्राणमार्गे इडा पिङ्गला सुषुम्ना च समाश्रिताः।
देहमध्ये तु एताः दश नाड्यः व्यवस्थिताः
भावार्थः - उक्त चार श्लोकों को अर्थ सुविधा की दृष्टि से एक साथ लिया जा रहा है। शरीर के बाएँ भाग में इडा नाड़ी, दाहिने भाग में पिंगला, मध्य भाग में सुषुम्ना, बाईं आँख में गांधारी, दाहिनी आँख में हस्तिजिह्वा, दाहिने कान में पूषा, बाएँ कान में यशस्विनी, मुखमण्डल में अलम्बुषा, जननांगों में कुहू और गुदा में शांखिनी नाड़ी स्थित है। इस प्रकार से दस नाड़ियाँ शरीर के उक्त अंगों के द्वार पर अर्थात् ये अंग जहाँ खुलते हैं, वहाँ स्थित हैं।
इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना ये तीन नाड़ियाँ प्राण मार्ग में स्थित हैं। इस प्रकार दस नाडियाँ उक्त अंगों में शरीर के मध्य भाग में स्थित हैं। (38-41 तक)
नामान्येतानि नाडीनां वातानान्तु वदाम्यहम्।
प्राणोऽपानः समानश्च उदानो व्यान एव च।।42।।
नागः कूर्मोऽथकृकलो देवदत्तो धनञ्जयः।
हृदि प्राणो वसेन्नित्यमपानो गुह्यमण्डले।।43।।
समानो नाभिदेशे तु उदानः कण्ठमध्यगः।
व्यानो व्यापि शरीरेषु प्रधानाः दशवायवः।।44।।
प्राणाद्याः पञ्चविख्याताः नागाद्याः पञ्चवायवः।
तेषामपि पञ्चनां स्थानानि च वदाम्यहम्।।45।।
उद्गारे नाग आख्यातः कूर्मून्मीलने स्मृतः।
कृकलो क्षुतकृज्ज्ञेय देवदत्तो विजृंम्भणे।।46।।
न जहाति मृतं वापिसर्वव्यापि धनञ्जयः।
एते नाडीषु सर्वासु भ्रमन्ते जीवरूपिणः।।47।।

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भावार्थ - हे शिवे, नाड़ियों के बाद अब मैं तुम्हें इनसे संबंधित वायुओं (प्राणों) के विषय में बताऊँगा। इनकी भी संख्या दस है। दस में पाँच प्रमुख प्राण है और पाँच सहायक प्राण हैं। पाँच मुख्य वायु (प्राण) है- प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। सहायक प्राण वायु हैं - नाग, कूर्म, कृकल (कृकर), देवदत्त और धनंजय। प्रमुख पाँच प्राणों की स्थिति निम्नवत है।
प्राण वायु स्थिति
प्राण हृदय
अपान उत्सर्जक अंग
समान नाभि
उदान कंठ
व्यान पूरे शरीर में
पाँच सहायक प्राण-वायु के कार्य निम्न लिखित हैं-
सहायक प्राण-वायु कार्य
नाग डकार आना
कूर्म पलकों का झपकना
कृकल छींक आना
देवदत्त जम्हाई आना
धनंजय यह पूरे शरीर में व्याप्त रहता है मृत्यु के बाद भी कुछ तक समय यह शरीर में बना रहता है।
इस प्रकार ये दस प्राण वायु दस नाड़ियो से होकर शरीर में जीव के रुप में भ्रमण करते रहते हैं, अर्थात् सक्रिय रहते हैं।
इन श्लोकों के अन्वय की आवश्यकता नहीं है। इसलिए यहाँ इनके अन्वय नहीं दिए जा रहे हैं।
प्रकटं प्राणसञ्चारं लक्ष्येद्देहमध्यतः।
इडापिङ्गलासुषुम्नाभिर्नाडीभिस्तिसृभिबुधः।।48।।

शिव स्वरोदय (भाग-7)


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अन्वय - तिर्यग्-ऊर्ध्वाः तथा अधः देहे वायुसमन्विताः चक्रवत् सर्वाः (नाड्यः) देहे प्राणसमाश्रिताः संस्थिताः।
भावार्थ – ऊपर और नीचे विपरीत कोणों से निकलने वाली ये नाड़ियाँ शरीर में जहाँ आपस में मिलती हैं वहाँ ये चक्र का आकार बना लेती हैं। किन्तु इनका नियंत्रण प्राण शक्ति से ही होता है।
तासां मध्ये दश श्रेष्ठा दशानां तिस्र उत्तमाः।
इडा च पिङ्गला चैव सषुम्ना च तृतीयका।।36।।
अन्वय – तासां मध्ये दश (नाड्यः) श्रेष्ठाः, दशानाम् (अपि) तिस्रः उत्तमाः – इडा
च पिङ्गला चैव सुषुम्ना च तृतीयका।
भावार्थ – इन चौबीस नाडियों में दस श्रेष्ठ हैं और उनमें भी तीन सर्वोत्तम हैं –
इडा, पिंगला और सुषुम्ना।
गांधारी हस्तिजिह्वा च पूषा चैव यशस्विनी।
अलम्बुषा कुहूश्चैव शङ्खिनी दशमी तथा।।37।।

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अन्वय – गांधारी, हस्तिजिह्वा च पूषा यशस्विनी चैव अलम्बुषा, कुहूः शङ्खिनी
चैव दशमी तथा।
भावार्थ – उक्त तीन नाड़ियों के अलावा सात नाड़ियाँ हैं – गांधारी, हस्तिजिह्वा,
पूषा, यशस्विनी, अलम्बुषा, कुहू और शंखिनी।
शिव स्वरोदय(भाग-3)
इस अंक में नाड़ियों की स्थिति तथा प्राणों के नाम सहित स्थान का विवरण दिया जा रहा हैः-
इडा वामे स्थिता भागे पिङ्गला दक्षिणे स्मृता।
सुषुम्ना मध्यदेशे तु गान्धारी वामचक्षुषि।।38।।
अन्वय – वामे भागे इडा स्थिता, दक्षिणे (भागे) पिङ्गला स्मृता, मध्यदेशे तु सुषुम्ना वाम चक्षुषि गान्धारी।
दक्षिणे हस्तिजिह्वा च पूषा कर्णे च दक्षिणे।
यशस्विनी वामकर्णे आनने चाप्यलम्बुषा।।39।।
अन्वय – दक्षिणे (चक्षुषि) हस्तिजिह्वा, दक्षिणे कर्णे पूषा,
वाम कर्णे यशस्विनी आनने च अलम्बुषा।
कुहूश्च लिङ्गदेशे तु मूलस्थाने तु शङ्खिनी।
एवं द्वारं समाश्रित्य तिष्ठन्ति दशनाडिकाः।।40।।
अन्वय –लिङ्गदेशे तु कुहूः मूलस्थाने तु च शङ्किनी।
एवं द्वारं समाश्रित्य दशनाडिकाः तिष्ठन्ति।
इडा पिङ्गला सुषुम्ना च प्राणमार्गे समाश्रिताः।
एता हि दशनाड्यस्तु देहमध्ये व्यवस्थिताः।।41।।
अन्वय –प्राणमार्गे इडा पिङ्गला सुषुम्ना च समाश्रिताः।
देहमध्ये तु एताः दश नाड्यः व्यवस्थिताः

शिव स्वरोदय (भाग-6)


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अन्वय -- हे देवि, (कश्चित) कदाचन कुयोगो नास्तिको भविता, (अपि)
शुद्धे स्वरबले प्राप्ते (तस्मै) सर्वम् एवं शुभं फलम् प्राप्तम्।
भावार्थ& हे देवि, यदि कोई व्यक्ति दुर्भाग्य से कभी नास्तिक हो जाये, तो स्वरोदय ज्ञान प्राप्त कर लेने पर वह पुन: पावन हो जाता है और उसे भी शुभ फल ही मिलते हैं।
देहमध्ये स्थिता नाड्यो बहुरूपाः सुविस्तरात्।
ज्ञातव्याश्च बुधैर्नित्यं स्वदेहज्ञानहेतवे।।31।।
अन्वय – देहमध्ये स्थिताः ना़ड्यः सुविस्तरात् बहुरूपाः। बुधैः स्वदेहज्ञानहेतवे नित्यं ज्ञातव्याः।
भावार्थ - मनुष्य के शरीर में अनेक नाड़ियों का जाल बिछा हुआ है। बुद्धिमान लोगों को अपने शरीर को अच्छी तरह जानने के लिए इनके विषय में अवश्य जानना चाहिए।
नाभिस्थानककन्दोर्ध्वमंकुरा इव निर्गताः।
द्विसप्ततिसहस्त्राणि देहमध्ये व्यवस्थिताः।।32।।

                                         

अन्वय – नाभिस्थानककन्दोर्ध्वम् अंकुरा इव निर्गताः व्यवस्थिताः (नाड्यः) देहमध्ये द्विसप्ततिसहस्त्राणि।
भावार्थ – शरीर में नाभि केंद्र से ऊपर की ओर अंकुर की तरह निकली हुई हैं और पूरे शरीर में व्यवस्थित ढंग से फैली हुई हैं।
नाडीस्था कुण्डली शक्तिर्भुजङ्गाकारशायिनी।
ततो दशोर्ध्वगा नाड्यो दशैवाधः प्रतिष्ठिताः।।33।।
अन्वय - नाडीस्था भुजङ्गाकारशायिनी कुण्डलीशक्तिः। ततो दश उर्ध्वगा नाड्यः दश एव अधः प्रतिष्ठिताः।
भावार्थ – इन नाड़ियों में सर्पाकार कुण्डलिनी शक्ति सोती हुई निवास करती है। वहां से दस नाड़ियां ऊपर की ओर गयी हैं और दस नीचे की ओर।
द्वे द्वे तिर्यग्गते नाड्यो चतुर्विंशति सङ्ख्यया।
प्रधाना दशनाड्यस्तु दशवायुप्रवाहिकाः।।34।।
अन्वय – द्वे द्वे तिर्यग्गते नाड्यः सङ्ख्यया चतुर्विशति, (तेषु) दशवायुप्रवाहिकाः दशनाड्यस्तु प्रधानाः।
भावार्थ – दो-दो नाड़ियाँ शरीर के दोनों ओर तिरछी गयी हैं। इस प्रकार दस ऊपर, दस नीचे और चार शरीर के दोनों तिरछी जाने वाली नाड़ियाँ संख्या में चौबीस हैं। किन्तु उनमें दस नाडियाँ मुख्य हैं जिनसे होकर दस प्राण हमारे शरीर में निरन्तर प्रवाहित होते रहते हैं।
तिर्यगूर्ध्वास्तथाSधःस्था वायुदेहसमन्विताः।
चक्रवत्संस्थिता देहे सर्वाः प्राणसमाश्रिताः।।35।।

शिव स्वरोदय (भाग-5)


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नामरूपादिकाः सर्वे मिथ्या सर्वेषु विभ्रमः।
अज्ञान मोहिता मूढ़ा यावत्तत्त्वे न विद्यते।।26।।
अन्वय -- यावत् तत्वे (पूर्णतया ज्ञानं) न विद्यते, (तावत्) अज्ञानमोहिता: मूढ़ा: सर्वेषु सर्वे नामादिका: मिथ्या विभ्रम: (जायते)।
भावार्थ& -- जब तक तत्वों का पूर्ण ज्ञान नहीं हो जाता, तब तक हम अज्ञान के वशीभूत होकर नाम आदि के मिथ्या भवजाल में फंसे रहते हैं।
इदं स्वरोदयं शास्त्रं सर्वशास्त्रोत्तमोत्तमम्।
आत्मघट प्रकाशार्थं प्रदीपकलिकोपमम्।।27।।
अन्वय -- सर्वशास्त्रोत्तमोत्तमम् इदं स्वरोदयं शास्त्रम् (यत्) आत्मघटं
प्रकाशार्थं प्रदीपकलिकोपमम्
भावार्थ& -- स्वरोदय शास्त्र सभी उत्तम शास्त्रों में श्रेष्ठ है जो हमारे आत्मारूपी घट (घर) को दीपक की ज्योति के रूप में आलोकित करता है।
यस्मै कस्मै परस्मै वा न प्रोक्तं प्रश्नहेतवे।
तस्मादेतत्स्वयं ज्ञेयमात्मनोवाऽत्मनात्मनि।।28।।

       
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अन्वय -- यस्मै, कस्मै, परस्मै वा प्रश्नहेतवे (मात्रमेव) न प्रोक्तं,
तस्माद् एतद् स्वयं आत्मना आत्मानि आत्मन: ज्ञेयम्।
भावार्थ& -- इस परम विद्या का उद्देश्य मात्र भौतिक जगत सम्बन्धी अथवा अन्य उपलब्धियों से जुड़े प्रश्नों के उत्तर पाना नहीं है। बल्कि आत्म-साक्षात्कार हेतु इस विद्या को स्वयं सीखना चाहिए और निष्ठापूर्वक इसका अभ्यास करना चाहिए।
न तिथिर्न च नक्षत्रं न वारो ग्रहदेवताः।
न च विष्टिर्व्यतीपातो वैधृत्याद्यास्तथैव च।।29।।
अन्वय -- न तिथि:, न नक्षत्रं न वार: (न) ग्रहदेवता:, न च विष्टि:,
व्यतीपात: वैधृति-आद्या: तथैव च।
भावार्थ& स्वरज्ञानी को किसी काम को प्रारम्भ करने के लिए ज्योतिषीय दृष्टिकोण से शुभ तिथि, नक्षत्र, दिन, ग्रहदेवता, भद्रा, व्यतिपात और योग (वैधृति आदि) आदि के विचार करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। अर्थात् कार्य के अनुकूल स्वर और तत्व के उदय काल में कभी भी कार्य प्रारम्भ किया जा सकता है।
कुयोगो नास्तिको देवि भविता वा कदाचन।
प्राप्ते स्वरबले शुद्धे सर्वमेव शुभं फलम्।।30।।
अन्वय -- हे देवि, (कश्चित) कदाचन कुयोगो नास्तिको भविता, (अपि)
शुद्धे स्वरबले प्राप्ते (तस्मै) सर्वम् एवं शुभं फलम् प्राप्तम्।
भावार्थ& हे देवि, यदि कोई व्यक्ति दुर्भाग्य से कभी नास्तिक हो जाये, तो स्वरोदय ज्ञान प्राप्त कर लेने पर वह पुन: पावन हो जाता है और उसे भी शुभ फल ही मिलते हैं।

शिव स्वरोदय (भाग-4)


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इस अंक में भगवान शिव ने माँ पार्वती को विभिन्न प्रकार से स्वर की महिमा समझाई है।
ब्रह्माण्ड-खण्ड-पिण्डाद्याः स्वरेणैव हि निर्मिताः।
सृष्टि संहारकर्त्ता च स्वर साक्षान्महेश्वरः।।20।।
अन्वय -- स्वरेण एव हि ब्रह्माण्ड-खण्ड-पिण्डाद्या:
निर्मिता: स्वर: च सृष्टिसंहारकर्ता साक्षात् महेश्वर:।
भावार्थ -- ये विराट और लघु ब्रह्माण्ड और इनमें स्थित सभी वस्तुएं स्वर से निर्मित हैं और स्वर ही सृष्टि के संहारक साक्षात् महेश्वर (शिव) हैं।
                                                  

स्वरज्ञानात्परं गुह्मम् स्वरज्ञनात्परं धनम्।
स्वरज्ञानत्परं ज्ञानं नवा दृष्टं नवा श्रुतम्।।21।।
अन्वय -- स्वरज्ञानात् परं गुह्यं (ज्ञानं), स्वरज्ञानात् परं धन,
स्वरज्ञानात् परं ज्ञानं नवा दृष्टं नवा श्रुतम्।
भावार्थ& स्वर के ज्ञान से बढ़कर कोई गोपनीय ज्ञान, स्वर-ज्ञान से बढ़कर कोई धन और स्वर ज्ञान से बड़ा कोई दूसरा ज्ञान न देखा गया और न ही सुना गया है।
शत्रून्हन्यात् स्वबले तथा मित्र समागमः।
लक्ष्मीप्राप्तिः स्वरबले कीर्तिः स्वरबले सुखम्।।22।।
अन्वय -- स्वरबले शत्रून् हन्यात् तथा मित्रसमागम
स्वरबले लक्ष्मी-कीर्ति-सुखप्राप्ति:।
भावार्थ& -- स्वर की शक्ति से शत्रु पराजित हो जाता है, बिछुड़ा मित्र मिल जाता है। यहाँ तक कि माता लक्ष्मी की कृपा, यश और सुख, सब कुछ मिल जाता है।
कन्याप्राप्ति स्वरबले स्वरतो राजदर्शनम्।
स्वरेण देवतासिद्धिः स्वरेण क्षितिपो वशः।।23।।
अन्वय -- स्वरबले कन्याप्राप्ति:, स्वरतो राजदर्शनम् स्वरेण देवतासिद्धि: स्वरेण क्षितिपो वश:।
भावार्थ& -- स्वर ज्ञान द्वारा पत्नी की प्राप्ति, शासक से मिलन, देवताओं की सिद्धि मिल जाती है और राजा भी वश में हो जाता है।
स्वरेण गम्यते देशो भोज्यं स्वरबले तथा।
लघुदीर्घं स्वरबले मलं चैव निवारयेत्।।24।।
अन्वय -- स्वरेण देश: गम्यते स्वरबले भोज्यं तथा स्वरबले लघुदीर्घं
मलं च एव निवारयेत्।
भावार्थ& -- अनुकूल स्वर के समय यात्रा करनी चाहिए, स्वादिष्ट भोजन करना चाहिए तथा मल-मूत्र विसर्जन भी अनुकूल स्वर के काल में ही करना चाहिए।
सर्वशास्त्रपुराणादि स्मृतिवेदांगपूर्वकम्।
स्वरज्ञानात्परं तत्त्वं नास्ति किंचिद्वरानने।।25।।
अन्वय -- हे वरानने, स्वर ज्ञानात्परं सर्वशास्त्रपुराणादिस्मृतिवेदांगपूर्वकं
तत्वं किंचिद् न अस्ति।
भावार्थ& -- हे वरानने, सभी शास्त्रों, वेदों, वेदान्तों, पुराणों और स्मृतियों द्वारा बताया गया कोई ज्ञान या तत्व स्वर ज्ञान से बढ़कर नहीं है।

शिव स्वरोदय (भाग-3)


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गुह्याद् गुह्यतरं सारमुपकार-प्रकाशनम्।
इदं स्वरोदयं ज्ञानं ज्ञानानां मस्तके मणिः।।11।।
अन्वयः- इदं स्वरोदयं ज्ञानं गुह्यात् गुहयतरम् सारम्
उपकार-प्रकाशनम् च ज्ञानानां मस्तके मणि (इन अस्ति)।
भावार्थः (हे देवि), स्वरोदय का ज्ञान अत्यन्त गोपनीय ज्ञानों से भी गोपनीय है। यह अपने ज्ञाता का हर प्रकार से हित करता है। यह स्वरोदय ज्ञान सभी ज्ञानों के मस्तक पर मणि के समान है, अर्थात् यह ज्ञानी के लिए अमूल्य रत्न से भी बढ़कर है।
सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं ज्ञानं सुबोधं सत्यप्रत्ययम्।
आश्चर्यं नास्तिके लोके आधारं त्वास्तिके जने।।12।।
अन्वयः सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरम् (इदं) ज्ञानं सुबोधं सत्यप्रत्ययं च (अस्ति)।
(इदं) लोके नास्तिके आश्चर्यं आस्तिके जने तु आधारम् (अस्ति)।
भावार्थः- सूक्ष्म से भी सूक्ष्म होने पर भी यह ज्ञान सुबोध और सत्य का साधन है अर्थात् सत्य का बोध कराने वाला है। यह नास्तिकों को आश्चर्य में डालने वाला और आस्तिकों के लिए उनकी आस्था का आधार है।
शांते शुद्धे सदाचारे गुरूभक्त्यैकमानसे।
दृढ़चित्ते कृतज्ञे च देयं चैव स्वरोदयम्।।13।।
अन्वयः- शांते शुद्धे सदाचारे गुरुभक्त्या एकमानसे
दृढ़चित्ते कृतज्ञे च स्वरोदयं (ज्ञानं) देयम्।
भावार्थः- (हे देवि) जिस व्यक्ति की प्रकृति शांत हो गयी हो, जिसका चित्त शुद्ध हो, सदाचारी हो, अपने गुरु के प्रति एकनिष्ठ हो, जिसका निश्चय दृढ़ हो, ऐसे पुनीत आचरण वाले व्यक्ति को स्वरोदय ज्ञान की दीक्षा देनी चाहिए या ऐसा व्यक्ति स्वरोदय ज्ञान का अधिकारी होता है।

                              
                                      


दुष्टे च दुर्जने क्रुद्धे नास्तिके गुरुतल्पगे।
हीनसत्त्वे दुराचारे स्वरज्ञानं न दीयते।।14।।
अन्वयः- दुष्टे, दुर्जने, क्रुद्धे, नास्तिके, गुरूतल्पगे,
हीनसत्त्वे दुराचारे च स्वरज्ञानं न दीयते।
भावार्थः- दुष्ट, दुर्जन, क्रोधी, नास्तिक, कामुक, सत्त्वहीन और दुराचारी को स्वरोदय ज्ञान की दीक्षा कभी नहीं देनी चाहिए।
शृणु त्वं कथितं देवि देहस्थ ज्ञानमुत्तमम्।
येन विज्ञानमात्रेण सर्वज्ञत्त्वं प्रणीयते।।15।।
अन्वयः- हे देवि, त्वं देहस्थम् उत्तमं ज्ञानं शृणु,
येन विज्ञानमात्रेण सर्वज्ञत्वं प्रणीयते।
भावार्थः- हे देवि शरीर में स्थित इस उत्तम ज्ञान को सुनो, जिसे विशेष रुप जान लेने पर (व्यक्ति) सर्वज्ञ हो जाता है।

शिव स्वरोदय (भाग-1)


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'शिव स्वरोदय' स्वरोदय विज्ञान पर अत्यन्त प्राचीन ग्रंथ है। इसमें कुल 395 श्लोक हैं। यह ग्रंथ शिव-पार्वती संवाद के रूप में लिखा गया है। शायद इसलिए कि सम्पूर्ण सृष्टि में समष्टि और व्यष्टि का अनवरत संवाद चलता रहता है और योगी अन्तर्मुखी होकर योग द्वारा इस संवाद को सुनता है, समझता है और आत्मसात करता हैं। इस ग्रंथ के रचयिता साक्षात् देवाधिदेव भगवान शिव को माना जाता है। यहाँ शिव स्वरोदय के श्लोकों का हिन्दी और अंग्रेजी में अनुवाद दिया जाएगा। आवश्यकतानुसार व्याख्या भी करने का प्रयास किया जाएगा। वैसे यह ग्रंथ बहुत ही सरल संस्कृत भाषा में लिखा गया है।
इसमें बतायी गयी साधनाओं का अभ्यास बिना किसी स्वरयोगी के सान्निध्य के करना वर्जित है। केवल निरापद प्रयोगों को ही पाठक अपनाएँ।
महेश्वरं नमस्कृत्य शैलजां गणनायकम्।
गुरुं च परमात्मानं भजे संसार तारकम्।।1।।
अन्वय -- महेश्वरं शैलजां गणनायकं संसारतारकं
गुरुं च नमस्कृत्य परमात्मानं भजे।
अर्थ:- महेश्वर भगवान शिव, माँ पार्वती, श्री गणेश और संसार से उद्धार करने वाले गुरु को नमस्कार करके परमात्मा का स्मरण करता हूँ।
देवदेव महादेव कृपां कृत्वा ममोपरि।
सर्वसिद्धिकरं ज्ञानं वदयस्व मम प्रभो।।2।।
अन्वय -- देवदेव महादेव यम प्रभो यमोपरि कृपां कृत्वा
सर्वसिद्धिकरं ज्ञानं वदयस्व।
अर्थ:- माँ पार्वती ने भगवान शिव से कहा कि हे देवाधिदेव महादेव, मेरे स्वामी, मुझ पर कृपा करके सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाले ज्ञान प्रदान कीजिए।
कथं बह्माण्डमुत्पन्नं कथं वा परिवर्त्तते।
कथं विलीयते देव वद ब्रह्माण्डनिर्णयम्।।3।।
अन्वय -- देव, कथं ब्रहमाण्डं उत्पन्नं, कथं परिवर्तते, कथं
विलीयते वा ब्रहमाण्ड-निर्णयं च वद।
अर्थ:- हे देव, मुझे यह बताने की कृपा करें कि यह ब्रह्माण्ड कैसे उत्पन्न हुआ, यह कैसे परिवर्तित होता है, अन्यथा यह कैसे विलीन हो जाता है, अर्थात् इसका प्रलय कैसे होता है और ब्रह्माण्ड का मूल कारण क्या है?
तत्त्वाद् ब्रह्याण्डमुत्पन्नं तत्त्वेन परिवर्त्तते।
तत्त्वे विलीयते देवि तत्त्वाद् ब्रह्मा़ण्डनिर्णयः।।4।
अन्वय-- ईश्वर उवाच - देवि, तत्वाद् ब्रह्माण्डम् उत्पन्नं, तत्वेन
परिवर्त्तते, तत्वे (एव) विलीयते, तत्वाद् (एव)
ब्रह्माण्डनिर्णय: (च)।
अर्थ:- भगवान बोले - हे देवि, यह ब्रह्माण्ड तत्व से उत्पन्न होता है, तत्व से परिवर्तित होता है, तत्व में ही विलीन हो जाता है और तत्व से ही ब्रह्माण्ड का निर्णय होता है, अर्थात् तत्व ही ब्रह्माण्ड का मूल कारण है। (इस प्रकार सृष्टि का अनन्त क्रम चलता रहता है

संत रविदास



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संत कुलभूषण कवि रैदास उन महान सन्तों में अग्रणी थे जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। इनकी रचनाओं की विशेषता लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग रही है जिससे जनमानस पर इनका अमिट प्रभाव पड़ता है। मधुर एवं सहज संत रैदास की वाणी ज्ञानाश्रयी होते हुए भी ज्ञानाश्रयी एवं प्रेमाश्रयी शाखाओं के मध्य सेतु की तरह है।
प्राचीनकाल से ही भारत में विभिन्न धर्मों तथा मतों के अनुयायी निवास करते रहे हैं। इन सबमें मेल-जोल और भाईचारा बढ़ाने के लिए सन्तों ने समय-समय पर महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ऐसे सन्तों में रैदास का नाम अग्रगण्य है। वे सन्त कबीर के गुरूभाई थे क्योंकि उनके भी गुरु स्वामी रामानन्द थे।
जीवन
रैदास का जन्म काशी में चर्मकार (चमार) कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम संतो़ख दास (रग्घु) और माता का नाम कर्मा देवी बताया जाता है। रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। जूते बनाने का काम उनका पैतृक व्यवसाय था और उन्होंने इसे सहर्ष अपनाया। वे अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे।
उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे।
प्रारम्भ से ही रैदास बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे। कुछ समय बाद उन्होंने रैदास तथा उनकी पत्नी को अपने घर से अलग कर दिया। रैदास पड़ोस में ही अपने लिए एक अलग झोपड़ी बनाकर तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे।

               
                                              

स्वभाव
उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे बोले, गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किन्तु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का मैंने वचन दे रखा है। यदि मैं उसे आज जूते नहीं दे सका तो वचन भंग होगा। गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा ? मन जो काम करने के लिए अन्त:करण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है। कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि - मन चंगा तो कठौती में गंगा।
रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया।
वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है।
कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा। वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।
उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सद्व्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया। अपने एक भजन में उन्होंने कहा है-
कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै। तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।
उनके विचारों का आशय यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि लघु शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है।
रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: उनके अनुयायी बन जाते थे।
उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गये। कहा जाता है कि मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्या बन गयी थीं।
वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की। सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।
आज भी सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं।

दोहे
जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
मन चंगा तो कठौती में गंगा ||