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तत्वमेव परं मूलं निश्चितं तत्त्ववादिभिः।
तत्त्वस्वरूपं किं देव तत्त्वमेव प्रकाशय।।5।।
अन्वय --देव्युवाच – देव, परं मूलं तत्वम् निश्चितम् एव कथम? तत्ववादिभि: तत्वस्वरूपं किम्? (तत्) तत्वं प्रकाशय।
अर्थ:- हे देव! किस प्रकार (सृष्टि, स्थिति, संहार एवं इनके निर्णय) का मूल कारण तत्व हैं? तत्ववादियों ने उसका क्या स्वरूप बताया है? वह तत्व क्या है?
निरंजनो निराकार एको देवो महेश्वरः।
तस्मादाकाशमुत्पन्नमाकाशाद्वायुसंभवः।।6।।
अन्वय -- ईश्वर उवाच - निरञ्जन: निराकार: एक: देव: महेष्वर:
(तदेव तत् तत्वम्)। तस्माद् (एव) आकाशम् उत्पन्नम्
आकाशाद् वायु: सम्भव:।
अर्थ:- हे देवि, अजन्मा और निराकार एक मात्र देवता महेश्वर हैं, वे ही इस जगत प्रपंच के मूल कारण हैं। उन्हीं देव से सर्वप्रथम यह आकाश उत्पन्न हुआ और आकाश से वायु उत्पन्न हुआ।
तस्मादाकाशमुत्पन्नमाकाशाद्वायुसंभवः।।6।।
अन्वय -- ईश्वर उवाच - निरञ्जन: निराकार: एक: देव: महेष्वर:
(तदेव तत् तत्वम्)। तस्माद् (एव) आकाशम् उत्पन्नम्
आकाशाद् वायु: सम्भव:।
अर्थ:- हे देवि, अजन्मा और निराकार एक मात्र देवता महेश्वर हैं, वे ही इस जगत प्रपंच के मूल कारण हैं। उन्हीं देव से सर्वप्रथम यह आकाश उत्पन्न हुआ और आकाश से वायु उत्पन्न हुआ।
वायोस्तेजस्ततश्चापस्ततः पृथ्वीसमुद्भवः।
एतानि पंचतत्त्वानि विस्तीर्णानि पंचधा ।।7।।
अन्वय --वायो: तेज: तत: आप: तत: पृथिव्या: (तत्वम्) समुद्भव: (भवति)। एतानि पञ्चतत्वानि विस्तीर्णानि पञचधा।
अर्थ:- वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी का उद्भव हुआ। इन पाँच प्रकार से ये पंच महाभूत विस्तृत होकर (समष्टि रूप से) सृष्टि करते हैं।
एतानि पंचतत्त्वानि विस्तीर्णानि पंचधा ।।7।।
अन्वय --वायो: तेज: तत: आप: तत: पृथिव्या: (तत्वम्) समुद्भव: (भवति)। एतानि पञ्चतत्वानि विस्तीर्णानि पञचधा।
अर्थ:- वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी का उद्भव हुआ। इन पाँच प्रकार से ये पंच महाभूत विस्तृत होकर (समष्टि रूप से) सृष्टि करते हैं।
तेभ्यो ब्रह्माण्डमुत्पन्नं तैरेव परिवर्त्तते।
विलीयते च तत्रैव तत्रैव रमते पुनः।।8।।
अन्वय -- तेभ्यो ब्रह्माण्डम् उत्पन्नं, तै: एव परिवर्तते, विलीयते
तत्रैव एव, तत्र एव च रमते पुन:।
अर्थ:- उन्हीं पंच महाभूतों से ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता है, उन्हीं के द्वारा परिवर्तित होता है और उन्हीं में विलीन हो जाता है तथा सृष्टि का क्रम सतत् चलता रहता है।
विलीयते च तत्रैव तत्रैव रमते पुनः।।8।।
अन्वय -- तेभ्यो ब्रह्माण्डम् उत्पन्नं, तै: एव परिवर्तते, विलीयते
तत्रैव एव, तत्र एव च रमते पुन:।
अर्थ:- उन्हीं पंच महाभूतों से ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता है, उन्हीं के द्वारा परिवर्तित होता है और उन्हीं में विलीन हो जाता है तथा सृष्टि का क्रम सतत् चलता रहता है।
पंचतत्त्वमये देहे पंचतत्त्वानि सुन्दरि।
सूक्ष्म रुपेण वर्त्तन्ते ज्ञायन्ते तत्त्वयोगिभिः।।9।।
अन्वय -- (हे) सुन्दरि, पंचतत्वमये देहे पंचतत्वानि सूक्ष्मरूपेण
वर्तन्ते, तत्वयोगिभि: ज्ञायन्ते।
अर्थ:- हे सुन्दरि, इन्हीं पाँच तत्वों से निर्मित हमारे शरीर में ये पाँचों तत्व सूक्ष्म रूप से सक्रिय रहते हैं, जिनसे हमारे शरीर में परिवर्तन होता रहता है। इनका पूर्ण ज्ञान तत्वदर्शी योगियों को ही होता है। यहाँ तत्वायोगी का अर्थ तत्व की साधना कर तत्वों के रहस्यों के प्रकाश का साक्षात् करने वाले योगियों से है।
सूक्ष्म रुपेण वर्त्तन्ते ज्ञायन्ते तत्त्वयोगिभिः।।9।।
अन्वय -- (हे) सुन्दरि, पंचतत्वमये देहे पंचतत्वानि सूक्ष्मरूपेण
वर्तन्ते, तत्वयोगिभि: ज्ञायन्ते।
अर्थ:- हे सुन्दरि, इन्हीं पाँच तत्वों से निर्मित हमारे शरीर में ये पाँचों तत्व सूक्ष्म रूप से सक्रिय रहते हैं, जिनसे हमारे शरीर में परिवर्तन होता रहता है। इनका पूर्ण ज्ञान तत्वदर्शी योगियों को ही होता है। यहाँ तत्वायोगी का अर्थ तत्व की साधना कर तत्वों के रहस्यों के प्रकाश का साक्षात् करने वाले योगियों से है।
अथ स्वरं प्रवक्ष्यामि शरीरस्थस्वरोदयम्।
हंसचारस्वरूपेण भवेज्ज्ञानं त्रिकालजम्।।10।।
अन्वयः अथ शरीरस्थ स्वरोदयं स्वरं प्रलक्ष्यामिं।
हंसचाररुपेण त्रिकालजं ज्ञानं भवेत्।
भावार्थः हे देवि, इसके बाद मैं अब तुम्हें शरीर में स्थित स्वरोदय को व्यक्त करने वाले स्वर के विषय में बताता हूँ। यह स्वर “हंस” रूप है अर्थात् जब साँस बाहर निकलती है तो ‘हं’ की ध्वनि होती है और जब साँस अन्दर जाती है तो ‘सः (सो)’ की ध्वनि होती है। इसके संचरण के स्वरूप का ज्ञान हो जाने पर तीनों काल- भूत, भविष्य और वर्तमान हस्तामलवक हो जाते हैं।